अफगानिस्तान इतिहासबद्घ अराजकता का दूसरा नाम है। इतिहास का कोई ऐसा दौर नहीं रहा जब यहां की सरजमीं लहूलुहान न रही हो। थोड़ी देर का भ्रम भले काबुल में आसीन कोई सरकार पैदा करे, लेकिन हकीकत यही है कि पूरे अफगानिस्तान में किसी भी एक ताकत का कभी शासन न तो रहा है और न ही इसकी उम्मीद है। मौजूदा समय में अफगानिस्तान के अलग-अलग टुकड़ों में बंदूकों, अफीम, डॉलर, मजहब और नस्ली आतंक का शासन है।
7 जुलाई, 2008 को जिस तरह तमाम सुरक्षा प्रबंध होने के बावजूद काबुल स्थित भारतीय मिशन पर जबरदस्त फिदायीन हमला हुआ, वह एक साथ कई खतरों का संकेत है। पहला खतरा तो यह कि तमाम कोशिशों और दुनिया के कई हिस्सों की सुरक्षा सेनाओं की मौजूदगी के बावजूद अफगानिस्तान में आतंक को दफन किया जाना संभव नहीं हो पा रहा और दूसरा खतरा यह कि आईएसआई उस तालिबानी रक्तबीज को फिर से खड़ा कर चुकी है जो निजी स्तर पर भारत के लिए और सार्वभौमिक स्तर पर पूरी दुनिया के लिए बहुत खतरनाक है।
दरअसल, काबुल में तालिबान का फिर से सिर उठाना अमेरिका के उस आतंक विरोधी मिशन की नाकामयाबी तो है ही, जिसने अफगानिस्तान और पाकिस्तान जैसे आतंकवाद की फैक्टरी को हमेशा-हमेशा के लिए बंद कर देने का दावा किया था। साथ ही साथ यह उस ग्लोबल मिशन की भी नाकामयाबी है जिसने अफगानिस्तान के लिए एक पैकेज तैयार किया था। माना जा रहा था कि उस पैकेज की बदौलत अफगानिस्तान मुख्य धारा में लौट आएगा। लेकिन जिस तरह से अफगानिस्तान में तमाम कोशिशों के बावजूद भी तालिबान का खात्मा नहीं किया जा सका और अफगानिस्तान का कबीलाई नक्शा भी नहीं बदला जा सका, उससे लगता है कि आने वाले सालों में दुनिया को आतंक की और भयावह तस्वीर से रू-ब-रू होना पड़ेगा।
सन् 2001 के बाद से यह अफगानिस्तान में पहला ऐसा बड़ा फिदायीन हमला है जो किसी देश के डिप्लोमेटिक मिशन को निशाना बनाकर किया गया। भारत ने इस हमले में न सिर्फ 2 कामयाब राजनयिक बल्कि कई महत्वपूर्ण सैनिक, इंजीनियर और दूसरे मानव संसाधन खो दिये। लेकिन इससे भी बड़े खतरे की बात यह है कि यह ब्लास्ट उन आशंकाओं की ओर इशारा कर रहा है जो तालिबान के सिर उठाने और आईएसआई के वहां कामयाब घुसपैठ का नतीजा लगता है। दरअसल, काबुल में भारतीय दूतावास को यूं ही निशाना नहीं बनाया गया। इसके पीछे कुछ ऐतिहासिक और प्रतीकात्मक कारण हैं। काबुल स्थित भारतीय दूतावास में बहुत सोची-समझी रणनीति के साथ फिदायीन हमला किया गया। यह हमला एक साथ कई संदेश देने की कोशिश है। भारत को, अलकायदा और तालिबान दोनों ही खूंखार आतंकवादी संगठनों ने इजराइल और अमेरिका की श्रेणी में रखा हुआ है। अलकायदा ने कई बार इस बात की घोषणा की है कि उनके लिए भारत भी उसी तरह का दुश्मन देश है, जैसे इ़जराइल और अमेरिका हैं यानी एक खास किस्म का आतंकवाद जब दुनिया में अपनी वैचारिक गोलबंदी करने की कोशिश करता है तो उसमें भारत को दूसरी ओर खड़ा करता है। इसलिए भारत को तो निशाना बनना ही था। सबसे बड़ी बात यह है कि पिछले कुछ सालों में जब कई सालों तक हाशिए पर रहने के बाद भारत ने काबुल में अपनी सफल कूटनीति का झंडा फिर से बुलंद किया था, तभी किया गया यह हमला एक किस्म से नई योजनाओं को करारा झटका है।
