छात्रों को मिले मूल्यांकन का अधिकार

विश्र्वविद्यालय अनुदान आयोग की वेतन समीक्षा समिति ने सुझाव दिया है कि विश्र्वविद्यालय के छात्रों को अपने अध्यापकों के मूल्यांकन का अधिकार होना चाहिए। इस प्रस्ताव के पीछे विचार यह है कि शिक्षा व्यवस्था में आखिर कुछ तो जवाबदेही का एहसास हो। लेकिन इस प्रस्ताव के आते ही अच्छा-खासा विवाद खड़ा हो गया है। कुछ का कहना है कि यह सही समय पर पेश किया गया सही प्रस्ताव है। लेकिन कुछ का कहना है कि अपना देश अभी ऐसी व्यवस्था के लिए तैयार नहीं है। आखिर सही बात क्या है?

वेतन समीक्षा समिति ने जो सुझाव दिया है, वह बहुआयामी मूल्यांकन प्रिाया है। अगर यह सुझाव स्वीकार हो जाता है, तो विश्र्वविद्यालयों और कॉलेजों के अध्यापकों का मूल्यांकन कई स्तर पर होने लगेगा। अध्यापक स्वयं अपनी मूल्यांकन रिपोर्ट प्रेषित करेंगे। उनके सहयोगी मूल्यांकन रिपोर्ट पेश करेंगे और एक मूल्यांकन रिपोर्ट छात्रों की तरफ से आएगी। इन मूल्यांकन रिपोर्टों के आधार पर संबंधित अध्यापक को पदोन्नति, वेतनवृद्घि व अन्य लाभ दिए या रोके जाएंगे। सुनने में यह बहुत अच्छा विचार प्रतीत होता है, लेकिन क्या यह व्यावहारिक है?

अनेक सर्वेक्षणों से यह साबित हो चुका है कि ग्रामीण व शहरी अंचलों में अधिकतर स्कूलों की स्थिति दयनीय है। उच्च शिक्षा की भी यही स्थिति है। शैक्षिक इंफ्रास्टक्चर की ़जबरदस्त कमी है। स्कूलों, कॉलेजों व विश्र्वविद्यालयों की संख्या, जनसंख्या के हिसाब से पर्याप्त नहीं है। जो शिक्षा संस्थान मौजूद हैं उनमें भी कार्यबल की बेहद कमी है। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न स्वाभाविक हो जाता है कि जब अच्छी प्राइमरी स्तर की शिक्षा मौजूद नहीं है जो कॉलेज शिक्षा में भी प्रतिबिंबित होती है, तो अधकचरे छात्र शिक्षकों का सही मूल्यांकन कैसे कर पाएंगे?

साथ ही इस तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि हमारे विश्र्वविद्यालयों में अस्वस्थ राजनीति की भरमार है, चाहे वह साम्प्रदायिक संकीर्ण या जातिवादी किस्म की हो। अध्यापक उन छात्रों का फेवर करते हैं जो उनकी चापलूसी में लगे रहते हैं और उनका विरोध करते हैं जिनसे वह खुश नहीं रहते। ऐसी स्थिति में इस बात की क्या गारंटी होगी कि अध्यापकों का मूल्यांकन सही व निष्पक्ष होगा?

लेकिन यह तस्वीर का एक ही रुख है। सबसे पहली बात तो यह है कि अनेक विकसित देशों में छात्रों को यह अधिकार प्राप्त है कि वे अपने अध्यापकों का मूल्यांकन करें। इससे वहां शिक्षा स्तर को बेहतर करने में मदद मिली है। गौरतलब है कि आईआईटी और कुछ निजी शिक्षा संस्थानों में पहले से ही छात्रों के पास अध्यापकों के मूल्यांकन का अधिकार है। और आप सभी जानते हैं कि अपने यहां की आईआईटी और निजी शिक्षा संस्थानों में शिक्षा का स्तर वास्तव में अच्छा है। जब यह प्रयोग विकसित देशों, अपने यहां की आईआईटी व निजी शिक्षा संस्थानों में सफल रहा है, तो फिर इसे दूसरे सरकारी व गैर-सरकारी कॉलेजों व विश्र्वविद्यालयों में लागू न करने का औचित्य समझ से बाहर है।

यह अनुमान कि पर्याप्त शैक्षिक इंफ्रास्टाक्चर के कारण अभी हमारा देश छात्रों द्वारा अध्यापकों का मूल्यांकन करने के लिए तैयार नहीं हैं, गौण ही प्रतीत होता है। यह अनुमान वैसा ही बेबुनियाद है, जैसे कोई सफर पर इसलिए न निकले कि सड़कों पर दुर्घटनाएं हो जाती हैं और जब तक दुर्घटनाओं पर विराम न लगे तब तक सफर न किया जाए। बात सिर्फ इतनी-सी है कि इंफ्रास्टाक्चर का भी विकास हो और साथ ही शिक्षकों को भी जवाबदेह बनाया जाए ताकि शिक्षा स्तर में सुधार आए।

