हम जानते थे कि ऐसा होने जा रहा है। यह सिर्फ समय की बात थी, जब महिलाएं इस विचार के विरूद्ध खड़ी थीं कि उनका आत्म-मूल्य कॅरिअर पर निर्भर है। प्रतिष्ठित मैनेजमेंट स्कूलों में पढ़ रही महिलाओं ने तो कई साल पहले ही यह कहना शुरू कर दिया था कि कार्पोरेट सीढ़ी पर चढ़ने का उनका कोई इरादा नहीं है। अपने क्षेत्रों में सफल कुछ महिलाओं ने फैसला कर लिया है कि परिवार बनाने के लिए वे अपने कॅरिअर को पिछले पायदान पर धकेल रही हैं। कुल मिलाकर तथ्य यह है कि ऐसी महिलाओं की संख्या बढ़ती जा रही है, जो फुल-टाइम कॅरिअर को छोड़कर पार्ट-टाइम या घर से काम करना पसंद कर रही हैं। अन्य अपनी हॉबियों को शानदार कॅरिअर में बदलने का प्रयास कर रही हैं। सुपर-वुमैन छुट्टी पर जा रही है और शायद उसके लिए यह सही भी है।
25 वर्षीय नैना गुप्ता इस बदलते ट्रेंड से अपरिचित नहीं हैं। उन्होंने अच्छे वेतन वाले प्रशासनिक जॉब को पिछले दिनों सिर्फ इसलिए छोड़ दिया, क्योंकि वह एकरूपता से तंग आ गयी थीं, रोज-रोज एक ही काम करना। आजकल वह मॉडलिंग में अपनी किस्मत आजमा रही हैं। वे कहती हैं, मॉडलिंग में मेरी हमेशा से ही दिलचस्पी रही है। फिर अपने सपनों को पूरा करने के लिए मेरे पास पर्याप्त समय रहता है। इस उद्योग से जुड़े रहने के लिए भविष्य में मैं अपनी मॉडलिंग एजेंसी भी शुरू कर सकती हूं।
मॉडलिंग 24गुणा7 जॉब नहीं है, इसलिए नैना को अपनी म्युजिक व डांसिंग हॉबी को पूरा करने के लिए भी पर्याप्त समय मिल जाता है। नैना इस बात को स्वीकार करती हैं कि अपना जॉब छोड़ने में उनको दिक्कत इसलिए नहीं आयी, क्योंकि घर की जिम्मेदारियों का बोझ उन पर नहीं है।
दरअसल, पुरुष इस विचार के साथ जवान होता है कि आर्थिक जिम्मेदारियां उसकी हैं। हालांकि आज ज्यादातर महिलाएं इसी विचार के साथ बड़ी होती हैं, लेकिन परिवार को रोटी प्रदान करने के संदर्भ में उन्हें अब भी डिस्काउंट मिला हुआ है। इसलिए उन्हें आसानी से होम-मेकर की परंपरागत भूमिका में स्वीकार कर लिया जाता है।
बुलंदशहर की शांति नागपाल के दोनों हाथों में लड्डू हैं। वे दो बच्चों की मां हैं और शहर के मशहूर पब्लिक स्कूल में जूनियर टीचर हैं। उन्हें पेंटिंग करने का भी बेहद शौक है। वे अपने जॉब पर ही अपनी हॉबी पूरी कर लेती हैं, क्योंकि उन्हें बच्चों को ग्राफिक आर्ट सिखानी पड़ती है। उनके कार्य करने का समय सीमित है, इसलिए उन्हें अपने परिवार व शौक के लिए अधिक वक्त मिल जाता है।
बहरहाल, सवाल यह है कि क्या कार्यस्थल से अलग रहने को प्राथमिकता देना उच्च शिक्षा की बर्बादी नहीं है? शायद यह नयी लहर वक्त के साथ गुजर जायेगी। लेकिन महिलाओं को काम तभी करना चाहिए, जब वे स्वयं चाहें। मगर हां, जब बात विशिष्ट क्षेत्र की हो तो एक ही सीट के लिए 500 उम्मीदवार होते हैं। ऐसी स्थिति में यही उम्मीद की जा सकती है कि योग्य व्यक्ति को ही शिक्षा का बेहतर इस्तेमाल करना चाहिए। फिर भी हर शख्स को अपनी मर्जी से चलने का अधिकार है।
शहरी महिलाओं का विकास महत्वाकांक्षी व कॅरिअर आधारित माहौल के अन्तर्गत होता है। घर पर रहने या पार्ट टाइम काम करने से समकालीन कामकाजी महिलाएं उनका मजाक बना सकती हैं और यह भी कह सकती हैं कि वे अपनी शिक्षा का सही इस्तेमाल नहीं कर रहीं। लोगों की प्रतिक्रियाएं अलग-अलग किस्म की हो सकती हैं। वे महिला के फैसले पर उसकी हिम्मत बढ़ा सकते हैं या उसे गलती का एहसास भी दिला सकते हैं। इसका समाधान यह है कि विभिन्न स्थितियों की तुलना न की जाये। हर शख्स के लक्ष्य अलग हैं।
होम-मेकिंग भी अपने आप में महत्वपूर्ण कॅरिअर है। गृहिणी संतुलन का केन्द्र होती है। उसके सुरक्षित होने पर ही घर, घर-सा और परिवार, परिवार-सा लगता है।
इन अलग-अलग दृष्टिकोणों से यही निष्कर्ष निकलता है कि पुराने जमाने की तुलना में आज महिलाएं अपनी स्थिति को अधिक वास्तविकता से देख रही हैं। आखिरकार, बहुत कम महिलाएं बिना लापरवाही के घर और काम में संतुलन बनाये रख सकती हैं। इसलिए यह महिला पर होना चाहिए कि वह अपनी वरीयताओं को समझ कर फैसला करे। जो महिलाएं नौकरी के साथ परिवार को भी वरीयता देती हैं, उनका सम्मान है। उनका भी सम्मान है, जो आवश्यक समय निकाल कर बच्चे को पालती हैं और फिर अपने कॅरिअर को भी देखती हैं। बच्चा तो बड़ा हो ही जायेगा, उसके सपने भी पूरे करने जरूरी हैं।
पुरुषों के लिए उनका प्रोफेशन ही उनकी पहचान बन जाती है और महिलाएं अपनी पहचान जो वह हैं, उससे भी व्यक्त कर सकती हैं। हालांकि समय बदल गया है, लेकिन ज्यादातर भारतीय इतने खुले दिमाग के नहीं हैं कि पुरुष को परंपरागत भूमिका से अलग देख सकें। पिता की भूमिका का आनंद उठाने के लिए पुरुष अपने कॅरिअर को नहीं त्यागता यानी पुरुष के पास विकल्प कम हैं।
परिवार की देखभाल के लिए जो महिला घर पर रही है, वह जब बाहर निकलने का फैसला करती है तो उसे काम पर कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है और परिवार की भी देखभाल करनी पड़ती है, जो अक्सर पूर्णरूप से उस पर ही निर्भर होता है। लेकिन रविन्द्रनाथ ठाकुर के शब्दों में, महिला का मूल्यांकन केवल उसकी उस योग्यता के आधार पर न किया जाये, बल्कि उसके आनंदायक गुण से किया जाना चाहिए। इसलिए वह अपने प्रोफेशन को नहीं बल्कि अपनी शख्सियत को व्यक्त करने में अनंत सावधानी बरतती है।
– वीना सुखीजा
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