पेरिस के एक गरीब मुहल्ले में एक लंबा चोगा, सिर पर छोटा-सा हैट तथा आंखों पर काला चश्मा लगाए एक भारतीय महिला रहती थी, जिस पर ब्रिटिश व फ्रांसीसी सरकार की सख्त नजर थी।
जब वह महिला अपने जीवन के अंतिम दिनों में मातृभूमि भारत में आकर मरी तो किसी भारतीय या मुंबई निवासी ने यह भी नहीं जाना कि एक तेजस्वी व देशभक्त महिला का अंत हो गया है। उसके मरने पर किसी ने दो आंसू भी नहीं बहाए और न ही कोई शोकगीत गाया। यह एक क्रांतिकारी महिला का अंत था, जो भारत के लिये जीवित रही और भारत के लिए मरी। वह चाहती तो लंदन-पेरिस में रहकर अपना सुखी जीवन-यापन कर सकती थी। उसका पूरा नाम था- मादाम भीकाजी रुस्तम कामा।
श्रीमती कामा ने ही भारतीय स्वतंत्रता की मांग को सर्वप्रथम अंतर्राष्टीय स्वरूप प्रदान किया। उन्होंने भारत की आजादी की मांग संसार के सामने रखी। सन् 1907 में उन्होंने भारत के भावी राष्टध्वज को पहली बार अपने हाथों से बुना और फहराया। उसे अभिनंदित करते हुए उन्होंने कहा था- यह भारतीय स्वतंत्रता का झण्डा है, जो भारतीयों के बलिदान के रक्त से रंगा है।
उन्होंने विदेशों में रह रहे भारतीयों से कहा, “”आप सभी खड़े होकर इस झण्डे का अभिनंदन करें।” तालियों की गड़गड़ाहट के बीच यह घोषणा भी की कि “”हम अपने भाग्य के निर्माण एवं स्वशासन के अधिकार की मांग करते हैं।”
महान क्रांतिकारीणी भीकाजी कामा का जन्म मुंबई के पारसी व्यापारी सोराबजी प्रेमजी पटेल के यहां 24 सितंबर, 1869 को हुआ। उनका स्वभाव व रुचि अपने परिवार से भिन्न थी। स्कूली शिक्षा समाप्त करने के बाद एक धनी व्यापारी के बेटे रुस्तम कामा के साथ उनका विवाह हुआ, किंतु वे अपने गृहस्थ जीवन में रुचि न ले सकीं। पारिवारिक सुख और विलासिता का जीवन उन्हें बांध न सका। 1890 में जब मुंबई में प्लेग फैला, तब उन्होंने रोगग्रस्त मरीजों की तन, मन और धन से सेवा की। इसके बाद वे यूरोप में जाकर दादा भाई नैरोजी के साथ राष्टीय विचारों का प्रचार करने लगीं। वे इंग्लैंड, जर्मनी, अमेरिका और फ्रांस गईं। वहां प्रगतिशील कार्यकर्ताओं और उच्च दृष्टिकोण रखने वाले भारतीय प्रवासियों एवं ाांतिकारियों के घनिष्ठ संपर्क में आईं।
भारत के तूफानी घटनााम, बंगाल विभाजन, 1905 से 1908 के स्वतंत्रता आंदोलन के उत्थान और अंग्रेज उप निवेशवादियों के भयानक दमन व अत्याचारों ने मादाम कामा के ाांतिकारी दृष्टिकोण की निर्माण प्रिाया को तीव्र किया। वे फिर भारत नहीं लौटीं और यूरोप में रहने वाले उग्रवादी भारतीयों के साथ उन्होंने अपना भाग्य जोड़ लिया। अपने घर की सुख-सुविधाओं को त्याग, क्रांतिकारियों के खतरनाक और कठिन जीवन को अपनाया। गिरफ्तारी और आजीवन कारावास के दण्ड का भय उनके सिर पर हमेशा मंडराता था। रूस की एक धनी महिला सौफिया पैरीनकाया, जिसे जार अलैक्साद्घ द्वितीय के प्राण लेने के कारण मृत्युदण्ड दिया गया था, उसको मादाम कामा ने अपना आदर्श गुरु माना। 19 अगस्त, 1907 को जर्मनी के स्टटगार्ट में अंतर्राष्टीय समाजवादी सम्मेलन हुआ, जिसमें भारतीय क्रांतिकारी चाहते थे कि मादाम कामा और सरदार सिंह राणा को भेजा जाए, लेकिन दल के लोग इस बात से सहमत नहीं हुए। अंततः मादाम कामा भारतीय प्रतिनिधि के रूप में स्टटगार्ट पहुंचीं।
