चैनल वाले क्या दिखा दें और कब उसे वापस हटा लें, इसका अक्सर सरकार को पता ही नहीं चल पाता। इतने चैनल हो गए हैं कि सब पर एक साथ नजर रख पाना भी मुश्किल है। चुनाव का मौसम आ रहा है, लिहाजा यूपी सरकार का सूचना विभाग कुछ नई तैयारियों में जुटा है। एक ऐसा हाईटेक चैनल मॉनीटर सीन लगने वाला है, जिस पर 32 टीवी चैनल एक साथ देखे जा सकेंगे। इसमें एक खास किस्म का सॉफ्टवेयर भी लगेगा, जिसमें हर चैनल की रिकॉर्डिंग दो माह तक देखी जा सकेगी। इसके अलावा ऐसे अत्याधुनिक होर्डिंग लगाए जाएंगे जिन पर लिखी सरकार की उपलब्धियों वाले संदेश दिन में कई बार बदलते रहेंगे। मसलन, स्कूल-कॉलेज टाइम पर यूथ को प्रभावित करने वाले संदेश तो दफ्तर के वक्त बाकी संदेश। ये सारे काम करने के लिए दिल्ली, मुंबई व बंगलुरु की कुछ बड़ी विज्ञापन एजेन्सियों से सम्पर्क साधा जा रहा है।
चुनावी बुखार
चुनाव का मौसम आया नहीं कि जामा मस्जिद के इमाम अहमद बुखारी फिर से मैदान में आ गए हैं। मौका था अहमदाबाद विस्फोटों के सिलसिले में पकड़े गए अबुल बशर के घर वालों को सांत्वना देने आजमगढ़ पहुँचने का। इसके पहले भी बुखारी साहब चुनावी मौसम देख कर मैदान में कूदते रहे हैं। पिछले विधानसभा चुनावों के पहले उन्होंने एक पार्टी बनाई थी। पहले तो उनकी पार्टी टुकड़ों में बंटी फिर “सबसे बड़ा मुस्लिम नेता कौन’ की जोर आजमाइश में बुखारी साहब मात खा गए। उनसे अलग होकर हाजी याकूब कुरैशी मेरठ से विधानसभा पहुँच गए लेकिन बुखारी के सभी प्रत्याशी हार गए। अब अहमद बुखारी एक बार फिर सियासी दांव आजमाना चाहते हैं। उत्तर प्रदेश उन्हें कितना खुश करता है, यह तो समय बताएगा, क्योंकि पिछले अनुभव बुखारी के लिए अच्छे नहीं रहे हैं, लेकिन यह सियासत है जहॉं उठना-गिरना तो लगा ही रहता है।
कांग्रेसी चेयरमैन
शायद कांग्रेस का अपने प्यारे विधायक विवेक सिंह से मन भर गया है। तभी तो उन्हें यूपी कांग्रेस के मीडिया विभाग का चेयरमैन बनाया गया है। इस कुर्सी में न जाने ऐसा क्या जादू है कि जो इस कुर्सी के करीब आया, वह बस “गया’ ही समझो। पिछले करीब डेढ़ दशक से पता नहीं ऐसा क्यों हो रहा है कि जो भी मीडिया चेयरमैन बनता है, उसे पार्टी छोड़नी पड़ती है। कभी मन से तो कभी बेमन से। यकीन न हो तो मीडिया चेयरमैनों की फेहरिस्त पर गौर फरमाइए। विद्वान डॉ. रमेश दीक्षित कांग्रेस मीडिया चेयरमैन बने, लेकिन अब राष्टवादी कांग्रेस पार्टी में हैं। फिर शतरुद्र प्रकाश चेयरमैन बने तो वह सपा में चले गए। डीपी बोरा, सिराज मेहंदी और फिर अशोक वाजपेयी बसपा में शामिल हो गए। आखिर में गुड्डू पाण्डे उर्फ राजेश पाण्डे मीडिया चेयरमैन बने तो वह वापस भाजपा में चले गए। इस सिलसिले में एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि प्रदेश अध्यक्ष कोई भी हो वह इस कुर्सी पर कभी किसी मूल कांग्रेसी को नहीं बिठाता। प्रतिबद्घ कांग्रेसी 10 जनपथ के लिए चाहे कितनी एड़ियां रगड़ते रहें, पर यह कुर्सी केवल आयाराम-गयाराम जैसे महारथियों के लिए ही आरक्षित रही है। अब प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष ने विवेक सिंह को नया मीडिया चेयरमैन बनाया है। वह भले आदमी हैं, लेकिन परंपरा बनी रही तो उनका भी ठिकाना बदल ही सकता है।
