भारत सरकार देश को दिलासा दे रही है कि वैश्र्विक स्तर पर बाजार में जो मंदी आई है, हम उससे काफी हद तक सुरक्षित हैं। कहा जा रहा है कि हमारी अर्थव्यवस्था की बुनियादें बेहद मजबूत हैं। यह भी कि हमारी अर्थव्यवस्था का चरित्र मौलिक रूप से अमेरिकी तथा वैश्र्विक अर्थव्यवस्था से भिन्न है। लेकिन यदि बहुसंख्यक निम्न वर्ग और अभावग्रस्त गरीब तबके की दृष्टि से देखें तो यह तथ्य निश्र्चित रूप से सामने आएगा कि बाजारू अर्थव्यवस्था और उपभोक्तावाद की लहरें अभी उनके प्यासे होंठों तक पहुँचने में नाकाम रही हैं। इसका एकमात्र कारण है उनकी ायशक्ति और आर्थिक अपंगता जो उनको अभी इस व्यवस्था से जुड़ पाने में बाधा बनती रही है। इस हकीकत को हमारे अर्थशास्त्री अभी तक नहीं समझ पाये हैं कि इस तबके के लिए न सेंसेक्स का इक्कीस हजार का आंकड़ा छू पाना कोई महत्व रखता है और न ही उसका दस ह़जार से नीचे उतर आने पर इनकी जिन्दगी में कोई हलचल होती है। गौरतलब है कि यह वर्ग देश की कुल जनसंख्या के एक-तिहाई से थोड़ा ही कम है।
यह महज संयोग नहीं है कि अन्तर्राष्टीय खाद्यान्न नीति के शोध संस्थान ने 88 देशों का सर्वेक्षण करके जो ग्लोबल हंगर इंडेक्स जारी किया है उसमें भूखे देशों के तौर पर सबसे खराब देशों की सूची में भारत का स्थान 66वॉं है। रिपोर्ट में अन्तर्राष्टीय खाद्यान्न संकट से पहले 2006 तक के आंकड़ों के आधार पर बताया गया है कि भारत का कोई भी राज्य भुखमरी, कुपोषण और बढ़ती बाल-मृत्यु दर से अछूता नहीं है। इसके बाद के आंकड़े कम से कम इससे बेहतर तो नहीं हो सकते, हो सकता है वे इससे भी भयावह चित्र पेश करें। अतएव जिस देश की अधिकांश जनता अपना सारा समय, श्रम और शक्ति सिर्फ दो जून की रोटी जुटाने में लगा रही हो, उस देश को कोई भी आर्थिक सुनामी किस हद तक प्रभावित कर सकेगी, किसी की भी समझ में आ सकता है।। कहा भी गया है कि भिखमंगे के सिर पर अगर शनीचर आ भी जाय तो उसका क्या बिगाड़ लेगा। सच्चाई तो यह है कि जब तक यह विशाल वंचित वर्ग आर्थिक गतिविधियों में शामिल नहीं किया जाता है, तब तक यह राष्टीय बहस कि विश्र्व-व्यापी आर्थिक मंदी किस सीमा तक हमारी अर्थव्यवस्था को प्रभावित करेगी, बेमतलब है। अभी तो आदमी के लिए सबसे बड़ा रक्षा-कवच उसकी खुद की गरीबी और बदहाली ही है।
भूमंडलीकरण के दौर में आय की असमानता पर अंतर्राष्टीय श्रम संगठन ने अपनी वर्ल्ड ऑफ वर्क रिपोर्ट-2008 में पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की जो भयावह तस्वीर खींची है, उस पर ़गौर करने की जरूरत है। संगठन ने कुल 73 देशों के सर्वेक्षण में पाया है कि कम से कम 71 देश ऐसे हैं, जिनके यहॉं नौकरीपेशा लोगों की आमदनी में ़गैर बराबरी ते़जी से बढ़ती जा रही है। निचले और ऊपरी तबके के कर्मियों के बीच यह फासला 70 फीसदी से भी अधिक का है। 2003 से 2007 के बीच उच्चतम अमेरिकी एक्जीक्यूटिव के वेतन में 45 प्रतिशत, मध्यम के वेतन में 15 प्रतिशत और निचले दर्जे के कर्मचारियों के वेतन में महज तीन प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। यह आंकड़ा सामान्य कंपनियों का है, जबकि सर्वोच्च 15 अमेरिकी कंपनियों के बड़े मैनेजर अपने सामान्य कर्मचारी की तुलना में 500 गुना ज्यादा कमाता है। इसके साथ ही जो सबसे खतरनाक चेतावनी अन्तर्राष्टीय श्रम संगठन ने दी है, वह यह है कि 2009 में आर्थिक मंदी के कारण तकरीबन 50 लाख से अधिक लोगों के बेरो़जगार हो जाने की संभावना है। आज दुनिया की जो भी श्रम-शक्ति है, उसमें प्रत्येक दूसरे व्यक्ति की नौकरी असुरक्षित तथा जोखिम के दायरे में है।
खुद भारत में पिछले पॉंच वर्षों के बीच सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के कितने कारखाने “बीमार’ घोषित किये गये और कितनों को बंद कर देना पड़ा, इसका कोई लेखा-जोखा भारत सरकार के पास नहीं है। और कितने लोगों को इसके चलते अपना रोजगार गंवाना पड़ा, इसका भी कोई हिसाब दे सकने में वह असमर्थ है। आंकड़ा यह है कि आर्थिक उदारीकरण के इस महाभियान में पिछले एक दशक के दरम्यान लगभग पॉंच लाख लघु और कुटीर उद्योग तबाह हो चुके हैं। आज की वैश्र्विक आर्थिक मंदी को 1930 की महामंदी से भी ज्यादा खतरनाक माना जा रहा है। इस आर्थिक मंदी के चलते समूची पूंजीवादी विश्र्व-व्यवस्था सवालों के घेरे में आ गई है। लोग अब यह मानने को मजबूर हो रहे हैं कि पूंजीवाद डायनासोर की तरह अपने ही बोझ से चरमरा कर बैठ रहा है। माना यह भी जा रहा है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था का भूमंडलीकरण पूंजीवाद की अंतिम अवस्था है, जहॉं से अब इसकी गिरावट का दौर शुरू होगा। अगर इस व्यवस्था को मानवीय बनाने का प्रयास नहीं किया गया तो इसकी त्रासदी से बच पाना कठिन होगा। यह तबाही कारपोरेट-जगत को मटियामेट कर देगी। रह गई दुनिया के उन 43.5 प्रतिशत लोगों की बात, जो सिर्फ दो डॉलर की सीमा में गुजर बसर करते हैं, तो पहले से ही तबाह इन लोगों को यह नई तबाही और क्या तबाह करेगी? अर्थशास्त्री अर्जुन सेन गुप्ता की रिपोर्ट बताती है कि भारत की 77 फीसदी आबादी सिर्फ बीस रुपये रोज पर गुजर-बसर करती है। अब कोई भी सोच सकता है कि सेंसेक्स का उठना-गिरना इनको किस हद तक प्रभावित करेगा? आर्थिक मंदी के इस दौर में खुद इनकी गरीबी सबसे मजबूत रक्षा-कवच है।
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