मैंने देखा, वह बूढ़ा मकान जो कभी किसी का घर हुआ करता था, किसी उजड़े हुए आदमी की तरह अपनी नींव पर सोच में डूबा हुआ, बैठा हुआ है। उसकी दीवारों पर घास उग आई थी। उसकी आंखें बंद थीं। अचानक उसने आंखें खोल कर मुझे देखा। मैंने उसकी आंखों में बीते हुए वक्त को लौटता हुआ देखा। सच, इस वक्त मुझे चाचा गालिब याद आ गए। वह कहते थे कि “मेहरबां होकर जब चाहो बुला लो मुझे/मैं गया वक्त नहीं जो आ भी ना सकूं।’ काश! मैं गालिब से पूछता कि गया वक्त जब यादों से भरी हुई आंखों में लौटता है, तब कौन मेहरबान होता है? अभी बूढ़ा मकान स्मृतियों के उजाले में खोया हुआ है।
मैं उससे उसके बीते हुए वक्त के बारे में और भी ज्यादा कुछ सुनना चाहता था। अचानक वह मुस्कुराया। मुझे लगा, हर बार कुछ बोलने से पहले मुस्कुराना उसकी आदत है। मुस्कुराते हुए वह बहुत अच्छा भी लगता था। बूढ़े मकान ने अपने अतीत के आंगन में खेली गई होलियां, मनाई गई दीवालियां और उस आंगन में गूंजी शहनाइयां अपनी स्मृति में देखीं और सुनीं थीं, मुझे भी दिखाई और सुनाई। उस मकान के फर्श पर अभी धूल फैली हुई थी। इस धूल पर गुजरी हुई ऋतुओं के निशान थे। एक तरफ सूना दरवाजा, जिसके आसपास लाभ-शुभ लिखे मंगल चिह्न और स्वस्तिक के चिह्न भी नजर आते थे। पीछे एक तुलसी का पौधा भी सूखा-सा पड़ा था।
मैं उस बूढ़े मकान के सुख-दुःख में शामिल हो चुका था। उसकी आत्मीयता और उसकी वीरानी मुझे भीतर तक सिहरा रही थी। अभी कुछ दिन पहले गांव के एक परिचित परिवार में मुझे जाने का प्रसंग आया था। उस सीधे सरल ग्रामीण और प्रेमी परिवार में कुछ दिन पहले बेटे का विवाह बड़े मन से हुआ था। सलोनी और सरल पुत्रवधू के कारण घर भर में उछाल आया। घर का वातावरण अच्छा लग रहा था, और सब लोगों में इतनी आत्मीयता थी कि मन हल्का होने लगा। नवविवाहित पुत्रवधू ग्रामीण परिवेश की और इतनी सुशील थी कि संध्या के समय उसकी उपस्थिति घर में ऐसी लग रही थी जैसे कोई दीया अपनी लौ से किसी मंदिर में रोशनी और पवित्रता भर रहा हो। उसकी सरलता, जीवंतता और सुंदरता ने सचमुच मेरे मन में किसी मंदिर से लौटने की पवित्रता भर दी थी। मैंने उस बूढे मकान को उस घर का किस्सा सुनाया तो बूढ़े मकान की आंखें छलछला उठीं।
उसके भीतर भी ऐसी सुंदरताएं वास करती थीं। वह बोला, “”घर का अनुभव बड़ा अकथनीय होता है। एक ही घर की अलग-अलग दीवारों का अनुभव भी एक जैसा नहीं होता। घर तो अभिन्न है, लेकिन दीवारों के अनुभव/ एक कमरे में शोकसभा है, एक कमरे में उत्सव।” मुझे लगा, मैंने उसकी कोई दुःखती हुई रग छेड़ दी है। स्त्री ही घर को घर बनाती है, उसके पहले तो घर, घर नहीं केवल मकान होता है। बूढ़े मकान के दरवाजे ने हमारी बातें सुनते हुए सहमति जताई और पहली बार वह हमारे बीच में बोला। उसने बताया कि जब मालिक कहीं बाहर जाते थे तो शाम ढलने तक मालकिन इसी चौखट पर बार-बार आती और उनका रास्ता तकती थीं, उस समय मालकिन का वह स्नेह ऐसी सुंदरता जगाता था और प्रतीक्षा का वह कुछ घ़डियों का मौसम इस देहरी के आसपास किसी जादुई मौसम की तरह ठहरा रहता था, जिसकी यवनिका उस प्रतीक्षा मूर्ति की आहट पर किसी सुखद उत्तेजना से सरसरा उठती थी। धीरे-धीरे इस घर के बच्चे बड़े होते गए। शहनाइयां बजीं, फिर आंगन में पालने टंगे। नये शिशुओं की किलकारियां गूंजीं। फिर वो बच्चे बड़े हुए और घर भरा-भरा रहने लगा। पर फिर घर के लोगों के बीच नयी-नयी दीवारें उठने लगीं। एक दिन ऐसा भी आया कि इस घर और घर के लोगों को देखने के बाद कहना पड़ता था कि “कमरे कम दीवारें ज्यादा हैं। धीरे-धीरे घर में एक चूल्हे के दो चूल्हे हो गये, दीवारें फिर भी बढ़ती रहीं। फिर धीरे-धीरे लोगों का बाहर जाना शुरु हुआ, जिस दिन इस आंगन से मालिक की अर्थी उठी, उस दिन से इस आंगन का कोई माली नहीं रहा। बच्चे परदेस में नौकरी-धंधा करने चले गए। अपनी पूरी विरासत का इतिहास खुद निगलता हुआ यह मकान अब पूरी तरह खाली पड़ा रहता है। बूढ़े मकान के अनुभवों की यह दास्तान पूरी होती, इसके पहले सुबह हो गई और मेरी नींद खुल गई। आज सुबह पता चला कि वह मकान अब बिक चुका है। उसे ध्वस्त करके वहां एक व्यापारिक कॉम्प्लेक्स बनने वाला है। मकान की कहानी तो उसके ध्वस्त होने से भी खत्म नहीं होती। उसकी नींव पर फिर नये काफिले बसने को चले आते हैं, फिर भी न जाने क्यों अब उस सड़क से गुजरता हूं तो उस मकान से नजर मिलाते हुए एक अजीब-सा भय लगता है। फिर किसी दिन उस बूढ़े मकान से फिर सपने में कोई मुलाकात हुई तो शायद आपको बताऊंगा, अभी तो बस इतना ही।
– डॉ. प्रदीप शर्मा “स्नेही’
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