“पेड़ अपने फल से पहचाना जाता है। यही बात समुदायों पर भी लागू होती है। आपके धर्मग्रन्थ में कितने ही अच्छे सिद्घांत क्यों न हों, आपका परिचय आपकी अपनी हरकतों से होगा। इसलिए जो मुट्ठी भर लोग जिहाद को अपनी गलत व्याख्या से आतंक का पर्याय बनाने पर उतारू हैं, उन्हें समझ लेना चाहिए कि कुरान आतंक का विरोधी है और उनकी अवैध, गैर कानूनी और गैर इस्लामी हरकतें इस्लाम को बदनाम कर रही हैं। इसलिए उन्हें फौरन अपनी गलत हरकतों पर विराम लगा देना चाहिए और बाकी मुस्लिमों को भी देश में कानून व्यवस्था व अमन कायम करने में मदद करनी चाहिए।’
यह बात कानपुर के समाजसेवी अब्दुल गफूर सैफी ने बीती 21 सितंबर को हैदराबाद में आयोजित “कुरान दिवस’ के अवसर पर कही। कुरान दिवस का आयोजन कुरानिक एजुकेशन सोसायटी, हैदराबाद के तत्वावधान में किया गया था। गौरतलब है कि इस संस्था का गठन प्रोफेसर मीर मुस्तफा हुसैन ने इन उद्देश्यों के साथ किया था कि जाति, धर्म, सम्प्रदाय आदि के भेदभाव को छोड़कर हर इंसान का सम्मान सिर्फ इसलिए किया जाना चाहिए कि वह मानव होने के नाते सम्मान का अधिकारी है। कुरान (17/70) में कहा गया है, “आदम की औलाद को हमने सम्मान का अधिकारी बनाया है।’ दूसरी जगह कुरान (2/213) कहता है, “पूरी मानवता एक कुटुम्ब है।’ यही सार प्राचीन भारतीय संस्कृति का भी है, जहां सम्पूर्ण मानवता को “वसुधैव कुटुम्बकम्’ कहकर पुकारा गया है। धर्मों की इन समान शिक्षा को मद्देनजर रखते हुए प्रोफेसर मीर मुस्तफा हुसैन साम्प्रदायिक सौहार्द पर भी बल देते थे और अपने इसी मकसद को पूरा करने के लिए उन्होंने अपनी सारी जायदाद इनसानी भाईचारे के लिए समर्पित कर दी थी। अब हैदराबाद में उनके अनुयायी इसी मकसद को लेकर आगे बढ़ रहे हैं। “कुरान दिवस’ का आयोजन इसी की एक कड़ी था जिसमें देश भर के विशिष्ट विद्वानों ने हिस्सा लिया।
प्रोफेसर मीर मुस्तफा हुसैन के मिशन में सहयोग करने वाली एक प्रमुख शख्सियत डॉ. हसनुद्दीन अहमद हैं। भारत सरकार में डिप्टी सेोटरी के पद से रिटायर होने के बाद वे अपने लेखन से न सिर्फ विभिन्न धर्मो में एकता के लिए प्रयासरत हैं बल्कि अपनी पुस्तकों से कुरान की सही व्याख्या करने की भी कोशिश कर रहे हैं। उन्होंने भगवत गीता का उर्दू में अनुवाद भी इसी उद्देश्य से किया है। बहरहाल, “कुरान दिवस’ पर बोलते हुए डॉ. अहमद ने इस बात पर बल दिया कि कुरान की गलत व्याख्या के कारण मुस्लिमों व अन्य धर्मों के बीच फासला बढ़ा। इस फासले को कम करने का एक तरीका यह भी है कि सभी लोगों के सामने कुरान की सही व्याख्या पेश की जाये। अपने शोध पत्र में उन्होंने उन बिन्दुओं का उल्लेख किया जिनके आधार पर कुरान की सही व्याख्या की जा सकती है।
लेकिन “कुरान दिवस’ में अधिकतर वक्ताओं का ़जोर इस बात पर था कि मुस्लिमों से आतंकवाद को कैसे अलग किया जाय? इस सिलसिले में आंध्र प्रदेश के पूर्व मंत्री बशीरउद्दीन बाबू खां ने तो स्पष्ट कहा, “जो लोग आतंकवाद फैला रहे हैं, वे मुस्लिम नहीं गुण्डे, बदमाश और समाज विरोधी तत्व हैं। उन्हें कानून के सुपुर्द करने में मुस्लिमों को महत्वपूर्ण भूमिका निभानी चाहिए, भले ही इसके लिए मुखबिर ही क्यों न बनना पड़े।’
