खेले जइबै सावन में कजरिया

छप्पर की मुंडेर से गिरती पानी की टप-टप बूंदें, छत के पनालों से बहती पानी की मोटी धार, अपने सीने में घुटनों पानी समेट लहलहाते खेत, सौन्दर्य बिखेरती- इठलाती नदियॉं, ताल-तलैयों में अठखेलियॉं करते बच्चे और पानी में गोते लगाते मस्त मवेशी। सच में आ गया है सावन झूम के। ज्येष्ठ-आषाढ़ की तपती धरती पर सावन की फुहार पड़ते ही प्राणी का अंतस प्रफुल्लित हो उठता है। पपीहा पीउ-पीउ की रट लगाने लगता है। मेंढक टर्राने लगते हैं। इस नैसर्गिक सुषमा को निहारने के लिए सर्प भी अपने बिलों से बाहर निकल आते हैं। काली घटा देखकर मयूर नाचने के लिए बेकरार हो जाते हैं। पत्तों की ओट में दुबके पंछी चहक उठते हैं। हर तरफ बस हरियाली ही हरियाली नजर आती है। लगता है, प्रकृति ने धरती मां को हरी चुनरिया ओढ़ा दी हो। ऐसे में प्रकृति की सुन्दरता पूरे यौवन पर होती है। हिन्दी के महाकवि सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला जी ने प्रकृति का बड़ा ही सजीव चित्रण किया है –

उगी दूब की अति हरियाली

गली-गली सुख-सेज बिछाली,

प्रकृति सुंदरी ने शोभा के

रंग, कर दिखलाये।

फिर नभ घन गहराये

छाये, बादल छाये।

एक टुकड़ा मेघ के लिए तरह-तरह की मनौतियां मानी जाती हैं। किसान लोकगीतों के जरिये पानी-गुरधानी की गुहार लगाते हैं। सावन की पहली मस्त फुहार पड़ते ही किसान ढोलक, झांझ, मंजीरा व खड़ताल बजाते मस्ती में झूम उठते हैं। वर्षा का कृषि में विशेष महत्व है। इसके आगमन का अंदाजा भी किसान अपने-अपने तरीके से लगाते हैं। अगर चीटियां अपने स्थान से निकल कर एक कतार में तेजी से बढ़ रही हों तो माना जाता है कि शीघ्र ही पानी बरसने वाला है। कुछ पक्षियों को भी बरखा की भनक लग जाती है और वे अपना ठिकाना छोड़कर प्रवास पर चले जाते हैं। सावन की मादकता और उन्मुक्तता से हर प्राणी उल्लास से भर उठता है। गोस्वामी तुलसीदास ने श्रावण मास की पावस ऋतु का अतीव सुन्दर वर्णन किया है –

बरषा काल मेघ नभ छाए,

गरजत लागत परम सुहाए।

घन घमंड नभ गरजत घोरा,

प्रिया हीन डरपत मन मोरा।

सावन की सुंदरता गॉंवों में अधिक झलकती है। सावन आते ही अमतई पर झूले पड़ जाते हैं। उन पर गुनगुनाती गांव की गोरियां नजर आने लगती हैं। एक-दूसरे से ऊंची पींगें बढ़ाने की होड़-सी मचने लगती है। घरों में ढोल की थाप और मंजीरे की रुनझुन के साथ कजरी के मीठे बोल सुनाई पड़ने लगते हैं। ऊपर से नव-विवाहिताओं की चूड़ियों की खनखनाहट। पूरा गांव संगीत में सराबोर हो उठता है। हर तरफ कजरी के मीठे बोल सुनाई पड़ने लगते हैं –

