गुजर जायेगा कयामत का तूफान

मशहूर अर्थशास्त्री और समाज विज्ञानी गुन्नार मिर्डल ने भारत को नरम राज्य होने के जो बहुत सारे कारण गिनाए हैं उनमें से एक यह भी है कि भारतीय सुनते बहुत हैं, सोचते कम हैं। वैसे यह बात सिर्फ भारतीयों पर ही नहीं लागू होती। यह मनुष्योचित मनोविज्ञान है कि वह सोचने से ज्यादा सुनना पसंद करता है और उससे जल्दी प्रभावित होता है। भारतीय पूंजी बाजार में आयी मंदी की सुनामी और उससे मचे चारों तरफ के हाहाकार से तो कम से कम यही बात साबित होती है।

अगर ऐसा न होता तो पिछले एक पखवाड़े में भारतीय शेयर बाजारों में जो बदहवासी देखने को मिली वह नहीं मिलती। पिछले एक पखवाड़े के भीतर दर्जनों लोगों ने मुझसे इस संबंध में सवाल किया कि अब शेयर बाजार का क्या होगा? कई लोग तो इतना घबराये हुए थे कि उन्होंने सलाह कम अपना फैसला सुनाने वाले अंदाज में मुझे बताया कि वह बैंक से अपना पैसा निकालने की सोच रहे हैं। मैंने पूछा क्यों, तो उनका चौंकाने वाले अंदाज में जवाब था “अरे, तुम्हें नहीं पता! बड़े-बड़े बाजार डूब रहे हैं।’

इसमें कोई दो राय नहीं है कि पूंजी बाजार एक बेहद अनिश्र्चित और आस्थर बाजार होता है। जहां कब क्या हो जाए यह कोई नहीं जानता और यकीन मानिए अगर कोई जानता हो तो वह बाजार के तमाम फायदे खुद ही उठा ले, बिना किसी को कोई सलाह दिए। पूंजी बाजार अपने चरित्र ही नहीं, मूलाधार से ही अनुमानों का बाजार है। लेकिन हर अनुमान के पीछे कुछ ठोस वैज्ञानिक आधार ही होते हैं जो अनुमान लगाने में मदद करते हैं। सितम्बर के दूसरे पखवाड़े की शुरूआत में दुनिया भर में जो मंदी की सुनामी उठी वह बिना शक अभूतपूर्व थी। पिछली सदी में 30 के दशक में ऐसी महामंदी आयी थी लेकिन वह मौजूदा मंदी के मुकाबले कई मायनों में कम खतरनाक थी। मसलन, तब दुनिया एक-दूसरे पर इतनी ज्यादा अन्तर्निर्भर नहीं थी जितनी कि आज है। आज दुनिया के किसी भी देश का, चाहे वह एकमात्र सुपर पॉवर अमेरिका हो या ताकत के परिदृश्य में कोई हैसियत न रखने वाला हैती अथवा सोमालिया, सब एक-दूसरे पर बहुत ज्यादा अन्तर्निर्भर हैं। यही वजह है कि अगर होनोलुलू को छींक आती है तो उस छींक का असर हरियाणा तक में देखा जाता है। इस लिहाज से आज के और 1929 के हालात एक-दूसरे से भिन्न हैं। 1929 की अमेरिकी महामंदी से दुनिया के ज्यादातर देश अप्रभावित रहे थे। एशिया और अफ्रीका के ज्यादातर देशों में उसका कोई सीधा असर नहीं पड़ा था। लेकिन आज स्थिति यह है कि अगर अमेरिका का डाउ जोंस और नैस्डेक का सेंसेक्स गिरता है तो पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था डगमगाने लगती है। वॉलस्टीट में कोई धमाका होता है तो उसकी गूंज दलाल स्टीट तक सुनी जाती है।

