ज्येष्ठ मास की तपती गर्मी के बाद आंखें आसमान की ओर निहारने लगती हैं। प्रकृति प्यास से व्याकुल हो जाती है तभी आती है- ऋतुओं की रानी वर्षा। अपने साथ काले मेघों की विशाल सेना लिए हुए। भारत में भौगोलिक दृष्टि व मानसून के हिसाब से बरसात के चार महीने माने जाते हैं, परन्तु इन चार महीनों में आरंभ के दो मास जुलाई-अगस्त बड़े ही महत्वपूर्ण होते हैं। सितम्बर-अक्टूबर में वर्षा अपेक्षाकृत कम होती है। वर्षा ऋतु आने पर मानव ही नहीं, प्रकृति भी खुशी से झूम उठती है। क्योंकि मेघों के पानी से धरती को नया जीवन मिलता है। वर्षा के जल में नया जीवन पैदा करने की शक्ति होती है। इसीलिए फलों की दबी हुई गुठलियां भी पौधा बनकर फूट पड़ती हैं।
भारत जैसे देश के लिए वर्षा किसी वरदान से कम नहीं है। भारत में जहां 70 प्रतिशत लोग कृषि करते हैं, वहीं 40 प्रतिशत कृषि-वर्षा के जल पर निर्भर हैं। सावन का महीना आरंभ होने से पूर्व ही किसानों की निगाहें तो मानों आसमान पर टिक जाती हैं और कहने लगती हैं- “अल्लाह मेघ-मेघ दे, अल्लाह मेघ दे।’ लाखों दिलों से वर्षा के आने की दुआ निकलती है। फिर शुरू होता है काले बादलों का आकाश में छाने का सिलसिला। जो कई दिनों तक जारी रहता है। छोटे-छोटे बच्चे बादलों को देखकर गाने लगते हैं “काली ईंट काला चौर-मीं बरसा दे जोरम जोर।’ बच्चों की यह दुआ खाली नहीं जाती। लग जाती है सावन की झड़ी। परदेस में धन कमाने गया हुआ प्रियतम भी यह कहकर अपनी प्रेयसी के पास लौट आता है “सावन के झूलों ने मुझको बुलाया,
मैं परदेसी घर वापस आया’।
वर्षा का आगमन और प्रियतम के आने की खुशी नायिका के सौन्दर्य में चार चांद लगा देती है।
भारत में वर्षा के सौन्दर्य की एक अलग ही छटा होती है, जिसकी तस्वीर हर कोई अपने दिल में उतारना चाहता है। आकाश में मेघ का छाना और कोयल का उन्हें देखकर मीठी आवाज में कूकना किसे अच्छा नहीं लगता। कोयल की मीठी वाणी कानों में रस-सा घोल देती है। उधर, मोर की दूर तक सुनाई देने वाली आवाज वर्षा के सौन्दर्य को बढ़ा देती है। बादल के आने पर मोर पंख फैलाकर अपनी खुशी का इजहार करता है। बच्चे, बूढ़े, जवान सभी अगर अवसर मिल जाए तो मोर के नाच को टकटकी लगाकर देखते हैं।
एक राजस्थानी नायिका तो बादलों को अपने घर के ऊपर से जाते हुए देख यह गुनगुनाने लगती है- काली पीली बादली रे, म्हारे ऊपरिया कर जाये जरा-सी ठहर जाए, म्हारी बातड़ली सुन जाए। अर्थात नायिका मेघबाला से बातें करने के लिए उत्सुक है। बरसात के प्रति जहां सभी अपने भावों को प्रगट करने में आगे रहते हैं, वहां कवि भी क्यों पीछे रहे! महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला’ ने तो बादलों के संसार को जानने की जिज्ञासा प्रगट की है। निराला जी ने अपनी कविता “बादल राग’ में लिखा है-
अरे वर्ष के हर्ष! बरस तू बरस बरस रसधार।
पार ले चल तू मुझको।
वहां दिखा मुझको भी निज, गर्जन गौरव संसार।।
कवि बादलों से इतना प्रभावित है कि वह उन्हें जोर से बरसने के लिए कहता है। बादलों के संसार (जहां वे बनते हैं) को देखने की इच्छा प्रगट करता है। ग़जल सम्राट जगजीत सिंह ने तो अपनी एक ़ग़जल में दौलत और शोहरत के बदले अपने बचपन, कागज की किश्ती तथा वर्षा के पानी की मांग कर डाली है। इस प्रकार बरखा की सुंदरता सभी को अपनी ओर आकर्षित करती है।
