बाबा जी का एक दर्जनिया बम-ब्लास्ट का जंतर-मंतर सुरक्षा-कवच अब पच्चीस-पच्चीस बम-ब्लास्टों के लिए कम पड़ता नजर आया तो प्रोफेसर शंकादीन के आतंकी भय ने उन्हें अपने घर में कैद कर दिया। लेकिन अब जब देश की आलाकमान से लेकर देश की आंतरिक सुरक्षा के निगहबान, मियां मुशर्रफ के इस्तीफे से विधवा नजर आने लगे, तो प्रो. शंकादीन महा-आतंकी भय से भयभीत होकर घर की खिड़कियॉं भी बंद करके सेफ कोने में दुबक गये। अचानक दरवाजे पर कुंडी खड़की तो सिमी के खुदाई खिदमतगारों से लेकर उनके हिमायतियों के चेहरे उनके दिमाग में घूम गये। जैसे-जैसे कुंडा खटकता और भी भारतीय राजनीति के वोट-खसोटों के गिरगिटानी रूप-रंग उनके मानस-पटल पर अंकित होने लगे। बड़ी देर के बाद वो दरवाजे तक आये और दरवाजे की फांफर से देखा तो हैरान-परेशान ताऊ झग्गड़ दिखाई दिये।
दरवाजा खोलते ही ताऊ झग्गड़ उनके गले लगकर रोने लगे, “”अरे प्रोफेसर! गजब हो गया… हमने तो मीडिया के साथ मिलकर भविष्य में आने वाली खुशी के ढोल बजाये। एडवांस में विजय-यात्रा भी निकाली। भारतीय परंपरा के अनुसार कल्पित शूरवीरता के कसीदे भी गाये, लेकिन फिरंगियों ने बीजिंग ओलंपिक में म्हारे मुक्केबाजों कू ठिकाने लगा के खुद अपने गले में मेड्डल पेरव लिए। अरे, म्हारे यहां लड़ाई-दुसमनी चले है पीढ़ी पर पीढ़ी और ये पांच मिनट में फैसला कर गये। .. म्हारी एडवांस विजय-यात्रा पे पानी फिर गया… यार प्रोफेसर मुझे लगे है म्हारे चीप मिनिस्टर (चीफ मिनिस्टर) से कहीं जरा-मरा सी चूक हो गयी। उन्होंने देशभक्ति में सराबोर होके यूं कह दिया कि म्हारे मुक्केबाज जित्ते (जीते) तो उन्हें डीएसपी बणां दिया जावेगा। मुझे लगे हैं, जो बात म्हारे फ्यूचर विश्र्वविजेता मुक्केबाजों को जंची नई। अरे प्रोफेसर मैं कैत्ता हूं (कहता हूं) जो म्हारे चीप मिनिस्टर जी दिल कू मजबूत करके ये ऐलान कर देते कि म्हारे मुक्केबाजों जीत के बाद मैं अपनी चीप मिनिस्टी (मिनिस्टरी) थारे हवाले कर दूंगा तो आज समां कुछ दूसरा ही होता। म्हारे धरती के लाल गोल्ड की जगह डायमंड मेड्डल लेके आते फिर चाहे जो कुछ हो जाता।
प्रोफेसर भाई कता कलामी की माफी के साथ दुनिया कू ये बता देना जरूरी समझता हूं कि हम हर जोखिम उठा के फतह करते आये हैं। अरे, म्हारे महाबली हनुमान जी ने अपनी पूंछ में आग लगा के लंका फूंकी थी कि न! तो म्हारे मुक्केबाज जान जोखिम में डाल के डिफेन्सिव से ओफेन्सिव हो जाते और अगले को दांत जमीन से बीनने पड़ते, बस चीप मिनिस्टी चूक से म्हारी एडवांस विजय-यात्रा खटाई में पड़ गयी। वैसे म्हारी ताकत को दुनिया कू मानना ही पड़ेगा कि हमने छप्पन साल के बाद कुश्ती में कांस्य पदक लेके वक्त कू दो हजार आठ से उन्नीस सौ बावन में लाके खड़ा कय दिया। इतना कोई दुनिया का देश ये करके दिखा दे तो उसकी टांगों के निच्चे से निकल जाऊँगा। रई बात फास्टनेस की तो हमने विजय होने से पहल्ले ई (पहले ही) डंके बजा के साबित कर दिया कि इस सदी में हमसे फास्ट कोई भी न है। क्या कहो प्रोफेसर साब?”