यही वजह है कि जब पिछले एक साल से सब प्राइम संकट झेल रहा वॉलस्टीट, सितम्बर, 08 के पहले सप्ताह के बाद धीरे-धीरे पतन की ओर बढ़ने लगा तो पूरी दुनिया में हड़कंप मच गया। निक्कई, हैंग्सेक से लेकर मुंबई का बीएसई सेंसेक्स तक गोते लगाने लगा। पूरी दुनिया में हाहाकार मच गया। देखते ही देखते कयामत की आशंकाएं बिल्कुल सच लगने लगीं। वॉलस्टीट के पांच दिग्गज जो एक तरह से पूरी दुनिया की वित्त व्यवस्था के कंटोल रूम जैसे थे; जब एक-एक करके धराशायी होने लगे तो हाहाकार मच गया। पहले बीयर स्टर्न्स और लेहमन ब्रदर्स जैसे दुनिया के सबसे बड़े इन्वेस्टमेंट बैंक दिवालिया हो गए। फिर बारी आई मेरिललिंच बैंक की। यह डूबते-डूबते बचा। अगर अमेरिकन बैंक ने इसे खरीद न लिया होता तो इसकी भी दुर्गति वही होती जो लेहमन ब्रदर्स या बीयर स्टर्न्स की हुई। लेकिन शायद सुनामी का तूफान अभी रुकने का नाम लेने वाला नहीं था। इसलिए मॉर्गन स्टैनली और गोल्डमैन सैक्स जैसे निवेश बैंकों ने भी निवेश बैंकिंग छोड़कर साधारण बैंकिंग के लिए अमेरिकी फेडरल रिजर्व के सामने चिरौरी की और उनकी चिरौरी मान ली गयी। इसके अलावा वैकोबिया बैंक और वाशिंगटन म्युचुअल जैसी भारी भरकम कंपनियां भी चारों खाने चित्त हो गयीं। दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के सबसे बड़े वित्तीय नियंत्रण केंद्रों की यह हालत देख अमेरिका में तो हड़कंप मचा ही, इस हड़कंप ने यूरोप और एशिया सहित पूरी दुनिया में हाहाकार मचा दिया। एक-एक करके सभी शेयर बाजार रसातल में धंसने लगे। विदेशी वित्तीय कंपनियों के साथ-साथ तमाम देशों की छोटी-छोटी वित्तीय कंपनियां भी डूबने लगीं जिससे बदहवासी का आलम स्वाभाविक था।

लेकिन अगर आंख खोलकर देखा जाय और दिमाग खोलकर सोचा जाए तो यह जितना बड़ा विश्र्व संकट है, कम से कम उतना बड़ा भारतीय संकट तो नहीं है। भारतीय संकट है भी तो यह कुछ निवेश बैंकों या बड़ी कंपनियों के लिए है। इसमें कोई दो राय नहीं कि आम निवेशक भी इससे प्रभावित हो रहा है। क्योंकि भारतीय बाजार भी लगातार रह-रहकर गिर रहे हैं। लेकिन हाय-तौबा जिस तरह से मची, खासतौर पर टेलीविजन चैनलों ने जिस तरह का खौफनाक और हड़कंप भरा माहौल तैयार किया उस सबकी कोई जरूरत नहीं थी। इसकी कई वजहें हैं- सबसे पहले तो हमें यह देखना चाहिए कि एक अरब और तकरीबन 20 करोड़ आबादी वाले हिन्दुस्तान की एक फीसदी से कम आबादी है जिसका शेयर और पूंजी बाजार से सीधा-सीधा रिश्ता है। 2007 में एक आर्थिक अखबार द्वारा किए गए सर्वेक्षण के मुताबिक कुल 94 लाख निवेशक हैं जो अपना पैसा शेयर बाजार में लगाते हैं। इसमें भी 64 फीसदी ऐसे निवेशक हैं जिन्होंनेे म्युचुअल फंडों जैसी निवेशी योजनाओं में अपना पैसा लगा रखा है।