इसी बात को चेन्नई के युवा और तुलनात्मक धर्म के स्कॉलर फैजुर्रहमान ने भी दोहराया। उन्होंने कहा कि कुरान की महत्वपूर्ण पारिभाषिक शब्दावली की व्याख्या गलत ढंग से की गई है। इस संदर्भ में उन्होंने विशेष रूप से इस्लाम और काफिर की सही व्याख्या पेश की। फैजुर्रहमान ने इस्लाम का अर्थ शान्ति बताया और काफिर उसे बताया जो दैविक संदेश के अनुसार अपने फैसले नहीं करता है।
अन्य वक्ताओं विशेषकर अब्दुल हक सलीम, गयासुद्दीन अकबर आदि ने भी इसी बात पर जोर दिया कि मुस्लिम कुरान के मुताबिक अपनी जिंदगी गुजारें और आतंकवाद से न सिर्फ दूर रहें बल्कि उसे खत्म करने में भी अपना भरपूर योगदान दें। ध्यान रहे कि कुरान कहता है कि अगर तुमने एक निर्दोष व्यक्ति का कत्ल किया तो तुमने पूरी मानवता का कत्ल किया। और अगर तुमने एक व्यक्ति की जान बचाई तो गोया पूरी मानवता की जान बचाई। इस आयत से स्पष्ट हो जाता है कि कुरान आतंकवाद के खिलाफ है। जहां तक जिहाद का संबंध है तो उसका अर्थ है ऐसी जद्दोजहद यानी प्रयास करना जिससे यह संसार तमाम इंसानों (न सिर्फ समुदाय विशेष) के लिए रहने की बेहतर जगह हो जाये।
“कुरान दिवस’ में आपके इस कलमकार को भी विशेष रूप से शोध पत्र प्रस्तुत करने के लिए आमंत्रित किया गया था। अपने शोध पत्र में उसने मुख्य रूप से दो बातों पर बल दिया। एक, कुरान को अमलियात (जादू-टोना) की बजाय अमल (सही कर्म) करने की पुस्तक बनाया जाये और यह तभी संभव होगा जब कुरान को सही से समझा जायेगा। दूसरा यह कि मुस्लिमों को अपने सामाजिक संबंध भी कुरान के अनुसार ही रखने चाहिए। मसलन, कुरान की सूरे अह़जाब की 50वीं आयत से स्पष्ट है कि फर्स्ट कजन्स के बीच शादी नहीं होनी चाहिए क्योंकि यह इजा़जत अपवाद स्वरूप केवल पैगम्बर मुहम्मद को थी न कि आम मुस्लिमों को। इसलिए अगर मुस्लिम जेनेटिक्स के लिहाज से भी अपनी नस्ल को बीमारी से दूर रखना चाहते हैं, तो फर्स्ट कजन्स के बीच गैरकुरानी शादियों पर विराम लगाएं।
बहरहाल, इस अखिल भारतीय सम्मेलन से स्पष्ट हो जाता है कि मुस्लिम आतंकवाद से उतने ही त्रस्त हैं जितने कि अन्य भारतीय और वे भी इस पर अंकुश लगाना चाहते हैं। इसके लिए वह अपने-अपने स्तर पर प्रयास भी कर रहे हैं, जैसा कि इस सम्मेलन और कुछ समय पूर्व देवबंद से जारी फतवे से स्पष्ट है। अब जरूरत इस बात की है कि जो मुस्लिम आतंकवाद से लड़ने और उसे खत्म करने के लिए तैयार हैं, उन्हें सरकार, गैर-सरकारी संस्थान और अन्य समुदाय के लोग भरपूर योगदान करें। साथ ही उलमा भी अपनी जिम्मेदारी को समझते हुए कुरान व जिहाद की सही व्याख्या अवाम के सामने प्रस्तुत करें ताकि मासूम नौजवान गुमराह होने से बच जाएं। इसके अलावा यह भी आवश्यक है कि कुरानिक एजुकेशन सोसायटी व इस किस्म की अन्य संस्थाएं अपने भाईचारे के संदेश को देश के कोने-कोने तक पहुंचाएं ताकि कानून व्यवस्था एवं अमन स्थापित हो सके।
– शाहिद ए. चौधरी
You must be logged in to post a comment Login