चराचर की हर रचना का अपना धर्म

भारतीय जीवन का वैदिक सिद्घान्त बहुत गहरा है। भारत में पीढ़ी दर पीढ़ी यह मान्यता चली आ रही है। भारतीयों का जीवन दैवी-शक्तियों में जागता है, वैदिकता में जागता है। जब जीवन वैदिकी में रहता है, तो सब कुछ सुचारू रहता है। सारे चराचर के प्राणी-मनुष्य, पशु-पक्षी, जीव-जन्तु, पेड़-पौधे सबका प्रकृतिजन्य अपना-अपना धर्म है, जो प्रकृति के नियमों से संचालित होता है, जिस पेड़-पौधे, वृक्ष का जो धर्म है, वह वैसा ही विकसित होगा और वैसे ही फल देगा। क्या आम के बीज से सेब उगाये जा सकते हैं। बीज का अपना गुण होता है। प्राकृतिक रूप में बीज की जो संरचना, जो गुण उसमें होंगे, वह पेड़, पत्ती, फल, फूल बनकर वैसा ही विकसित होगा। प्रकृति प्रदत्त इस विधान में जब भी छेड़छाड़ होगी तो गड़बड़ होगी।

ऐसे ही मनुष्य का धर्म है। जैसी उसकी चेतना होगी, जैसे उसमें संस्कार होंगे, वैसी ही उसकी िाया होगी और वैसे ही वह विकसित होगा। मनुष्य को प्रकृति-संरचना में जो अंग मिले हैं, जो इन्द्रिय गुण मिले हैं, वे तो स्वाभाविक रूप में वैसे ही संचालित होंगे, वही िाया, वही कार्य करेंगे, जिसके लिए वो बने हैं। क्या आँख से सुनने का, मुख से देखने का, कान से खाने का कार्य हो सकता है? मुख का धर्म बोलना, खाना है, कान का धर्म सुनना और आँख का गुण देखना है और यह धर्म, यह गुण मनुष्य ने नहीं बनाया है, किसी व्यक्ति ने नहीं बनाया है, यह तो प्रकृति प्रदत्त है। प्राकृतिक नियमों, सृष्टि की संचालक ब्राह्मी शक्ति से यह धर्म संचालित होता है और समस्त चराचर का प्रत्येक क्षेत्र, प्रत्येक वस्तु, प्रत्येक प्राणी इस धर्म का पालनकर्ता है। जब भी मनुष्य के कलुषित विचारों व बुद्घि से इनका पालन नहीं होता है, अर्थात् प्राकृतिक नियमों के अनुसार धर्म का पालन नहीं होता है तो समस्याएँ पैदा होती हैं। जब भी, जो भी अपने धर्म से विमुख होता है तो प्रकृति वैषम्यता बढ़ती है। इस प्रकृति वैषम्यता के कारण ही समस्याएँ बढ़ती हैं। प्रकृति वैषम्यता में मनुष्य की प्रवृत्ति में नकारात्मकता बढ़ती है और जब यह नकारात्मकता किसी क्षेत्र में सामूहिक रूप में बढ़ जाती है तो पूरे के पूरे वातावरण में समस्याएँ ही समस्याएँ उत्पन्न होती रहती हैं। इसलिए अपने यहां यह भी परम्परा रही है कि सारी प्रजा को प्रशासित करने, संचालित करने वाले राजा का धर्मपालक होना परम आवश्यक है। राजा या प्रशासक की चेतना का धर्म में, प्राकृतिक नियमों की पोषक ब्राह्मी शक्ति में जागृत रहना आवश्यक है, जो भारत के ज्ञानी मनीषी लोग, गुरुजन वैदिक दिनचर्या में ध्यान, योग, वैदिक अनुष्ठान, यज्ञ, हवन, जाप, वेद-पाठ, ज्योतिष के अनुसार ग्रहशांति, वास्तुशांति, त्रिकाल संध्या वंदन, प्रतिदिन विभिन्न देवी-देवताओं की शक्ति जागरण के पूजा, पाठ, आराधना और तमाम विधान बताते आये हैं, उन पर नित्य चलकर भारतीयों का जीवन सुचारु चलता रहा है। मनुष्य का धर्म है कि वह प्रकृति साम्यता बनाये रखने वाले उन सिद्घान्तों और विधानों को नित्य रूप में कायम रखे, जो समस्त मानव समुदाय, समस्त प्राणी जगत की स्थायी सुख, शांति और समृद्घि के आधार हैं और भारत के गांव-गांव का बच्चा-बूढ़ा प्राकृतिक संतुलन और उस पर आधारित विकास के सिद्घान्तों एवं विधानों को स्वाभाविक रूप में जानता है।

प्राकृतिक नियमों के पोषक वैदिक धर्म पर चलकर व्यक्ति की चेतना में निर्मलता, सात्विकता का वह भाव जागृत रहता है, जिसमें कोई भी कार्य सर्वकल्याणकारी रूप में निष्पादित होता है। यहां कुछ समय से भारत के प्रशासकों और जनता के पश्र्चिमी सिद्घान्तों पर चलने से मुसीबतें बढ़ी हैं। भारतीय लोग वेद-विज्ञान के अपने बड़े-बड़े सिद्घान्तों को छोड़कर पश्र्चिम के छोटे-छोटे सिद्घान्तों में विकसित राष्ट बनने के सपने देख रहे हैं। यह सोचो कि यह क्यों हो रहा है। अपने वैदिक ज्ञान-विज्ञान के कारण हो रहा है। अपनी इन दैवी-शक्तियों को जगाने के विधानों का ज्ञाता होने के कारण भारत तो हमेशा से ही विकसित राष्ट रहा है, जो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में स्थायी सुख, शांति और समृद्घि की कारक हैं। धर्म से विमुख होकर नहीं, धर्म-परायण रह कर जीवन में विकास होता है। भारतीय लोक-जीवन में रची-बसी धर्म की यह वैज्ञानिक परिभाषा और आस्था ही उसे सारे विश्र्व में श्रेष्ठ सिद्घ करती है।

 

– महर्षि महेश योगी

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