इस तरह देखा जाय तो कुल 0.001 फीसदी भारतीय ही ऐसे हैं जिनका पूंजी बाजार की सुनामी से कोई सीधा रिश्ता है। ऐसे में विभिन्न टेलीविजन चैनल 12-12 घंटे लगातार शेयर बाजार का जो लाइव और गैर लाइव प्रसारण करके सनसनी पैदा कर रहे हैं वह या तो बेवकूफी है या सनसनी। वास्तव में मीडिया के इसी हल्ला और हड़कंप के चलते ही बड़े पैमाने पर पूंजी और शेयर बाजार के गैर जानकार भारतीय बैंको में रखे अपने धन को असुरक्षित मानने लगे हैं, नहीं तो आखिर ऐसी क्या वजह है कि उनके मन में यह आशंका पैदा हुई कि शेड्यूल बैंक में रखा हुआ पैसा भी असुरक्षित है। जबकि 1947 में भारत के आजाद होने के बाद से आज तक अपवाद के तौर पर भी किसी का पैसा सरकारी बैंक में नहीं डूबा। बावजूद इसके इस तरह की अफवाहें उड़ाई गयीं। वित्त मंत्री और रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के गवर्नर द्वारा बार-बार लोगों को यह आश्र्वासन दिया गया कि बैंको में उनका रखा पैसा सुरक्षित है, तब भी लोगों के मन में कई तरह की आशंकाएं बनती-बिगड़ती रहीं।

जहां तक पूंजी बाजार के अभूतपूर्व पतन की बात है तो यह कहना भी सरलीकरण होगा। इसमें कोई दो राय नहीं कि इस साल 10 जनवरी को सेंसेक्स 21,207 के अंक पर था और इन पंक्तियों के लिखे जाने के समय वह 11,300 अंक के आसपास मौजूद था। जिसका मतलब है कि महज 10 महीनों के भीतर बाजार 10,000 अंक तक गिर गया। यह अभूतपूर्व गिरावट है कि जब कुछ महीनों के भीतर ही 50 फीसदी के आसपास तक बाजार गिर जाय। अगर इसकी पूंजीकरण से तुलना करें तो निश्र्चित रूप से लगभग 1.5 लाख करोड़ रुपये की पूंजी स्वाहा हो गयी।

लेकिन जरा सोचिए कि जब बाजार 21,000 अंक के ऊपर था तो क्या वह वास्तविक बाजार था? क्या बाजार की वाकई क्षमता उतनी थी जहां तक बाजार उठ गया था? जवाब है, नहीं। जब बाजार 21,000 की सीमा पार कर गया था तो वह वास्तविक नहीं था। यह एक सट्टा बाजारी का ही नतीजा था। लेकिन क्या तब किसी ने यह सोचकर चिन्ता जतायी कि बाजार का यह उछाल अवास्तविक है इसलिए यह आगे चलकर परेशानी का सबब बन सकता है? क्या किसी ब्रोकर ने तब आत्महत्या की थी? आखिर लोग जब चमत्कारिक ढंग से आसमान चूमते शेयर बाजार से मुनाफा काट रहे थे, तब वह चिन्तित क्यों नहीं हुए कि यह कृत्रिम उछाल जब नीचे आयेगी तो संकट पैदा करेगी? आज हम जिस बड़े पैमाने पर बाजार में लगी पूंजी के स्वाहा हो जाने को लेकर चिंता जता रहे हैं, क्या तब हम इसी तरह अंधाधुंध बनी पूंजी को लेकर चिन्तित हुए थे?

नहीं। यही हमारे बाजार की और यही हमारे स्वभाव की सबसे बड़ी कमजोरी है। सच बात तो यह है कि बाजार का यूं बिना किसी लॉजिक के आसमान छूने की होड़ लगाना ही मौजूदा सुनामी की नींव थी। आज हम जिस पूंजी को स्वाहा मान रहे हैं, हमें नहीं भूलना चाहिए कि वह पूंजी ऐसे ही हवा में बनी थी। एक और बात पर ध्यान दें। हमारे पूंजी बाजार में कोई 40 अरब डॉलर का विदेशी निवेश हुआ है। इसमें 90 फीसदी से ज्यादा एफआईआई यानी विदेशी संस्थागत निवेशकों द्वारा किया गया निवेश है। एफआईआई ने पिछले साल भारत में 17.5 अरब डॉलर का निवेश किया। वास्तव में बाजार जब बिना किसी तर्क के आसमान छू रहा था, तब उसके पीछे यही विदेशी निवेशक थे। अब पिछले 10 महीनों में विदेशी संस्थागत निवेशकों ने लगभग 12.5 अरब डॉलर बाजार से निकाल लिया है। इस कारण जो बदहवासी पहले बाजार के उछाल के दौरान देखी गयी थी लगभग वैसी ही बदहवासी अब बाजार के पतन को लेकर भी देखी जा रही है। सारा खेल बस कुछ लोगों की बेहद निजी गतिविधियों का नतीजा है। फिर भी बाजार को जिस तरह से मीडिया ने पेश किया मानो वह कयामत के तूफान से गुजर रहा हो।

