तंत्रों का विज्ञान है कि जिस प्राण देवता का भाव-प्रतिमा अथवा नैदान प्रतिमा में आवाहन अभीष्ट होता है, उस देवता के कल्पित नैदान स्वरूप को प्रथमतः अपने अंतर्जगत् में खचित करना पड़ता है। अतः आवाहन से प्रथम ध्यान का विधान है। तदनन्तर “गणपतिमावाहयामि’ इत्यादि रूप से भाव-प्रतिमा अथवा नैदान प्रतिमारूप मध्यस्थ भूत में उस ध्यानात्मा के स्वरूप का आवाहन किया जाता है। मध्यस्थ भूत में भी “गणपति’ हैं किंतु आवाहित “गणपति’ से भूतस्थ गणपति उद्बद्घ होते हैं, यह आवाहन का रहस्य है।
रहस्य
“निदान’ शास्त्र द्वारा कल्पित “गणपति’ के तीन ध्यानों में प्रयुक्त निदान-भावों के रहस्य इस प्रकार हैं-
खर्वम्- “गणेश’ के शरीर के खर्वता (वामनत्व) खगोल एवं खगोलस्थ बृहत्तम सूर्य आदिपिण्डों के सामने यह पार्थिव पिण्ड अत्यंत लघु (छोटा) है, इस रहस्य का निदान (संकेत) करती है।
स्थूलतनुम्- यह पार्थिव “गणपति’ प्राण पुष्टि भाव का प्रवर्तक है, यह भाव का संकेत है। “पुष्टिवै पूषा’ इस वैदिक विज्ञान के आधार पर “पूषा’ प्राण पुष्टि भाव का प्रवर्तक माना गया है परंतु पार्थिव “गणपति’ प्राण पार्थिव “पूषा’ -प्राण का अनुगामी है। इस कारण यह भी पुष्टि भाव का प्रवर्तक है।
गजेन्द्रवदनम्- यह पार्थिव “इरा’ -रस मादक है, इस भाव का द्योतक है। हस्ती पशु में इस रस का अतितरां विकास है। अतः वह “गज’ शब्द से अभिहित हुआ है। “गजति मदेन मत्तो भवति इति गजः -यह “गज’ शब्द का निर्वचन है। पार्थिव “गणपति’ तत्त्व भी इस इरा रस से मत्त है, अतः उनको भी “गजानन’ मान लिया गया है। दूसरे शब्दों में “गणपति’ का गजानन-भाव पार्थिव इरा रस की मादकता का निदान है।
लम्बोदरम्- यह उरू अन्तरिक्ष में अनुगत मरूद्भव का निदान है। अर्थात यह विस्तीर्ण अन्तरिक्ष ही “गणपति’ का लम्बा उदर है।
दंताअतः – यह घन-प्राण का निदान है। अर्थात पार्थिव घन-प्राण “गणपति’ है। देवता ही आयुधरूप में परिणत होते हैं।
सिन्दूरशोभाकरम्- यह सिन्दूरवर्ण का द्योतक है। “गणपति’ के सिन्दूरवर्ण, रक्तकांति, रक्तवस्त्र, रक्त अंगराग आदि आग्नेय पार्थिव प्राण के सूचक हैं। अर्थात गणपति पार्थिव आग्नेय प्राणरूप हैं।
नागेंद्राबद्घभूषम्- यह आंतरिक्ष्य नाक्षत्रिक सर्पप्राणों का सूचक है। अर्थात गणेश के भूषण नाग नाक्षत्रिक दिव्य सर्पप्राण हैं। इनके उदर का भूषण सर्प खगोल का विषुवद् वृत्त है।
त्रिनेत्रम्- यह आग्न सोम-आदित्यरूप तीन भूत ज्योतियों का निदान है। अर्थात ये तीन ज्योतियॉं गणेश के तीन नेत्र हैं।
हस्तपद्मै- यह खगोलीय चतुस्वस्तिकों का निदान है। अर्थात खगोलीय चार स्वस्तिक ही गणेश के चार हस्तपद्म हैं।
दन्तं पाशांकुशेष्टानि- ये “गणपति’ के हाथों में विद्यमान अनेक शक्तियों के सूचक हैं। इनमें दन्त घनप्राण, पाश नियंत्रण-शक्ति, अंकुश आकर्षण तथा वरमुद्रा अभीष्ट कामपूरि का शक्ति के ामशः निदान है। शुण्डादण्ड में स्थित बीजपूर फल पार्थिव परमाणुओं का निदान है।
बालेन्दुद्योतमौलिम्- यह ज्ञानैश्वर्य का निदान है। अर्थात “गणपति’ ज्ञानघन है, सर्वज्ञ हैं। “गणपति’ की एकदन्तता पार्थिव पूषा प्राण के साथ अभेद की सूचिका है, जिसमें पूषा-प्राण का प्राबल्य होता है, वह दन्तरहित होता है। “अदन्तकः पूषा’ यह वेद-विज्ञान है।
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