श्राद्घपक्ष में मांडी जाने वाली संझाओं में प्रख्यात वैष्णव तीर्थ नाथद्वारा के श्रीनाथ मंदिर में मांडी जाने वाली केले के पत्तों की सांझी अपने कलात्मक सौंदर्य और भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं के परिदर्शन के लिये सुविख्यात रही है।
यह संझा कमल चौक में 25 गुणा 25 फीट के विशद आकार में सफेद कपड़े की बिछात पर केले के पत्तों के विविध परिदृश्यों की मनोरम सजावट लिये होती है। इसका प्रारंभ भगवान श्रीनाथ जी के पदार्पण विामी संवत् 1728 फाल्गुन कृष्ण सप्तमी वर्ष से ही हो गया था। पहली संझा हीरामल लालमल नामक गौड़ ब्राह्मण ने बनाई, जो “उस्ताद’ नाम से जाने गये। श्रीनाथ जी की ध्वजा चढ़ाने का जिम्मा भी इन्हीं का था। उसके बाद यह कार्य फूलघर से संबंधित कर दिया गया। वर्तमान में वल्लभदास फूलगरिये की देखरेख में यह कार्य कीर्तनकारों ने संभाल रखा है। कीर्तनिया कन्हैयालाल कुमावत ने बताया कि उनके पिता छन्नूलाल जी और दादा नारायणलाल जी से उन्होंने केले के पत्तों से विभिन्न प्रकार के बाग-बगीचे, वृक्ष, फूल, महल, झरोखे, गोप-गोपियां, पर्वत, पशु-पक्षी, जल-जीव, नदी, पहाड़, कुंड, सरोवर, पुतलियां आदि बनानी सीखीं। केले के पत्ते मंदिर के लालबाग, वृन्दावन बाग, कछुबाई बाग तथा गणगौर बाग में बहुतायत से सहज उपलब्ध हो जाते हैं। कैंची की सहायता से सर्वप्रथम पत्ते के बीच की डंडी अलग कर चार-चार, छः – छः पत्तों की परत बनाकर मनचाही आकृतियां काट ली जाती हैं। इस कार्य में परिवार के सभी सदस्य हाथ बंटाते हैं। तीन-चार घंटे में यह कार्य संपादित होता है और इतना ही समय कमल चौक में संझा सजाने में लगता है। एक-एक पत्ते को बड़ी खूबी और खूबसूरती से जमाकर किसी एक विग्रह का रूप दिया जाता है। मटकी द्वारा पानी का लगातार छिड़काव करते रहना पड़ता है, जिससे आकृतियां तर रहती हुईं कपड़े से चिपकी रहकर आभामय बनी रहती हैं।
कहा जाता है कि श्राद्घपक्ष के दिनों में भगवान श्रीकृष्ण ने चौरासी कोस की लम्बी वन-यात्रा की थी। यह यात्रा मथुरा से प्रारंभ होकर नाना गांवों में घूमती थी और जगह-जगह विश्राम करती हुई, अन्त में सोलहवें दिन पूरी हुई थी। भगवान की इसी यात्रा-लीला की प्रतिदिन की विविध दृश्यावलियां इन संझाओं में दर्शाई जाती हैं। केले के पत्तों की सहायता से ये संझाएं विशेष खूबी तथा बारीकी के साथ बड़े कलात्मक ढंग से इस प्रकार सजायी जाती हैं कि दर्शक सहसा यह विश्र्वास नहीं कर पाता कि केले के पत्तों की “कटिंग’ के रूप में ऐसी सुन्दर संझाएं भी बनाई जा सकती हैं।
नित प्रति बनने वाली इन संझाओं को देखकर भक्तजन अपने आपको अत्यंत भाग्यशाली मानते हैं और महसूस करते हैं कि वे भी भगवान श्रीकृष्ण के साथ चौरासी कोस की यात्रा कर अपने जीवन को सार्थक कर रहे हैं।
श्राद्घपक्ष की प्रतिपदा से प्रारंभ होने वाली इन संझाओं में प्रथम दिन मथुरा जी का “विश्रामघाट’ दिखाया जाता है, जहां पण्डा यमुना जी की यात्रा करते हुए पाया जाता है। दूसरे दिन लालवन, मधुवन एवं कमोदवन की सुन्दर झांकियां सजायी जाती हैं। इन वनों में तिबारी तथा छतरी लगे अलग-अलग कुण्ड तथा उनमें श्रीनाथ जी की बैठक दिखाई जाती है। तीसरे दिन शान्तनु पहाड़ी पर शान्तनु राजा के महल तथा भोलावन दिखाया जाता है, जहां पानी पीने आये सिंह-गाय का स्नेह-मिलाप कराया जाता है। चौथे दिन राधा-कृष्ण कुण्ड तथा कुसुम-सरोवर, पांचवें दिन मानसी-गंगा मंदिर, अष्टकोण कुण्डवाला चन्द्रसरोवर तथा ऐंठाकदम के दर्शन कराये जाते हैं। छठे दिन गिरिराज उठाते हुए ठाकुरजी, ऐरावत, नन्द यशोदा, ग्वाल-बाल तथा गोप-गोपिकाओं की झांकियां मन को मोहित करती हैं। सातवें दिन गुसांई जी की बैठक सहित गुलाल कुण्ड तथा परमदा के दर्शनों का पुण्य अर्जित होता है। आठवें दिन चौरासी खम्भों का जीलादार कामवन, भोजनधारी चरण तथा भगवान के पण्डे दिखाए जाते हैं। नवें दिन कोकिला तथा करेलवन, दसवें दिन नन्दगांव, बरसाना तथा संकेतवन की प्राकृतिक दृश्यावलियां सहज ही आकर्षित करती प्रतीत होती हैं। ग्यारहवें दिन कोटवन के रूप में शेषनाग पर विष्णुशयन, पास ही उनके पांव दबाती हुईं कमला, ब्रह्माजी का प्रकट होना आदि दिखाया जाता है। बारहवें दिन नाथद्वार के लालबाग की मनमोहक दृश्यावलियां अत्यंत आकर्षक ढंग से सजाई जाती हैं।
तेरहवें दिन कालीदह (भगवान ने नागलीला की थी) तथा चीरघाट के ठाठ देखते ही बनते हैं। चौदहवें दिन दाऊजी का विश्राम स्थल लोहावन, पन्द्रहवें दिन गोकुल का ठकुरानी घाट तथा आन्तम सोलहवें दिन द्वारिकापुरी का पूरा दृश्य कोट के रूप में सजाया जाता है। सोलह दिनों तक बनने वाली संझाओं से द्वारिका का यह दृश्य विशेष आकर्षक होता है, जो रंग-रंगीली पन्नियों एवं लाल, पीले तथा हरे, गुलाबी कागजों की सहायता से चित्ताकर्षित करता है। द्वारिकापुरी की शाही झांकी में बाग-बगीचे, कुण्ड, सरोवर तथा ताल-तलैया, हाट-गलियां तथा बाजार, मंदिर तथा भव्य इमारतें, प्राकृतिक दृश्यावलियां, गगनचुम्बी महलों की मोहक झांकियां तथा नाना प्रकार की क्रीड़ाएँ, मनोविनोद, खेल-आखेट आदि के दृश्यों की छटाओं में अभिभूत हो दर्शक खो जाता है। द्वारिकापुरी का यह दृश्य इतना सजीव तथा रंगीनी लिये होता है कि स्वर्ग की कल्पना साकार हो उठती है।
– डॉ. महेन्द्र भानावत
You must be logged in to post a comment Login