क्रांतिकारी विचार रखने वाली मादाम कामा की ख्याति पहले ही फैल चुकी थी। इसी कारण इंग्लैण्ड के प्रधानमंत्री रेम्जे मैक्डोनल्ड ने भरसक कोशिश की कि उनको प्रतिनिधि के रूप में मान्य न किया जाए। किंतु फ्रांस, जर्मनी और ब्रिटेन के कई समाजवादी नेताओं ने उनके प्रतिनिधित्व को समर्थन दिया और फिर उन्हें भारत का प्रतिनिधि माना गया। यहीं उन्होंने प्रथम बार भारतीय तिरंगा झण्डा फहरा कर एक प्रस्ताव पारित करवाया। “भारत में ब्रिटिश शासन का जारी रहना निश्र्चित रूप से आपत्तिजनक है और भारत के हितों के लिए बहुत ही हानिकारक है। सारी दुनिया के स्वतंत्रता प्रेमियों को चाहिए कि वे संसार के इस पांचवें भाग को मुक्त कराने के लिए अपना सहयोग दें, क्योंकि स्वस्थ सामाजिक स्थिति का तकाजा यह है कि कोई भी जाति तानाशाही या अत्याचारी शासन के आधीन न रहे।’ इस प्रस्ताव का सबने खुले दिल से समर्थन किया, मात्र ब्रिटिश प्रतिनिधियों ने ही विरोध प्रगट किया था।
जब भारत में नासिक षड्यंत्र केस चलाया जा रहा था, तब मादाम कामा ने विदेश में बैठे-बैठे मुंबई में अभियुक्तों की ओर से बैरिस्टर नियुक्त करवाया था। वे चाहती थीं कि भारत में ाांतिकारी आंदोलन जोर पकड़े। भारत में क्रांतिकारियों द्वारा जैक्सन एवं अन्य गोरों की हत्या कर दिए जाने पर तमाम दुनिया में तहलका मच गया। तब इस पर टिप्पणी करते हुए मादाम कामा ने विदेश से प्रकाशित अपने पत्र “वंदे मातरम’ में लिखा था- जो कुछ भी इस समय भारत में हो रहा है, वह भगवान की इच्छा के कारण हो रहा है और भगवतगीता में बताए ढंग से हो रहा है। किसी स्टेशन या किसी दुकान या अन्य स्थान पर जहां भी मौका मिले, अंग्रेजों की हत्या अवश्य होनी चाहिए। इसमें अफसर या साधारण व्यक्तियों में कोई फर्क न किया जाए। महान नाना साहब ने यह बात समझ ली थी और क्रांतिकारियों ने भी इस बात को समझना शुरू कर दिया है। उनकी चेष्टा सफल हो, उनके हाथ लंबे हों। अब हम अंग्रेजों को यह कह सकते हैं कि जब तक तुम निकल न जाओ, तब तक खुशियां न मनाओ।’ इस प्रकार हम देखते हैं कि एक पारसी महिला ने गीता का एक ाांतिकारी के रूप में अध्ययन किया था।
जब सावरकर जी को, ऐरी की हत्या के संबंध में पिस्तौल भेजने के आरोप में गिरफ्तार होने का अंदेशा मादाम कामा को हुआ तो उन्होंने न तो किसी से सलाह ली और न किसी से पूछा, वे सीधे काउंसलर जनरल के दफ्तर में पहुंचीं और कौंसलर को अपना लिखित बयान दिया कि “”मैं पिस्तौल की कहानी बताने आई हूं। इसमें कोई शक नहीं है कि पिस्तौल के संबंध में सावरकर नहीं जानते थे, वह सरदार सिंह राणा की थी, पर वह भी यह नहीं जानते थे कि उस बॉक्स में क्या था। दोनों बिल्कुल निर्दोष हैं। मैंने ही पिस्तौलें इकट्ठी कीं और बॉक्स में बंद की थीं और छत्रभुज अमीन के साथ मुंबई भेज दिया था। पिस्तौलों की पूरी जिम्मेदारी मेरी है, न कि किसी और की।” यह सुन काउंसलर जनरल आश्र्चर्यचकित रह गया कि यह महिला संपूर्ण दोष अपने ऊपर ले रही है और सावरकर और राणा को मुक्त कराना चाहती है, किंतु उनके बयान का कोई लाभ न हुआ और सावरकर को गिरफ्तार किया गया। तब उनके मामले में अंतर्राष्टीय न्यायालय को खड़ा करने का पूरा-पूरा हाथ मादाम कामा का ही था।
कुछ समय बाद वंदेमातरम् पत्रिका बंद हो गयी। तब इंडियन फ्रीडम पत्र को आपने प्रारंभ किया। 1914 में फ्रांस सरकार ने मादाम कामा को 4 वर्ष तक नजरबंद रखा था। सरकार ने आरोप में कहा, “जब प्रथम महायुद्घ में भारतीय सैनिक अंग्रेजों की तरफ से युद्घ में जा रहे थे, तब बंदरगाह पर मादाम कामा ने उन्हें युद्घ में भाग न लेने के लिए कहा था।’
– राजेंद्र श्रीवास्तव
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