प्राचीन समय की बात है। आपस्तम्ब नाम के एक महान संत-ऋषि थे। वे महान तपस्वी तथा उच्चकोटि के विद्वान थे। एक बार वे नर्मदा और मत्स्या नदी के संगम पर स्नान कर रहे थे। स्नान करते समय वे जल में ही समाधि लगाकर बैठ गए। कुछ समय पश्र्चात् वहां कुछ मछुआरे आए और मछलियां पकड़ने के लिये नदी में जाल फेंका, जाल वापस समेटते समय जाल काफी भारी लगा। जाल में कोई बहुत बड़ी मछली फंसी है, यह सोचकर वे जोर लगाकर जाल खींचने लगे।
जाल नदी से बाहर आने पर उन्होंने देखा कि जाल में मछलियों के साथ ही एक समाधिकालीन ऋषि भी फंसे हुए हैं। उन्होंने जल्दी से ऋषि से क्षमा मांगते हुए उन्हें जाल से मुक्त किया तथा प्रणाम किया। कुछ समय बाद ऋषि ने नेत्र खोले तथा भयभीत मछुआरों को देखा। ऋषि ने जाल में फंसी मछलियों को छटपटाते देखकर कहा – हे मछुआरों, ये मछलियां मनुष्यों का भोजन बनेंगी। इनको दुःख से मुक्त किये बिना मैं भी मुक्त नहीं होना चाहता। तुमने मुझे जाल से बाहर क्यों निकाला है?
मछुआरे अपने नगर के राजा नाभाग के पास गये तथा सारी बात उन्हें कह सुनाई। राजा मंत्रियों सहित तुरन्त ऋषि के पास पहुंचे। उन्होंने ऋषि को प्रणाम किया और विनम्र स्वर में कहा- हे मुनिश्रेष्ठ, मेरे लिए क्या आज्ञा है?
ऋषि आपस्तम्ब ने कहा, हे राजन, ये मछुआरे बड़े परिश्रम से धन कमाते हैं। इन्होंने अत्यंत परिश्रम के बाद मुझे जल से बाहर निकाला है। आप मेरा जो उचित मूल्य समझें, वह इन निर्धन मछुआरों को दे दें।
नाभाग ने कहा- हे प्रभु। मैं इन्हें आपके बदले एक लाख स्वर्ण मुद्राएं देता हूं। ऋषि ने कहा, राजन, आप मेरा मूल्य लगाने में समर्थ नहीं हैं। बुद्घिमान राजा कोई भी कार्य अपनी मंत्रियों से पूछे बगैर नहीं करता। अतः आप इनसे विचार करके ही मेरा मूल्य निर्धारित करें।
नाभाग बोले, हे ऋषिवर। मैं एक करोड़ स्वर्ण मुद्राएं देने का प्रस्ताव देता हूं। इतने धन से इन सभी निर्धन लोगों की निर्धनता सदैव के लिए समाप्त हो जाएगी।
ऋषि ने कहा- हे राजन, आपने अभी भी मेरा मूल्य सही नहीं आंका। आप ब्राह्मणों से विचार करके मेरा सही मूल्य बताएं और इन निर्धनों को दे दें।
राजा नाभाग बोले- हे स्वामी। मैं अपना संपूर्ण राज्य इन निर्धनों को देने को तैयार हूं। यदि आप इसे भी उचित नहीं समझते तो आप ही अपना मूल्य बताने की कृपा करें।
ऋषि ने कहा- हे राजन, आपका पूरा राज्य भी मेरा उचित मूल्य नहीं हो सकता। आप भली प्रकार सोच-विचार कर मेरा मूल्य निर्धारण करें।
ऋषि का वचन सुनकर राजा चिंता में पड़ गये। इसी समय महातपस्वी लोमेश ऋषि वहां आए। राजा की चिंता जानकर, उन्होंने कहा- हे राजन, आप चिंता न करें। मैं ऋषि को संतुष्ट कर लूंगा।
नाभाग बहुत घबरा गये थे। उन्होंने कहा- हे दयामय। आप शीघ्र ही यह समस्या सुलझायें।
ऋषि ने शांत स्वर में कहा- ऋषि जगत के लिए पूज्य है और गाय भी दिव्य और पूज्य मानी जाती है। अतः आप ऋषि को मूल्य के बदले गाय ही प्रदान करने का प्रस्ताव दें।
नाभाग ने मछुआरों को गाय प्रदान की तथा कहा- ऋषि राज आप प्रसन्न हों। आपका उचित मूल्य मछुआरों को प्रदान कर दिया गया है।
ऋषि प्रसन्न हो गये। उन्होंने कहा- राजन गायों से बढ़ कर पापनाशक प्राणी दूसरा कोई नहीं है। गाय की सेवा करने वाला बहुत बड़ा भाग्यशाली होता है। गाय माता की सेवा एवं ऋषि का मूल्य समान है। इतना कहकर राजा को आशीर्वाद देते हुए ऋषि किसी अन्य स्थान पर चल पड़े।
– डॉ. रामसिंह पुण्य
You must be logged in to post a comment Login