कैसे खेले जइबै सावन में कजरिया

बदरिया घेरि अइले ननदी।

तू न चललू अकेली, तोरा संग न सहेली

गुंडा घेरि लै हैं तोहि के डगरिया

बदरिया घेरि अइले ननदी।

भगवान श्रीकृष्ण और उनकी प्रेयसी राधा की रास-लीलाओं का वर्णन तमाम कवियों ने किया है। वृन्दावन में कदम्ब की डाली पर पड़े झूले में राधा रानी बैठी हैं। वृक्ष के तने से आड़ लगाकर नंदलाल मुरली बजा रहे हैं। सखियां खिलखिला रही हैं। समस्त जीव-जन्तु भी मंत्रमुग्ध होकर निहार रहे हैं। सावन में राधा-कृष्ण की रास-लीला के सौन्दर्य और श्रृंगार का वर्णन कजरी के माध्यम से भी गाया जाता है –

अरे रामा सारी देहियां कारी,

बोलिया प्यारी ए हरी।

जो हम रहितीं जल की मछरिया,

किशन करत स्नान

चरन लपटैतीं ए हरी।

जो हम रहितीं बेला चमेलिया,

किशन बैठत सभा

हम बगल में गमकतीं ए हरी।

काले बदरा देख भौजाई का भी मन आम के बाग में जाने को मचल उठता है। वह अपनी ननंदों के साथ चल देती है। गांव भर की तमाम छोकरियां पहले से जमा हैं। सब की सब फुदक रही हैं। कुछ गोरियां झूला झूल रही हैं और कुछ हंसी-मजाक के साथ गा रही हैं –

अरे रामा उठी घटा घनघोर,

बदरिया कारी रे हारी।

अग्गम दिशा बदरा गये हैं

पच्छम बरस गये मेह,

बदरिया कारी रे हारी।

जो युवतियां सावन में ससुराल में ही होती हैं, उन्हें अपने मायके की याद सताने लगती है। वे बादल, हवा, पंछी, नदिया से अपना संदेश बाबूल तक पहुँचवाती हैं। उनकी कसक आँखों से आँसू बनकर निकलती है और मन कह उठता है –

बदरी बाबुल के अंगना जइयो,

बदरी अम्मा के अंगना जइयो,

जइयो बरसियो कहियो,

जइयो तड़पियो कहियो,

कहियो कि हम हैं तोरी

बिटिया की अंखियॉं

बिटिया की बतियॉं….

सावन में अमावस्या के तीन दिन बाद तीज का पर्व मनाया जाता है। सम्पूर्ण उत्तर भारत में हरियाली तीज का विशेष महत्व है। इस दिन महिलाएँ जल-कलश लेकर मॉं पार्वती की अर्चना करती हैं। कहीं-कहीं पर मिट्टी से मॉं पार्वती का प्रतीकात्मक रूप तैयार किया जाता है, जिसे “गौर’ कहते हैं। इसकी स्तुति की जाती है। बाद में गौर को खेतों में रख दिया जाता है। कुछ जगहों पर महिलाएँ इस दिन व्रत भी रखती हैं। ऐसी मान्यता है कि अपनी आराधना से प्रसन्न होकर देवी पार्वती स्त्रियों को सदा सुहागिन रहने का आशीर्वाद देती हैं।

तीज के दो दिन बाद शुक्ल पक्ष की पंचमी वाले दिन नागपंचमी पर्व हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इस दिन नाग देवता की पूजा की जाती है। प्राचीन ग्रंथों में इस पूजन की महिमा वर्णित है। नागपंचमी के दिन सांपों को दूध पिलाया जाता है। इस दिन लोग घर के एकांत में तथा खेतों में बांबियों के सामने कटोरी में दूध भरकर रख देते हैं। मान्यता है कि इस दिन सांप को दूध पिलाने से वर्ष भर उनकी कृपा-दृष्टि बनी रहती है। इस दिन गांवों में मेलों का आयोजन होता है।

नागपंचमी वाले दिन लड़कियॉं कपड़े और रूई से छोटी-छोटी गुड़ियॉं बनाती हैं। इन्हें गांव के खुले मैदान या चौराहों पर डाला जाता है, जिन्हें लड़के डंडों से पीटते हैं। महिलाएं घर पर विशेष पकवान तैयार करती हैं। इस दिन पानी से भीगे चने और खीर जरूर खाई जाती है। कई जगहों पर मेला भी लगता है। नागपंचमी के दिन पेड़ों पर झूले पड़ जाते हैं। युवतियां झूला झूलते हुए परस्पर अठखेलियां करती हैं। एक-दूसरे से मनोविनोद करती हैं। उनकी कजरी से पूरा गांव संगीत की लहरियों में गोते लगाने लगता है –

