सरदार भगतसिंह को युवाओं का प्रेरणास्त्रोत माना जाता है, किन्तु हमारी सरकार के केन्द्रीय कर्मचारी चयन आयोग द्वारा अपने एक प्रश्न–पत्र में आजादी के बाद सरदार भगतसिंह को आतंकवादी जैसे शब्द से सम्बोधित किया गया, जो आजादी के दीवानों और क्रांतिकारियों के इतिहास को कलंकित करता है। इतना ही नहीं, एनसीईआरटी की किताबों में तो उससे भी बढ़कर लिखा है, जिसमें रास बिहारी बोस को भी आतंकवादी बताया गया है। यह सब कांग्रेस सरकार ने किसी दबाव में भले ही किया हो, किन्तु यथार्थ से देश की युवा पीढ़ी को भ्रमित नहीं किया जा सकता।
जहां तक महात्मा गांधी और कांग्रेस पार्टी का सवाल है तो आजादी के पूर्व इन्होंने क्रांतिकारियों से सौतेला व्यवहार किया था। यह किसी से छिपा नहीं है कि जब सरदार भगतसिंह और उनके साथियों को फांसी की सजा सुनाई गई तो उसी दौरान लाहौर में इरविन (गवर्नर जनरल) से महात्मा गांधी की संधि होने जा रही थी। उस दौरान क्रांतिकारी महिला साथी सुशीला दीदी और दुर्गा भाभी ने महात्मा गांधी से निवेदन किया था कि इन क्रांतिकारियों को फांसी की सजा को आप आजीवन कारावास की सजा में बदलवाने के लिये इरविन से कहें। तब महात्मा गांधी ने स्पष्ट शब्दों में कहा, “”उनका दूसरा रास्ता है। मैं कुछ भी नहीं कहूंगा।”
जबकि क्रांतिकारियों का गांधी–नेहरु के प्रति ऐसा द्वेष–भाव नहीं था, किन्तु इन दोनों राष्ट नायकों ने भगतसिंह व नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के साथ सदैव वैर–भाव रखा और विष–वमन किया। नेताजी सुभाष कांग्रेस पार्टी में अध्यक्ष निर्वाचित हो गए, तब पट्टाभिसीतारमैया की हार गांधीजी को बर्दाश्त नहीं हुई। उन्होंने इसे पार्टी में अपनी इज्जत का प्रश्न बना लिया। तब नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने स्वयं अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था, किन्तु गांधीजी के विरुद्घ विष–वमन नहीं किया।
उन्होंने अपनी आजाद हिन्द फौज में गांधी के नाम पर एक सैनिक टुकड़ी तक स्थापित की थी। पं. जवाहरलाल नेहरू तो गांधी से और भी आगे बढ़कर निकले। खुद प्रधानमंत्री पद हथियाने के लिये लॉर्ड माउण्टबेटन से नेताजी सुभाषचन्द्र बोस को जिंदा या मुर्दा ब्रिटिश सरकार को सौंपने का गुप्त समझौता तक कर लिया था। उसी का कारण था कि उनकी बेटी श्रीमती इंदिरा गांधी ने कभी भी 1857 से लेकर 1943 तक के क्रांतिकारी इतिहास को स्वीकार नहीं किया। तो उनकी वंशज पुत्रवधू श्रीमती सोनिया गांधी भला मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट क्यों स्वीकार करेगी।
ब्रिटिश पार्लियामेंट में उनकी ही छाती पर भरी सभा में बम का धमाका कर जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड की प्रशस्ति पढ़ने वाले अफसर का वध करने वाले नौजवान शहीद मदनलाल ढींगरा की याद में ब्रिटिश पार्लियामेंट में जाकर दो पुष्प या दीप प्रज्ज्वलित कर सकने की हिम्मत हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह में नहीं है, पर ब्रिटिश सेना के अधिकारी, जो 1857 में यहां मारे गए थे, उनके वंशजों को उनकी यादगार मनाने के लिये उनकी आगवानी कर उनका स्वागत एवं सुरक्षा प्रबंध प्रशासन की ओर से करवाया गया। यह 1857 के हुतात्माओं का अपमान हमारे प्रधानमंत्री द्वारा विगत दिनों करवाया गया।
एक बालक खेत में अपनी मां से पूछता हो, मां ईख (गन्ना) लगाने से ईख पैदा होती है, तो मैं खेत में बन्दूक लगाऊंगा। उससे बन्दूकें पैदा होंगी। ऐसे विचार भगत सिंह के बाल–मन में अंकुरित थे। बच्चे भगतसिंह को उसके चाचा ने जब मेले में खिलौना दिलाना चाहा तो उसने अन्य खिलौना लेने से इन्कार करते हुए मात्र बन्दूक को ही लिया था। जलियांवाला बाग की रक्त–रंजित मिट्टी को बोतल में भरकर अपने घर में पूजा–स्थल में रखकर उसके आगे नित्य माथा टेककर इस हत्याकाण्ड के आततायियों से बदला लेने के अपने संकल्प को दुगुने उत्साह से प्रबल बनाने वाले भगतसिंह जन्मजात क्रांतिकारी थे, जबकि उनके चाचा भी इस मार्ग में पूर्व में बढ़ चुके थे।
