क्यों नहीं होता बाढ़ व सूखे का कोई स्थायी समाधान

आज हम इक्कीसवी शताब्दी में जी रहे हैं जिसमें कहने को तो हमने जमीन से चांद तक की दूरी तय कर ली है मगर जमीनी समस्याओं को अभी तक खत्म नहीं कर पाये हैं। आज स्वतंत्र हुए हमें कई दशक बीत चुके हैं, मगर हमारी आवश्यकताएं व समस्याएं जस की तस बनी हुई हैं। हम हिन्दुस्तानियों की एक विशेषता यह है कि जब तक आग नहीं लगती, तब तक कुआँ नहीं खोदते। शायद आग लगने से पहले कुआं खोदना मुनासिब नहीं समझते। यही मूल कारण है हमारी समस्याओं के समाधान की जगह समस्या पैदा होते जाने का।

अगर हम बात बाढ़ की करें तो सरकारें इसका समाधान हर साल करने का ऐलान तो करती हैं मगर परिणाम शून्य होता है। हर साल बाढ़ आती है और कई करोड़ की तबाही मचा कर चली जाती है। बाढ़ से प्रभावित जगहों को देखकर हृदय द्रवित हो जाता है तथा मुंह से सिर्फ हाय के सिवा कुछ नहीं निकलता। मगर अफसोस कि इस बर्बादी और तबाही के बावजूद सरकारें और राजनीतिक पार्टियां जश्र्न्न मनाने बाढ़ प्रभावित जनता के घर पहुंच जाती हैं और मरहम लगाने की जगह जख्म हरा करके चली जाती हैं। सच्चाई ये है कि राजनीतिक पार्टियां राजनीति की रोटियां सेंकने और अपना उल्लू सीधा करने के लिए बाढ़ की समस्या का समाधान करना मुनासिब नहीं समझतीं।

हर साल बाढ़ से लाखों-करोड़ों का नुकसान देश को उठाना पड़ता है। तो सवाल यह उठता है कि आखिर सरकारें इसका स्थायी समाधान क्यों नहीं करतीं? बाढ़ से फसलों का अत्यधिक नुकसान होता है जिससे बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में भुखमरी की नौबत आ जाती है तथा बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों के किसान एक लंबे अर्से तक फिर से पनप नहीं पाते। बाढ़ से अन्न, धन, जन की हानि तो होती ही है, साथ में यातायात की समस्या, आवागमन की समस्या, स्वास्थ्य सुविधाओं की समस्या, आवास आदि की समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं। इसके साथ कई समस्याएं और भी हैं जो बाढ़ पीड़ितों के समक्ष उत्पन्न हो जाती हैं- बिन बुलाए मेहमान की भांति।

बीमारियों के दृष्टिकोण से अगर देखा जाय तो बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में कई गंभीर बीमारियां पैदा हो जाती हैं। हैजा, कालरा, पीलिया, पेचिश आदि-आदि बीमारियां फैलती हैं जो इस 21वीं शताब्दी में नहीं होनी चाहिए। सबसे कठिन जीवन हो जाता है बाढ़ प्रभावित क्षेत्र के लोगों का। न आवास, न भोजन, न वस्त्र, न दवा। जीवन-यापन की सारी सुविधाएं ठप्प पड़ जाती हैं। ऐसे में कैसे कोई जीवन जी सकता है।

बाढ़ जैसी ही प्राकृतिक आपदा सूखा भी है। ये दोनों आपदाएं किसान और मध्यम वर्ग के लोगों की कमर तोड़कर रख देती हैं। माना कि यह प्राकृतिक आपदाएं हैं मगर सवाल यह उठता है कि क्या इन्हें रोका नहीं जा सकता है? सूखे से प्रभावित क्षेत्र के किसानों, भूख से बिलबिलाते उनके बच्चों के विषय में क्या इन राजनेताओं और दिन-रात गरीबों के मसीहा होने का दावा करने वाले, सदा सुख-दु:ख में जनता का साथ निभाने का ढोल पीटने वाले इन जन प्रतिनिधियों ने क्या कभी इस समस्या को मूल जड़ से उखाड़ फेंकने का प्रयास किया है? नहीं। क्योंकि समस्या खड़ा करना इनकी आदत में शुमार है। समस्या हल करना इनकी जन्म कुण्डली में कहीं लिखा ही नहीं है।

इन्हीं समस्याओं के चलते ये अपनी राजनीति की दुकान चमकाते हैं, वोट बटोरते हैं और अपना उल्लू सीधा करते हैं। मगर बाढ़ से नरक-सा जीवन जी रही जनता और सूखे से भुखमरी के कगार पर पहुंच चुकी जनता को फूटी आंख भी देखना मुनासिब नहीं समझते। क्या यही जनता के मसीहा हैं?

कभी किसी सरकार का, नेता का, राजनीतिक पार्टी का बाढ़ और सूखे की समस्या की तरफ ध्यान नहीं जाता है। वे इसकी चर्चा नहीं करते, चुनावी मुद्दा नहीं बनाते। हां, कभी-कभार इस पर बहस जरूर हो जाती है, वह भी सामाजिक संस्थाओं के मंचों से, किसी राजनीतिक दल या पार्टी के मंच से नहीं।

आज हम दिन-रात विकास के पथ पर अग्रसर हैं मगर हमारी कुछ मूल समस्याएं ऐसी हैं जिसका निदान हम अभी तक नहीं खोज पाए हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि बाढ़-सूखे को मूल जड़ से उखाड़ फेंका जाय जिससे देश में होने वाली लाखों-करोड़ों की हानियों को रोका जा सके व भूख व ऐसी आपदाओं से होने वाली असमय मौतों को रोका जा सके।

इसके लिए आवश्यक है ठोस पहल करने की। अगर समय रहते हमने इसके निदान के लिए कोई उचित कदम नहीं उठाया तो वह दिन दूर नहीं जब बाढ़ व सूखे से ही देश की तमाम आबादी खत्म हो जायेगी।

– विनय कुमार मिश्र

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