“”ताऊ जी, वही तो हमको अचरज होता है, जहां अपने पड़ोसी तक से लोगों का उठा-पटक का ही रिश्ता हो, जहां जाति, धर्म, संप्रदाय, प्रांतवाद और देस की नौ सौ निन्यानवे राजनीतिक पार्टियां अपनी शक्ति और श्रेष्ठता जताने के लिए चौबीस घंटे, बारहों महीना हाथा-पाई, गाली-गलौच, बंद, रेल रोको, सड़क जाम, देस का चक्का जाम का रियाज करती रहती हों, वहां बाक्ंिसग और कुश्ती में गोल्ड मेडल क्यों लिए हम लोग? ताऊ जी, मैं तो कहता हूं अगर हमारा मुंह जोरी का मुकाबला, बात-बेबात गिरेबान पकड़ मुकाबला, मिलावट, चोर बाजारी, जालसाजी का मुकाबला, जनता की आँख में धूल झोंककर माल हड़प का मुकाबला, बाबाओं की आडम्बरी बाबागिरी का मुकाबला, अंधविश्र्वास में एक हजार प्रतिशत विश्र्वास का मुकाबला, कमजोरों पर समाजी-सरकारी जुल्म कर और जुल्म झेल का मुकाबला, असभ्यता और नियम-कानून की ऐसी-तैसी करने का मुकाबला, ओलंपिक में हों तो किसी भी देश के माई के लालों की हिम्मत नहीं कि एक भी गोल्ड मेडल उठा ले। वैसे हौसले अफजाई के लिए इन मुकाबलों में कुछ देशों को कांस्य पदक दिया जा सकता है, जैसे हमें मुक्केबाजी में मिल गया। जो भी हो, हमारी महानता का जवाब नहीं है।”
अबकी ताऊ प्रोफेसर के कटाक्ष से बिगड़ गये और आंखें लाल करके उफन पड़े, “”अबे प्रोफेसर तेरी इतनी हिम्मत – अबे हम महान हैं, महान थे और महान रहेंगे, समझा – मैं केत्ता हूं इस मुहल्ले से कल सुबह होने से पहले चला जईओ वरना तेरा सामान नाल्ले में फेंक दिया जावेगा, हम देश की निंदा करने वालों कू बर्दाश्त नहीं कर सकते, हमने मुक्केबाजी और खेलों में अंतर्राष्टीय स्तर पर चाहे बीजिंग में धूल चाट्टी हो, लेकिन इस गली में अपने मुक्के से तेरे दांत तोड़ दिये जावेंगे, समझा। तुझे मैंने कालिज से निकलवा के न छोड़ा तो मेरा नाम भी झग्गड़ नहीं समझा…। अबे हमने निसानेबाजी में गोल्ड लेके इतिहास रचा है संसार में, समझा।
लेकिन इतने बड़े देश में सिर्फ एक, दुनिया के छोटे-छोटे देशों के सामने भी हम कहां खड़े हैं? बस, हमारी सारी एनर्जी और योग्यता टंटे-फसादों में ही लग जाती है। मैं कौन – तू कौन है, में ही मिट जाती है। ताऊ जी, ये आपका कसूर नहीं है, हमारी प्रवृत्ति, सोच-समझ ही ऐसी है। काश! हम ओलंपिक के आईने में खुद की हैसियत देख पाते, इससे सबक ले पाते।” “”अबे तू सिखायेगा, उपदेश दे रया है – मैं अभी चार ग्वाह इकट्ठे करके तेरे पे देस-द्रोह का मुकदमा चलवात्ता हूं तेरी औकात कि म्हारी महानता पे यहीं का खा के उंगली उठावे।”
ताऊ तैश में निकल गये और प्रोफेसर शंकादीन सोच रहे हैं कि इस देश का क्या होगा?
– अमर स्नेह
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