चतुर्भुज का संकेत

गणपति जलतत्व के अधिपति हैं। जल के चार गुण होते हैं- शब्द, स्पर्श, रूप तथा रस। सृष्टि चार प्रकार की होती है- स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज तथा जरायुज। जीवकोटि के पुरुषार्थ चार होते हैं- धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष।

चतुर्विधं जगत्सर्वं ब्रह्म तत्र तदात्मकम्।

हस्थश्चत्वार एवं ते….।।

स्वर्गेषु देवताश्चायं पृथ्व्यां नरांस्त:तले।

असुरान्नागमुख्यांश्च स्थापयिष्यति बालकः।।

…… तस्मान्नाम्ना चतुर्भुजः।।

जगच्चालक गणेश ने देवता, मानव, नाग तथा असुर- इन चारों को स्वर्ग, पृथ्वी तथा पाताल में स्थापित किया, इसका संकेत “चतुर्भुज’ देते हैं।

गीता के अनुसार भगवान् के भक्त चार प्रकार के होते हैं-

“आर्तो “जिज्ञासुरथार्थी ज्ञानी चा।।’

(7 । 16)

भगवप्राप्ति के भी चार तरह के साधन “परमगुह्यरूप’ में गीता में प्रतिपादित हैं-

“मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरू।’

(गीता 18 । 65)

“मन से भगवच्चिन्तन करते हुए मन को भगवन्तमय बनाना, भगवान् में भक्ति रखना, भगवान् की अर्चना करना, भगवान् को नमस्कार करना।’ ऐसा करने से क्या फल होता है?

“मामेवैष्यसि सत्यं…।।’

“वह मुझे ही प्राप्त होता है।’

उक्त चार प्रकार के साधनों का भी संकेत चार भुजाओं से मिलता है। इस तरह विनायक के चार हाथ चतुर्विध सृष्टि, चतुर्विध पुरुषार्थ, चतुर्विध भक्त तथा चतुर्विध परम उपासना का संकेत करते हैं।

गणेशजी के आयुध

साधारणतया गणेशजी के चार आयुध होते हैं-

पाश

अंकुश

वरदहस्थ

अभयहस्त

कहा जाता है कि पाश राग का तथा अंकुश ाोध का संकेत है अथवा यह भी समझ सकते हैं कि श्री गणेश पाश द्वारा भक्तों के पाप-समूहों तथा संपूर्ण प्रारब्ध का आकर्षण करके अंकुश से उनका नाश कर देते हैं। उनका वरदहस्त भक्तों की कामनापूर्ति का तथा अभयहस्त सम्पूर्ण भयों से रक्षा का सूचक है।

वातुण्ड

समस्त प्राणियों को भ्रांति में डालने वाली भगवान की माया वा अर्थात् दुस्तर है। उस माया का अपने तुण्ड से हनन करने के कारण श्री गणेशजी “वातुण्ड’ कहलाते हैं।

माया भ्रान्तिकरी जन्तोर्वाा संकथिता मुने।

तुण्डेन तां निहन्तीह तेनायं वातुण्डकः।।

गीता में भी कहा गया है कि भगवान की माया दुस्तर है। इसलिए जो भगवान् की शरण ग्रहण करते हैं, वे ही उस माया को पार कर पाते हैं।

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।

भगवान् ही समस्त भूतों को माया द्वारा भ्रमण कराते हैं-

“भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।’

(गीता 18 । 61)

इस दुस्तर माया से छुटकारा पाने की इच्छा वाले शरणापन्न भक्तों को माया से छुटकारा देकर परमपद देने से ही वे भगवान् “वातुण्ड’ कहलाते हैं। इस प्रकार देखें तो वातुण्ड को श्रीकृष्ण समझने में कोई बाधा नहीं है।

गणेशजी का स्वरूप “वा’ अर्थात दुर्ज्ञेय है। विघ्न वा सुख प्राप्ति निरोध द्वारा कष्ट के कारण होते हैं। इन वा रूप विघ्नों का अधिपति होने के कारण वे भगवान् वातुण्ड “विघ्नेश’ कहलाते हैं।

“कण्ठाधो मायया युक्तं मस्तकं ब्रह्मवाचकम्।

वााख्यं येन विघ्नेशस्तेनायं वातुण्डकः।।

भगवत्स्वरूप की दुर्ज्ञेयता की सूचना गीता में भी देख सकते हैं-

नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः।

मूढोऽयं नाभिजानाति….।।

“अवजानन्ति मां मूढा….।’

जो भगवान् का भजन नहीं करता, उसे निराश होना, अपने कर्म का वांछित फल न पाना आदि विघ्न प्राप्त होते हैं। वे ही “विघ्न’ पद से सूचित हैं।

“मोघाशा मोघकर्माणो….।’

(गीता 9 । 12)

इन वारूप विघ्नों का निवारण करके भक्तों को भोग-मोक्ष प्रदान करने के कारण ये “वातुण्ड’ कहलाते हैं, जिसकी सूचना गीता में भी “अनन्याश्चिन्तयन्तो… योगक्षेमं वहाम्यम्’ (9 । 22) आदि वाक्यों द्वारा मिलती है।

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