ठौर की तलाश
विधान परिषद के सदस्य हैं राजकुमार अग्रवाल। ये नरेश अग्रवाल के करीबी हैं। नरेश भाई ने सपा छोड़ बसपा का दामन थामा तो राजकुमार जी भी उनके साथ हो लिए। यहॉं तक तो ठीक था। मुश्किल विधानमंडल के हाल में हुए सत्र में पैदा हो गई। राजकुमार पाला बदल चुके हैं, लेकिन सदन में बैठने की व्यवस्था तय नहीं हो पाई। लिहाजा पॉंच दिन के सत्र में हर दिन आए लेकिन सदन में बैठ न सके। लॉबी में ही पूरा वक्त गुजारा और कभी-कभी सदन के अंदर तांक-झांक कर दिल को तसल्ली दे ली। अगला सत्र जब होगा तब होगा, लेकिन राजकुमार जी को तो उसके लिए इंतजार ही करना पड़ेगा। वैसे भी बसपा में शामिल ़जरूर हो गए हैं लेकिन कल्चर बदल नहीं पाए हैं। लॉबी में जितनी देर बैठते थे उतनी देर सपा के सदस्यों के साथ ही बातचीत करते थे। नए घर यानी बसपा वालों के न ही वे करीब गए और न ही बसपा वाले उनके पास पहुँचे। देखें, कब तक हालात बदलते हैं।
फार्मूले बिहारी बाबू के
लखनऊ लोकसभा सीट से चुनाव लड़ने के लिए यूपी से ताल्लुक रखने वाले भारतीय जनता पार्टी के नेताओं का आपसी दांव-पेंच खूब गुल खिला रहा है। नेतृत्व की मुसीबत यह है कि वह इनमें से किसी एक को भी प्रत्याशी बना दें तो बाकी खफा हो जाएंगे और नुकसान होगा पार्टी को। अटल बिहारी वाजपेयी के प्रतिनिधित्व वाली इस सीट पर नेतृत्व कोई खतरा मोल लेना नहीं चाहता। ऐसे में यूपी वालों की लड़ाई रोकने के लिए बाहर वालों को प्रत्याशी बना देने के विकल्प पर विचार शुरू हो गया है। इसमें सबसे प्रमुख नाम बिहारी बाबू यानी शत्रुघ्न सिन्हा का है। नेतृत्व का मानना है कि लखनऊ सीट के जातीय समीकरणों के मद्देनजर वे अच्छे प्रत्याशी होंगे, लेकिन यह योजना शुरू होने से पहले ही फेल होती नजर आ रही है, क्योंकि बिहारी बाबू पटना से चुनाव लड़ने की तैयारी किए बैठे हैं और वहॉं अपनी जीत की उम्मीद ज्यादा देख रहे हैं। अब देखें अंततः ये पटना और लखनऊ में किसे पसंद करते हैं।
बाबूजी समझो इशारे
घोड़ीबछेड़ा कांड क्या हुआ, सीपीआई वालों की तो मौज हो गई। किसानों पर चली पुलिसिया गोलियों के बाद सीपीआई का राज्य प्रतिनिधिमंडल केन्द्रीय नेतृत्व के निर्देश पर मौके की जॉंच करने पहुँचा। प्रतिनिधिमंडल के सदस्य यह देख कर हैरान रह गए कि उनके लिए प्रशासन पलक-पांवड़े बिछाए हुए था। उन्हें गाड़ियों में घोड़ीबछेड़ा पहुँचाया गया, जबकि बाकी दलों के नेताओं को गांव की सीमा से काफी पहले ही गिरफ्तार किया गया था। गांव वालों से मिल लेने के बाद ही सीपीआई वालों की औपचारिक गिरफ्तारी हुई। फिर उन्हें गेस्टहाउस के ए.सी. कमरों में रखा गया। चाय-शर्बत पिलाई गई। दोपहर का भोजन भी कराया गया। शाम को दोबारा चाय पिलाकर उन्हें विदा किया गया। सीपीआई वाले जब अचंभित दिखे तब प्रशासन वालों ने उन्हें इशारे से समझाया कि वे तो खास मेहमान हैं। सीपीआई वाले इससे पहले मुलायम सिंह यादव के भी करीबी थे, लेकिन मौज सिर्फ सीपीएम वालों ने काटी थी। सीपीआई तब सरकार के खिलाफ बोल-बोलकर घाटे में थी। लगता है इस बार उसकी भरपाई हो जाएगी।
– डॉ. दुर्गाप्रसाद शुक्ल “आ़जाद’
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