प्रधानमंत्री पद के भाजपा उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी अगले चुनाव के बाद अपनी ताजपोशी को हर स्थिति में निश्र्चित बनाने की कोशिशों में जुटे समझ में आते हैं। उन्हें देश के अल्पसंख्यक मतदाताओं, खासकर मुसलमानों की भी खासी चिन्ता है। अब तक भाजपा में हिन्दुत्व के मुद्दे पर उनको हार्ड लाइनर समझा जाता रहा है। अब वे इस धारणा को निर्मूल करने की हर संभव कोशिश कर रहे हैं। उनकी यह भी आकांक्षा है कि मतदाता उन्हें “हिन्दुत्व’ का नहीं, सच्ची धर्मनिरपेक्षता का हिमायती समझे। भाजपा अल्पसंख्यक मोर्चा द्वारा आयोजित अल्पसंख्यक महिला सम्मेलन की तकरीर में उन्होंने स्पष्ट किया कि भाजपा अल्पसंख्यकों के खिलाफ नहीं है। उन्होंने बहुत बल देकर कहा कि भाजपा उस मानसिकता के खिलाफ है, जो मुसलमानों को मोहरा बनाकर अपना वोट-बैंक तैयार करती है और उनकी सच्ची तरक्की को हाशिये पर डाल देती है। मुसलमानों के पिछड़ेपन के लिए उन्होंने देश में सर्वाधिक समय तक राज करने वाली कांग्रेस को जिम्मेदार बताया। उन्होंने कांग्रेस सहित अन्य सेकुलर पार्टियों की यह कह कर आलोचना की कि इन्होंने एक मुहिम चला कर मुसलमानों को भाजपा के खिलाफ बरगलाया है, जबकि सच यह है कि भाजपा अल्पसंख्यकों के खिलाफ नहीं अपितु अल्पसंख्यकवाद के खिलाफ है। उन्होंने मुसलमानों का आठान करते हुए कहा कि अगर वे भाजपा के नजदीक आते हैं तो उन्हें भाजपा से किसी तरह की निराशा नहीं होगी।
आडवाणी का यह अल्पसंख्यक प्रेम अचानक किस आयाम पर आ खड़ा हुआ है, इसका जायजा इस बात से लिया जा सकता है कि राम जन्मभूमि आन्दोलन के दौरान उन्होंने जो नारा उछाला था, उसमें उन्होंने बड़ी कारीगरी के साथ बदलाव करके अब अल्पसंख्यकों की थाली में परोस दिया है। सोमनाथ से अयोध्या तक के लिए निकाली गई रथ-यात्रा के दौरान उन्होंने नारा उछाला था, “जो हिन्दू-हित की बात करेगा, वही देश पर राज करेगा’। लेकिन उनके नारे से अब “हिन्दू-हित’ गायब हो चुका है और उसके स्थानापन्न के रूप में वहॉं अब “राष्टहित’ आ गया है। अल्पसंख्यक मोर्चा के इस कार्याम में उनका संशोधित नारा था, “जो राष्ट-हित की बात करेगा, वही देश पर राज करेगा।’ अगर कोई यह समझता हो कि यह परिवर्तन अथवा संशोधन भाजपा की मौलिक नीतियों अथवा आडवाणी की सोच में परिवर्तन का संकेत करता है, तो यह उसका भ्रम होगा। शब्दों के साथ खेलते हुए आडवाणी ने राजनीतिक ़जरूरतों के चलते अपनी रणनीति में परिवर्तन अवश्य किया है। लेकिन नीति उनकी अपरिवर्तित है। इस मायने में न उनको कोई टोक सकता है और न घेर सकता है। इन दोनों शब्दों को लेकर वे बड़ी सुविधाजनक स्थिति में हैं। अगर कोई उन पर यह आरोप लगाये कि आपने हिन्दुत्व की लाइन छोड़ दी है, तो वे साफ इन्कार कर जायेंगे। उनको अपनी पुरानी व्याख्या पेश करते देर नहीं लगेगी कि “हिन्दू’ और राष्ट दोनों एक-दूसरे के पर्यायवाची होने की सीमा तक समानार्थी हैं। भाजपा और आडवाणी के लिए अब इससे सुविधाजनक बात और क्या हो सकती है कि वे बड़ी आसानी से राष्ट की व्याख्या “हिन्दू’ के रूप में कर सकते हैं और हिन्दू की “राष्ट’ के रूप में। उनकी इस पहल को आरएसएस भी बड़े खुले हृदय से स्वीकार कर लेगा और अल्पसंख्यकों को भी इस पर नाक-भौं सिकोड़ने का मौका नहीं मिलेगा।
आडवाणी अपनी हर चाल बहुत सावधानी पूर्वक चल रहे हैं। उन्हें अल्पसंख्यक मुसलमानों का वोट चाहिए ़जरूर, लेकिन पिछली बार की तरह वे एक बार फिर आरएसएस का कोपभाजन भी बनना नहीं चाहेंगे। ़गौरतलब है कि अपनी पाकिस्तान यात्रा के दौरान उन्होंने जिन्ना की मजार पर फूल चढ़ाते हुए उनको एक सच्ची धर्मनिरपेक्ष शख्सियत बता आये थे। और तब आरएसएस उन पर इस हद तक कुपित हुआ था कि उन्हें भाजपा के राष्टीय अध्यक्ष पद से हटना पड़ा था। अतएव अब जब उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी कुछ ही कदम दूर दिखाई दे रही है तो वे अपनी पुरानी गलतियों को दुहरा कर इस संभावना को निरस्त करना नहीं चाहेंगे। वैसे भी उनके प्रयास को मुस्लिम समुदाय कोई खास अहमियत देने की स्थिति में अभी दिखाई नहीं देता। कांग्रेस पर भाजपा की ओर से मुस्लिम तुष्टीकरण का लगाया गया आरोप सही हो सकता है, लेकिन उसके मुकाबले मुसलमानों के मन में अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने का प्रयास भाजपा ने भी कभी नहीं किया। हिन्दू-हितों की लड़ाई तो भाजपा बराबर लड़ती रही है लेकिन मुस्लिम-हितों की पूर्ति अथवा रक्षा के लिए उसने कभी राजनीतिक पहल नहीं की। बल्कि देखा तो यह भी जाता है कि उनके वा़िजब हितों के बारे में भी उसका रवैया विपरीत ही रहता है। सच्चाई यह है कि दोनों को दोनों की ़जरूरत है। अगर दोनों की सोच परस्पर स्वीकार्यता के विषय में बने तो इस देश की राजनीति में बहुत सार्थक बदलाव आ सकता है। इससे बहुत-सी राष्टीय समस्याओं का समाधान बहुत सरलतापूर्वक हो सकता है, साथ ही एक राष्टीय समाज भी विकसित किया जा सकता है। यह विडम्बना है कि देश में बहुसंख्यक हितों और अल्पसंख्यक हितों को बांट कर अलग-अलग चश्मे से देखा जा रहा है, जबकि दोनों के हित लगभग समान हैं।
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