ऐसी कहानियां कल्पना की उड़ान नहीं हैं कि विश्र्वविद्यालयों में अक्सर अध्यापक अनुपस्थित रहते हैं और पाठ्याम को पूरा नहीं करते। इस स्थिति पर रोकथाम तभी संभव है जब अध्यापकों को जवाबदेह बनाने का कोई सिलसिला हो। यहां यह बताना भी आवश्यक है कि कोई अध्यापक सही पढ़ा रहा है या नहीं, इस बात को छात्रों से बेहतर कोई नहीं जानता। आखिर जो छात्र स्नातक या प्रोफेशनल डिग्री हासिल करने की कोशिश कर रहा है, वह उम्र और समझ से इतना परिपक्व तो होता ही है कि इस बात का मूल्यांकन कर सके कि अध्यापक सही शिक्षा दे रहा है या नहीं। इसलिए यह कहना गलत न होगा कि विश्र्वविद्यालय अनुदान आयोग की वेतन समीक्षा समिति ने जो प्रस्ताव रखा है, वह सही दिशा में सही कदम है और उसे स्वीकार कर लेना चाहिए। ध्यान रहे कि संसार के श्रेष्ठ विश्र्वविद्यालयों ने अध्यापकों के परफॉर्मेंस को मापने के लिए छात्रों के फीडबैक को आवश्यक स्रोत के रूप में स्वीकार कर रखा है।

बहरहाल, इस सुझाव का एक महत्वपूर्ण हिस्सा यह है कि छात्रों द्वारा अध्यापक की मूल्यांकन रिपोर्ट को गुप्त रखा जाएगा, यानी यह किसी भी सूरत में नहीं बताया जाएगा कि किस छात्र ने किस किस्म की राय अपने अध्यापक के बारे में पेश की है। यह जरूरी भी है। अगर अध्यापक को यह मालूम हो जाए कि फलां छात्र ने उसके बारे में नकारात्मक राय दी है तो वह अपना गुस्सा उस पर निकालेगा या फिर अच्छी रिपोर्ट की जानकारी मिलने पर छात्र को अनुचित सहयोग देगा। इसलिए मूल्यांकन रिपोर्ट का गुप्त रखा जाना ही अच्छी बात है।

इसमें शक नहीं है कि अध्यापक ़जरा-सा भी नियंत्रण छात्रों के हाथ में नहीं देना चाहते और इसलिए आयोग के सुझाव का विरोध कर रहे हैं। लेकिन तथ्य यह है कि जब एक बार मूल्यांकन व्यवस्था लागू हो जाएगी तो अध्यापक न सिर्फ जवाबदेह हो जाएंगे बल्कि छात्रों से सकारात्मक फीडबैक हासिल करने के लिए अपनी तरफ से कड़ी मेहनत करेंगे और अपनी मर्जी से क्लास लेने की बजाय कॉलेज या विश्र्वविद्यालय में नियमित उपस्थित रहेंगे।

कॉलेज या उससे ऊपर की शिक्षा में स्कूलों की तरह तालीम नहीं दी जाती। वहां सीखने की प्रिाया एकतरफा भाषण नहीं बल्कि छात्र और अध्यापक के बीच डायलॉग है। इसलिए जरूरी है कि जहां छात्र अपनी समस्याओं को रखें वहीं अध्यापक उनकी समस्याओं को सुलझाने का प्रयास करे। यह डायलॉग से ही संभव है। और डायलॉग अध्यापक के उपस्थित रहने से ही हो सकता है। और वह उपस्थित जवाबदेह होने पर ही होगा।

इस दृष्टिकोण से देखा जाए तो शिक्षा व्यवस्था को सुधारने के लिए आयोग ने जो सुझाव रखा है वह जबरदस्त अवसर है जिसे गंवाना नहीं चाहिए। कुल मिलाकर जब छात्रों को भी शिक्षकों के मूल्यांकन का अधिकार होगा, तो शिक्षा में सुधार ही संभव है। इसलिए आयोग के प्रस्ताव का जो लोग विरोध कर रहे हैं, उनकी मुखालफत को अनदेखा कर देना चाहिए और इस सुझाव को फौरन से पेश्तर लागू कर देना चाहिए।

 

– शाहिद ए. चौधरी

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