सवाल है, आखिर भारत को यह झटका किसने दिया है? अगर हम यह मान लें कि यह सिर्फ अफगानिस्तान के किसी आतंकवादी संगठन, जैसे तालिबान का अकेले दम पर किया गया हमला है तो हम इस खतरनाक मंसूबे की तह तक नहीं पहुंच पाएंगे। भारत के दूतावास को एक खतरनाक संकेत देने के लिए निशाना बनाया गया है और इस निशाने में महत्वपूर्ण भूमिका आईएसआई ने निभाई है। आईएसआई यानी पाकिस्तान की फौजी खुफिया एजेंसी। दरअसल, अफगानिस्तान में जब से तालिबान सरकार का पतन हुआ है तभी से पाकिस्तान की बेचैनी बढ़ गई है और यह बेचैनी बढ़े भी क्यों न, आखिर पिछले 60 साल के इतिहास में अकेला तालिबान सरकार का कार्यकाल ही तो ऐसा था जब पाकिस्तान के लिए अफगानिस्तान में रणनीतिक और कूटनीतिक स्थितियां अनुकूल थीं। उसके पहले राजा जहीर शाह और बाद में सरदार दाऊद के शासनकाल में पाकिस्तान के लिए स्थितियां बेहद प्रतिकूल थीं।
एक तालिबान सरकार के अलावा अफगानिस्तान में बनने वाली ज्यादातर सरकारों ने समय-समय पर पाकिस्तान पर सरहद को लेकर डूंड रेखा को मानने से आनाकानी करने पर अपनी नाराजगी जताई है। यहां तक कि जब अफगानिस्तान में डॉ. नजीबुल्लाह की कम्युनिस्ट सरकार सत्ता में आई तो उसने तो पाकिस्तान पर अच्छा-खासा दबाव बना दिया। उस दबाव का कारण शायद यह भी था कि उस समय अफगानिस्तान में सोवियत संघ का वर्चस्व था और पाकिस्तान सोवियत संघ के विरोधी अमेरिका के खेमे का था। लेकिन जब 1996 में बुरहानुद्दीन रब्बानी की सरकार का पतन हो गया और सत्ता में कट्टरपंथी तालिबान काबिज हो गए तो पाकिस्तान को मानो मुंह मांगी मुराद मिल गई। पाकिस्तान ने इस मौके का दोनों हाथों से फायदा उठाया। क्योंकि तालिबानी कोई और नहीं बल्कि पाकिस्तान की आतंक फैक्टरी में गढ़े गए खतरनाक हथियार ही थे। तालीम के नाम पर युवाओं के दिलोदिमाग में जो बारूद भरी गई, दरअसल उसी बारूद की संतानें हैं तालिबान।
तालिबान के सत्ता में आते ही 20वीं शताब्दी में पहली बार भारत के लिए अफगानिस्तान में स्थितियां प्रतिकूल हो गईं। हर मामले में भारत को हाशिए पर डाल दिया गया और भारत असहाय हो गया। सभी तरह की कूटनीतिक और रणनीतिक योजनाएं आईएसआई की जहरीली रणनीतियों और तालिबान सरकार की बर्बर कार्यवाहियों में विफल हो गईं। सिर्फ भारत के लिए ही नहीं, पश्र्चिमी मुल्कों के लिए भी तालिबान का शासनकाल रणनीतिक और सामाजिक दृष्टि से बेहद खतरनाक था। इसलिए अंतर्राष्टीय स्तर पर तालिबान के विरुद्घ जो गोलबंदी हुई उसमें भारत की भी अपनी सिाय भागीदारी रही। नतीजतन जब तालिबान सरकार का पतन हुआ और अफगानिस्तान में एक बार फिर से चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकारों का दौर लौटना शुरू हुआ तो भारत के लिए फिर से अनुकूल परिस्थितियां पैदा हुईं। इन परिस्थितियों को अपने पक्ष में करने के लिए ही भारत 2 अरब डॉलर से ज्यादा की विभिन्न सहायता परियोजनाओं को अफगानिस्तान में संपन्न करने में लगा हुआ है। भारत अफगानिस्तान की पुनर्निर्माण योजना के तहत वहां सड़कें बना रहा है, उन महत्वपूर्ण इमारतों को फिर से खड़ा कर रहा है जो तालिबानों द्वारा ध्वस्त कर दी गई थीं या सालों के खून-खराबे में बर्बाद हो गईं। लेकिन आईएसआई और तालिबान जानते हैं कि भारत का अफगानिस्तान में मजबूत होना उनके लिए खतरनाक है क्योंकि इससे धीरे-धीरे अफगानिस्तान में लोकतंत्र के लिए माहौल बनने लगेगा। इसीलिए भारत को दुनिया के उन देशों को संदेशा देने के लिए प्रतीक के तौर पर निशाना बनाया गया है जो आतंकवाद तथा फिरकापरस्ती के विरोधी हैं। जो कबीलाई गुंडागर्दी के बजाय लोकतांत्रिक शासन पद्घति पर यकीन करते हैं।
– डॉ. एम.सी. छाबड़ा
You must be logged in to post a comment Login