जब भगतसिंह युवा हो गये तो हर मां की भांति उनकी मां ने भी उनकी शादी का सपना देखा था। उससे शादी की बात की तो भगतसिंह ने मां से जवाब में कहा, “”मां, मैं शादी तो करूंगा। मैंने अपनी बहू भी देख ली है, वह है मौत और मण्डप में फांसी का तख्ता!” ऐसे विचारों वाले मात्र 23 साल की उम्र का नौजवान संसार के सपनों से दूर दूसरी ही दुनिया की सोचता हो, उसे हम क्या कहेंगे। वह हमें 1857 की वीरांगना लक्ष्मीबाई की याद दिलाता है। वह भी 23 साल की उम्र में ब्रिटिश सरकार के लिये सिंहनी बनकर टूट पड़ी थी। वही दशा सरदार भगतसिंह ने अंग्रेजों की कर दी थी। अंग्रेजों को इन क्रांतिकारियों से खौफ पैदा हो गया था। स्वयं लॉर्ड माउण्टबेटन ने भी इस बात को स्वीकार किया था, किन्तु वह देश छोड़ने का श्रेय क्रांतिकारियों को नहीं देना चाहता था। वह क्रांतिकारियों के इतिहास को सदैव–सदैव के लिये विस्मृत कराकर आजाद भारत के नौजवानों को गलत इतिहास देना चाहता था। उसका साथ गांधी–नेहरू ने भी दिया।
शहादत (फांसी) के ठीक एक दिन पहले लिखे दो पत्र यह स्पष्ट करते हैं कि भगतसिंह आतंकवादी थे या राष्ट भक्त। जेल की अंतिम रात 22 मार्च को अपने अनुज कुलतार सिंह को अपने जीवन का अंतिम पत्र लिखा। जो इस प्रकार है–
अजीज कुलतार,
तुम्हारी आंखों में आंसू देखकर बहुत दुःख हुआ। आज तुम्हारी बातों में बड़ा दर्द था। तुम्हारे आंसू मुझसे सहन नहीं होते। बरखुरदार, हिम्मत से शिक्षा प्राप्त करना और सेहत का ख्याल रखना। हौसला रखना और क्या कहूं–
“उसे यह फिा है हरदम,
नया तर्जे जफा क्या है?
हमें यह शौक देखें सितम
की इंतहा क्या है?
दहर से क्यों खफा रहे
चर्ख का क्यों गिला करें।
सारा जहां अदू सही आओ मुकाबला करें।
कोई दम का मेहमान हूं ए अहले महफिल
चरागे सहर में रहेगी ख्यालों की बिजली
यह मुश्त–ए–खाक हूं, रहे, रहे न रहे।‘
अच्छा रूखसत। खुश रहो अहले वतन हम तो सफर करते हैं।
हौसले से रहना।
तुम्हारा शुभाकांक्षी
भगतसिंह
14 नम्बर, वार्ड में रहने वाले कुछ बंदी क्रांतिकारियों ने भगतसिंह के पास एक परची भेजी।
“सरदार, यदि आप फांसी से बचना चाहते हैं तो बताएं। इन घड़ियों में भी शायद कुछ हो सके।‘
भगतसिंह ने इसके उत्तर में जो पत्र लिखा, वह इतिहास का एक दुर्लभ दस्तावेज है। यह पत्र व्यक्त करता है, भगतसिंह का मर्मस्पर्शी और स्पष्ट तथा प्रखर विचारों का प्रवाह, मौत के सामने।
बंदी क्रांतिकारियों के नाम खत
साथियों,
जिंदा रहने की ख्वाहिश कुदरती तौर पर मुझमें भी होनी चाहिए। मैं इसे छिपाना नहीं चाहता, लेकिन मेरा जिंदा रहना एक शर्त पर है। मैं कैद या पाबंद होकर जिंदा नहीं रहना चाहता। मेरा नाम हिन्दुस्तानी इंकलाब पार्टी का निशान बन चुका है और इंकलाब पसंद पार्टी क्रांतिकारी दल के आदर्शों, बलिदानों ने मुझे बहुत ऊंचा कर दिया है। इतना ऊंचा कि जिंदा रहने की सूरत में इससे ऊंचा मैं हर्गिज नहीं हो सकता। आज मेरी कमजोरियां लोगों के सामने नहीं हैं। अगर मैं फांसी से बच गया तो वे जाहिर हो जाएंगी और इंकलाब का निशान मद्घिम पड़ जाएगा या शायद मिट ही जाए, लेकिन मेरे दिलेराना ढंग से हंसते–हंसते फांसी पाने की सूरत में हिन्दुस्तानी माताएं अपने बच्चों के लिये भगतसिंह बनने की आरजू किया करेंगी और देश की आजादी के लिये बलिदान होने वालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि इंकलाब को रोकना साम्राज्यवाद की तमाम शैतानी शक्तियों के बस की बात नहीं रहेगी।
हां, एक विचार आज भी मेरे दिल को कचोटता है। देश और इंसानियत के लिये जो कुछ हसरत मेरे दिल में थी, उसका हजारवां हिस्सा भी मैं पूरा नहीं कर पाया, अगर जिंदा रहता तो अपनी हसरत पूरी कर सकता था। इसके सिवा कोई लालच मेरे दिल में फांसी से बचने के लिए कभी नहीं आया। मुझसे ज्यादा खुशकिस्मत कौन होगा? मुझे अपने आप पर बहुत ना़ज है। अब तो बड़ी बेताबी से आखिरी इम्तिहां का इंतजार है।
आरजू है कि यह और करीब हो जाए।
तुम्हारा
भगतसिंह
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