इसमें कोई दो राय नहीं कि इस समय पूरी दुनिया में वित्तीय संकट गहरा गया है। यह हकीकत है। इसको झुठलाया नहीं जा सकता। लेकिन इस हकीकत के साथ यह भी सच्चाई है कि भारत में वित्त और बैंकिंग व्यवस्था पर सरकारी पकड़ के कारण हम इस आर्थिक सुनामी से उतने प्रभावित नहीं हुए या होंगे जितने दुनिया के और देश प्रभावित होंगे। हमारी अर्थव्यवस्था की बुनियाद मजबूत है। विश्र्व बैंक और मुद्राकोष में इस तमाम संकट का आकलन करने के बाद भी अनुमान लगाया है कि भारत की सन 2008-09 में विकास दर 7.98 के ऊपर बनी रहेगी। जबकि कुछ दूसरे विशेषज्ञों का मानना है कि यह विकास दर 8.5 फीसदी के ऊपर भी जा सकती है। पूरे 20 सालों में पहली बार लगभग पूरे देश में शानदार मानसून रहा है जिससे रबी की फसल में 10 फीसदी से ज्यादा उत्पादन का अनुमान है। भारत में अभी अमेरिका की तरह 90 फीसदी उपभोक्ता कर्ज लेकर घी नहीं पी रहे, चाहे वजहें जो भी हों। हमारे बैंकों के पास पर्याप्त मात्रा में मौद्रिक तरलता मौजूद है। आरबीआई की सख्त नीतियों के कारण बैंकों का जोखिम निवेश भी बहुत मामूली है। जो विदेशी बैंक हिन्दुस्तान में मौजूद हैं उनमें भी उनकी हिस्सेदारी भारतीय बैंकों के मुकाबले कम है। इस कारण ये बैंक भारत की वित्तीय स्थिति को प्रभावित नहीं कर सकते।

इस सबके अलावा इस मंदी के चलते दुनिया भर में जिंसों और तेल (पेटोल) की कीमतों में कमी आई है जो अन्ततः भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए इसलिए फायदेमंद साबित होगी क्योंकि हमारा आयात खाते का सबसे बड़ा खर्च कच्चे तेल का ही है। इसलिए धीरज रखें, मंदी का यह तूफान गुजर जायेगा। शेयर बाजार को अगर वास्तविक देखने की उम्मीद करते हैं तो जब बाजार बिना किसी तर्क के आसमान छुए तब भी चिन्तित होना चाहिए। सिर्फ नुकसान में रोना और फायदे के समय किसी किस्म की परवाह न करना, यह बचपना है। इस बचपना को छोड़ें।

 

 

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संकट की घड़ी में क्या करे आम निवेशक

  • घबरायें नहीं, न ही अफवाहों पर ध्यान दें या अफवाह फैलाएं।
  • फिलहाल बिकवाली का दौर है इसलिए कोई भी सैद्घांतिक ाॉर्मूला सही नहीं उतरेगा। इसलिए जो भी निर्णय लें, सोच समझकर और खुद ही लें।
  • पैसा हो तो यह निवेश का अच्छा समय है पर जब कम से कम दो साल तक इन्तजार करने का माद्दा हो। क्योंकि बाजार के रिकवर होने में डेढ़ से दो साल तक का समय लग सकता है।
  • याद रखें, अगर बाजार में दांव लगाया है तो सिर्फ फायदा ही नहीं होगा नुकसान के लिए भी तैयार रहें।
  • अगर इस समय निवेश करें तो एक ही शेयर में पैसा लगाने की बजाय कई किस्म के शेयरों में पैसा लगाएं।
  • याद रखें, बाजार को लौटकर फिर से जरूर चमकना है।
  • उतार-चढ़ाव तो शेयर बाजार का मूल स्वभाव है।

 

– नरेन्द्र कुमार अरोड़ा

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