घनश्याम अग्रवाल की कविता

आ़जादी की वर्षगांठ मनाने की तैयारियॉं चल रही हैं। अब इसमें कितना जोर और कितना शोर है, यह नहीं कहा जा सकता। कुछ कार्यालयों में तिरंगे फहराए जाएँगे। कहीं लाउड स्पीकर से वतन की पुकार के गीतों का शोर होगा, तो कहीं भाषण होंगे, लेकिन सही अर्थों में आ़जादी की उपलब्धियों एवं देश की मौजूदा हालत पर सोचने का समय किसके पास होगा, यह निश्र्चित तौर पर कहा नहीं जा सकता। इतना जरूर है कि देश का कवि देश की स्थिति पर एक दिन की वर्षगांठ मनाने के बजाय अपनी सोच को देश के प्रति समर्पित किये हुए है। वह जो कुछ देख रहा है, उसे अभिव्यक्त करने में झिझक महसूस नहीं करता।

आइए, कवि घनश्याम अग्रवाल की कविताओं से रूबरू होते हुए, देश की स्थिति जानने की कोशिश करते हैं –

देश में भ्रष्टाचार दिन दूनी और रात चौगुनी उन्नति कर रहा है। ऐसे में कवि देखता है कि करोड़ों रुपयों की लागत से बनाये गये पुल बाढ़ में ढह जाते हैं। यहॉं मंत्री, ठेकेदार और इंजीनियर की करतूत को उजागर करने के लिए पुल ही नदी में कूद कर आत्महत्या कर लेता है। दूसरी ओर गॉंव का बांस से बना पुल बाढ़ में तटस्थ खड़ा रहता है। पुल की “ईमानदारी और मजबूती का रहस्य’ जैसी कविताएँ पढ़ते हुए, अनायास ही केरल राज्य के दो गांवों की वह कहानी याद आती है, जहॉं दो गॉंवों के बीच पुल बनाने के लिए अर्जियॉं दे-देकर थक चुके लोगों को सात साल बाद यह बताया गया कि पुल की लागत 10 करोड़ से अधिक है और सरकार के पास इस कार्य के लिए इतना बजट नहीं है। यह सुनने के बाद दोनों गांव की ग्रामपंचायतों ने एक-एक करके रुपया जमा किया और डेढ़ करोड़ रुपये में राज्य का सबसे मजबूत पुल अपने बलबूते पर बनाया।

कवि कहता है कि ईमानदारी की बातें केवल गप हैं और सिर्फ ईनाम लेने के लिए ही हो सकती हैं।

कल भारत में

एक गरीब को मिला

भरपेट भोजन उसकी बीमार पत्नी को

सरकारी अस्पताल में

सही दवा मिली उसके बच्चों ने भी

पानी के बदले दूध पिया इसके बदले

उसने चोरी नहीं की

रिश्र्वत नहीं दी

और तो और किसी पुलिस वाले ने भी

उसे नहीं सताया

यह कह कर मैंने

गप्प प्रतियोगिता में

पहला ईनाम पाया

आ़जादी के इन 60 वर्षों में देश के नेता की स्थिति क्या से क्या हो गयी है, इसका घनश्याम अग्रवाल अपनी एक पैराडी “एक नेता को देखा तो ऐसा लगा’ में टाडा की जेल, गुंडों के राजा दाउद के जाल, मेमन की चाल, कुर्सी की टांग, चमचों के जोर, संसद के शोर, डॉलर की भीख, जनता की चीख, लालू की भैंस, डूबता हुआ देश जैसे सभी विषय इन नेताओं को समर्पित करते हैं। वहीं दूसरी ओर बड़े आदमी की संपन्नता गरीब के लिए किस तरह अभिशाप बन जाती है, इसका उल्लेख करते हुए कवि कहता है-

बड़े घरों के लोग बदन पर ाीम लगाकर, अगर बत्ती सुलगा कर या टिकिया लगा कर जिन मच्छरों को अपने घर से भगाते हैं, वहीं मच्छर उन छोटे घरों में घुस जाते हैं, जहां-जहां लोगों के पास यह सब खरीदने के लिए पैसा नहीं है।… और कवि उन झोपड़ी में रहने वाले बच्चों को याद करता हुआ, कहता है ….

रास भी नहीं मना सकते।

छोटे-छोटे मेरे ग्वाले

जिनके मुख पर पड़े हैं ताले

रोटी खातिर कहलाते हैं

चोर, उचक्के, लुच्चे साले

जीवन से टूटा है नाता, ये भारत के भाग्य विधाता

पुस्तक पारी छोड़ के पढ़ते, सड़कों का इतिहास रे

मैं कैसे खेलूँ रास रे…

इस गीत का एक और बंद देश के गरीब आदमी की कहानी

कुछ यूँ सुनाता है…

भूखे बाबा, भूखी मैया

कैसे नाचूँ-ता-ता थैया

लौटे नहीं, गये हैं जबसे

राशन लेने दाऊ भैया

भीड़ लगी है अच्छी-खासी क्यू में लगे सभी ब्रजवासी

नहीं मिला राशन तो फिर, सामूहिक उपवास रे

मैं कैसे खोलूं रास दे…

प्रौढ़-शिक्षा के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च करने वाली सरकार के एक मंत्री को जब यह बताया जाता है कि बच्चों को ही सही शिक्षा उपलब्ध नहीं है और सरकार प्रौढ़-शिक्षा के नाम पर इतना रुपया क्यों खर्च कर रही है, तो मंत्री का यह तर्क कोरा व्यंग्य नहीं लगता, बल्कि वास्तविक स्थिति को खूब दर्शाता है-

प्रौढ़-शिक्षा का कार्याम

सफलतापूर्वक चलाने के लिए

कुछ बच्चों का

अशिक्षित रह जाना

बहुत जरूरी है

कर्फ्यू का मऩ्जर, दंगों के खिलाफ उठे नन्हें-नन्हें हाथ, बयान, फैसला, अल्पसंख्यक जैसी कविताओं में कवि घनश्याम अग्रवाल धर्म और संप्रदाय के नाम पर राष्ट में विभाजन की राजनीति करने वालों के खिलाफ तटस्थ खड़ेे नजर आते हैं और उनकी कविताएँ बताती हैं कि किस तरह राजनीतिज्ञ अपना उल्लू सीधा करने के लिए दंगे फैला रहे हैं। हिन्दू, मुसलमान के मुहल्ले में और मुसलमान, हिन्दुओं के मुहल्ले में किस तरह पिटा?यह कोई नहीं समझने की कोशिश कर रहा है कि असल में दोनों ही जगह एक-एक हिन्दुस्तानी ही पिटा है।

जब-जब उसने

खुद को हिन्दुस्तानी कहा

तब-तब दंगे होने पर

हिन्दू मुहल्ले और मुस्लिम मुहल्ले

दोनों ही जगह उसकी पिटाई हुई

उसका जिस्म लहूलुहान है

उसके होंठों पर ये बयान है

लड़े चाहे कोई भी मगर

मरता सिर्फ हिन्दुस्तान है।

– एफ.एम.सलीम

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