मेरे बेटे का नाम कृष्ण है, इसलिए मैं तो इसका नाम राधा ही रखूँगी।” मजबूर लाजो पारिवारिक आदर्श, सभ्य संस्कृति, सच्ची सादगी और लोकलाज का लबादा ओढ़े शादी की डोली में बैठी। सारी इच्छाएँ दबाए वह रुख्सत हुई। मैंने अपनी पोती लाजो को ढेरों आशीर्वाद दिए।
मेरी लाजो अभी कुछ दूर पहुँची भी न थी कि गाड़ी चला रहे उसके देवर की आवाज सुनाई दी “”भैया मारुति गाड़ी दी है चलता-फिरता डिब्बा, वह भी दादा के नाम- चौ. नथवा सिंह।” यह बात सुनते ही लाजो के पैर के नीचे की जमीन खिसक गई। घर की दहलीज पर गाड़ी रुकी। कान में सास की कर्कश आवाज का स्वर सुनाई दिया, “”तुम ही ले आओ उस अभागिन को अंदर, मैं उस बिना भाई की बहन को उतारने नहीं जाऊँगी।”
सास के कटाक्ष ने लाजो के भाग्य पर थप्पड़ मारा और वह अपने आपको कोसने लगी। घर में प्रवेश कर मेरी लाजो ने सिर झुकाकर प्रणाम किया तो सास ने मुँह सिकोड़ते हुए कहा, “”बस रहने दे ढोंगबाजी को, दिखावा करने की आवश्यकता नहीं है।” मजबूर लाजो मन मसोस कर रह गई। चरणस्पर्श कर आशीर्वाद लेने के लिए झुकी ही थी कि सास ने पैर पीछे झटकते हुए डॉंटा, “”आगे मत बढ़ना, बिना भाई की बहन अभागन होती है। मेरे पैर छूकर तू मुझे भी अभागिन बना देना चाहती है। अरी चुड़ैल कौन तेरे तीज-त्योहार लेके आएगा और कौन भरेगा तेरे भात।”
शादी के बाद जब पहली बार फेरा डालने आई लाजो तो मुझसे लिपट कर जोर से रोई। “”दादी मॉं, अब उस घर में मुझे दोबारा मत भेजना, नहीं तो मैं मर जाऊँगी। अपनी लाजो की लाज रख ले दादी मॉं। मैं सारी उम्र तेरे पास रह जाऊँगी दादी मॉं, पर उस घर में नहीं जाऊंगी।” मैंने लाजो को समझाते हुए कहा, “”बेटी, भारतीय समाज में युवतियों के लिए यह आदर्श माना जाता रहा है कि जिस चौखट पर उसकी डोली पहुँचे, उसी चौखट से उसकी अर्थी उठे।” लाजो ने रोते हुए पूछा, “”दादी मॉं, ये भारतीय समाज ऐसा क्यूं है? दादी मॉं मैं इस घटिया समाज से लड़ूँगी, बस मुझे आपका साथ चाहिए। और एक दिन इसी समाज में मैं अपना सम्मानीय स्थान बनाऊँगी।” लाजो के मन का गुबार निकला तो मैंने उसे धीरे-धीरे समझाया, “”बेटी, वक्त हमेशा एक जैसा नहीं रहता, हमें बदलाव का स्वागत करने के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए। बेटी सहनशीलता और मौन के वृक्ष पर खुशी व उन्नति के फूल उगते हैं।” मेरी दीक्षा और उपदेश लेकर, अपनी सफलता के उत्कर्ष को वैवाहिक जीवन की खुशियों के लिए त्याग लाजो दोबारा ससुराल चली गई और निःस्वार्थ भाव से अपने कर्त्तव्य-पथ पर आगे बढ़ी। सहज और स्वाभाविक गुण क्षमता से लबरेज लाजो ने पूरे तीस वर्ष गृहस्थ तपस्या की। उसके अत्यधिक परिश्रम और दुःखदायी पारिवारिक माहौल ने उसे समय से पहले बूढ़ी बना दिया। जब भी वह मायके आती, उसके चेहरे की झुर्रियॉं और बढ़ी पाती। मैंने उसे कहा, “”बेटा, लाजो अपने नाम की सार्थकता रखते-रखते तूने अपने शरीर को ढूँठ पेड़ बना लिया है।” तो लाजो ने कहा, “”ओ… हो… दादी मॉं क्या करना है श्याम से चमकीली वर्ण का और क्या करना है हड्डियों के इस नश्र्वर शरीर का। आखिर एक दिन मिट्टी में ही तो मिल जाना है। बस, गृहस्थ आश्रम निभाते हुए अपने अथक परिश्रम द्वारा अपनी आत्मा को कंचन बना लें। और अपनी आत्मा का परमात्मा में विलय करें।
और एक दिन टिन… टिन… फोन की घंटी बजी। फोन मैंने ही उठाया। उधर से आवाज आई, “”दादी मॉं, आपकी लाजो बोल रही हूँ। सबसे पहले आपको ही एक खुशखबरी सुनानी है, पर दादी मॉं मुझे बनावटी हॅंसी हॅंसने के लिए मत कहना। सुनो, आपके जुड़वा धेवता-धेवती, आकाश और व्योमिका दोनों पायलट बन गए हैं। दादी मॉं मेरी तीस वर्ष पहले की संभावनाएँ आज इन बहन-भाई में मुझे मिल गई हैं। दादी मॉं उनकी पहली उड़ान आज शाम चार बजे है। उन्होंने दो टिकट भिजवाए हैं, एक मेरे लिए और एक मेरे आदर्श अर्थात् आपके लिए। आप दो बजे तैयार रहना। आकाश और व्योमिका हम दोनों को लेने आएँगे, वे हमें जहाज में घुमाएँगे और ऊपर नीलगगन में से दादाजी हमारे ऊपर अपने आशीर्वाद के फूल बरसाएँगे।”
लाजो की बात सुनकर मैं फूली न समाई, “”अच्छा बेटी लाजो, आज तुझे प्रभु प्रसाद मिल ही गया, जो किसी खुशनसीब को ही मिलता है।” लाजो बोली, “”दादी मॉं, मुझे शोहरत तो मिली, सामाजिक सम्मान मिला और मिला कर्मठता का कर्त्तव्य फल।” पढ़ाई और जीवन कॅरिअर में तो मैं रूढ़ीवादी परंपरा की बेड़ियों की जकड़न की वजह से खरी न उतर सकी, फिर भी गुणों का खजाना बनने की कोशिश करती रही मैं। गुणों की अवधारणा में कितनी खरी उतरी मैं यह तो मेरे बच्चे ही समझ सके हैं और जिनसे मुझे शिकायत रही उन्होंने कभी भी मेरी बात सुनना गवारा न समझा और न ही कभी मुझे खुले दिल से अपनाया।”
मैंने कहा, “”बेटी, लाजो पूरी दुनिया में तेरे जैसी कोई नहीं, यह दोष तो जौहरी का है कि वह अपनी पारखी नजर से असली हीरे की परख नहीं कर पाता।”
“”अच्छा! दादी मॉं ये दोनों बहन-भाई आ ही गए, आप जल्दी से तैयार हो जाओ। हम आ रहे हैं आपको लेने।” (समाप्त)
– लाडो
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