हरे रामा लागि गै सावनवां,

जिया नैहरवां रे हरी।

ओरी ओरी मेहा बरसे

अखियों से बरसे पनिया रामा,

हरे रामा भइया, बाबा निरमोहिया

सावन न मंगावै रे हरी।

सावन में मेहंदी लगाने की परम्परा वर्षों से चली आ रही है। अल्हड़ बालाओं से लेकर वृद्घ महिलाएँ तक मेहंदी रचाने के लिए आतुर रहती हैं। मेहंदी लगाने के दौरान लोकगीत भी गाए जाते हैं। पिया का मन मोहने के लिए नवयौवनाएँ हाथ-पैर में मेहंदी रचती हैं। मान्यता है कि जिस अविवाहित युवती के हाथ में मेहंदी जितनी अधिक रचती है, उसका पति उससे उतना ही अधिक प्रेम करता है। महिलाएँ गाती हैं –

मेहंदी ली आइदे मोतीझील से,

जाके साइकील से ना।

सावन की महिमा निराली है। देखिये अजब विरोधाभास है, एक तरफ तो युवतियॉं पति को छोड़कर मायके जाने के लिए आतुर होने लगती हैं और दूसरी तरफ साजन के विछोह में एक-एक पल तड़पने लगती हैं। सावन प्रेम ऋतु है। इसमें मन अत्यधिक चंचल रहता है, अतः विरह की पीड़ा असहनीय हो जाती है। काली घटाएँ जब जोर से गरजना शुरू करती हैं तो सजनी भय के मारे साजन की बांहों में सिमटने को व्याकुल हो उठती है। ऐसे में पिया से दूरी सजनी को मर्माहत कर देती है। हर तरफ हरियाली में भी मन उजाड़-सा हो जाता है। ऐसे व्याकुल मन को सावन की रिमझिम बूंदें और तड़पा देती हैं।

उमड़ आये कारे बदरा रे।

रिमझिम-रिमझिम मेहा बरसे,

पवन झिर लागे धीरे-धीरे

सांवरिया ना आये सखी रे

अकेली डर लागे धीरे-धीरे

उमड़ आये कारे बदरा रे।

सावन की बहार में साजन से मिलने के लिए बावरा मन तड़प उठता है।

सइयां ना आये सावन की बहार में

अरे सावन में…

सब सखियां मिल डल ली झुलनवा

हम खाली अपनी ओसार में,

अरे सावन में…

सबके त सइयां सखी अइले असाढ़ में,

मोरे सइयां आवेलें कुआर में,

अरे सावन में….

सावन का महीना शिव उपासना का होता है। शास्त्रों के अनुसार सावन भगवान शिव का प्रिय माह है। माह भर भगवान भोले शंकर की विशेष स्तुति की जाती है। इस माह में पड़ने वाले प्रत्येक सोमवार को हर मंदिर में भक्तों का मेला-सा लग जाता है। बहुतेरे सामिष भक्तगण माह भर शाकाहार लेते हैं। कई शिव भक्त तो सावन माह में दाढ़ी-बाल कटवाने से भी परहेज करते हैं। “बम भोले’ के उद्घोष से पूरा वातावरण शिवमय हो जाता है। इस दौरान भोले बाबा के प्रसाद के तौर पर भांग-ठंडाई का भरपूर सेवन होता है। मस्ती और भक्ति में लोग गाते हैं –

शिव शंकर चले कैलाश

बुंदियां पड़ने लगीं।

गौराजी ने बोई हरी-हरी मेहंदी

शिव शंकर ने बोई भांग,

बुंदिया पड़ने लगीं।

गौरा के रच गई हरी-हरी मेहंदी

शिवशंकर के चढ़ गई भांग,

बुंदियां बड़ने लगीं।

 

– निर्विकल्प विश्र्वहृदय

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