छोटे बच्चे जहां बरसात में नहाकर अठखेलियां करते हैं, वहीं अपनी कागज की किश्ती भी पानी में छोड़ते हैं। मेढ़कों के टर्र-टर्र का सामूहिक नाद वर्षा में ही सुनाई देता है। काली घटाओं के आगमन से मौसम सुहाना बन जाता है और शीतल हवा चलने लगती है।
नायक को नायिका के बिना मौसम बेईमान-सा लगने लगता है। रिमझिम बरसात के बाद तो दृश्य और भी मनभावन लगता है। पेड़-पौधे नहाए हुए से प्रतीत होते हैं। उनका सारा मैल वर्षा में धुल जाता है। चारों तरफ हरियाली पसरी रहती है। बाग-बगीचों में रंग-बिरंगे फूलों की शोभा देखते ही बनती है। कलियां भी खिलने को उत्सुक दिखाई देती हैं। यदि वर्षा के बाद धूप निकल आए तो सृष्टि अपने पूरे रंग में दिखाई देती है। बरसात के बाद सूर्य की विपरीत दिशा में दिखाई देता है सात रंगों से बना आसमानी इन्द्रधनुष। यह तभी दिखता है जब बूंदों के बाद आसमान साफ दिखाई देता हो। इतनी सुन्दर कलाकृति तो शायद ही कोई चित्रकार बना पाए। सात रंगों से बने इन्द्रधनुष को बच्चे अपने मामा का धनुष कहकर अपनापन जताते हैं। नीले गगन में अपने रूप की छटा बिखेरता यह धनुष किसी चंचल नायिका के नीले जल में स्नान करने-सा प्रतीत होता है, जिसके अंग-अंग से प्रकाश फूट रहा हो।
ऋतुओं की रानी
ऋतुओं की रानी का ताज वर्षा को यूं ही नहीं मिला, इसमें मानव हृदय को टटोलने की क्षमता है। सावन का महीना और बरसात के मौसम में प्रेयसी अपने प्रियतम को दो टके की नौकरी के पीछे अपना लाखों का सावन बीत जाने का उलाहना देती है। उधर, पेटू किस्म के लोग वर्षा में अपना हाथ साफ करने में पीछे नहीं रहते। बरसात में जलेबी एवं गर्म पकौड़े बेचने वालों की तो चांदी हो जाती है। इस मौसम में खाने वालों की कतार लग जाती है। फिर घर में बने गुलगुले, पूए, मालपूए, बड़े-बड़ों के मुंह में पानी ले आते हैं। इनके बनने की महक से पड़ोसी भी बेचैन हो जाते हैं।
सावन का महीना विवाहित स्त्रियों के लिए बड़ा महत्व रखता है। विशेषकर नयी-नवेली दुल्हन पहला सावन अपनी सखियों के संग तीज के रूप में मनाती है। कुछ स्त्रियां विवाह का लम्बा समय बीत जाने पर भी सावन में मायके जाना नहीं भूलतीं। तीज का पर्व तो जैसे खास स्त्रियों के लिए बना है। प्रायः नगर के बाग-बगीचों में वृक्षों पर ऊंचे-ऊंचे रस्से के झूले बांध दिए जाते हैं, जिन पर स्त्रियां लम्बी पींगों के साथ झूलती हैं। कुरुक्षेत्र के बिड़ला मंदिर में प्रतिवर्ष मनाया जाने वाला तीज-पर्व देखने लायक होता है। एक साथ चलते दर्जनों झूले और मौज-मस्ती करती युवतियां तीज का उत्सव मनाती हैं। हरा-भरा बाग मेले-सा दिखाई देता है। अगर तीज पर ये सब भी खास न लगे तो पतंगों से भरा आसमान आपको जरूर अच्छा लगेगा। बच्चे, बूढ़े, जवान तीज पर रंग-बिरंगी पतंग उड़ाकर और पेंच लगाकर सावन का मजा लेते हैं।
ऐसे में कहा जाए कि संसार में वर्षा और सावन के सौन्दर्य से बढ़कर कुछ नहीं है, तो यह कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। मेघों की रिमझिम और सावन की शीतलता मानव जीवन में न हो तो जीवन नीरस बन जाएगा।
– महेंद्र बोस “पंकज’
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