जनतंत्र की सफलता की शर्त है सतत् जागरूकता

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार ने लोकसभा में विश्र्वासमत का प्रस्ताव पारित करा लिया और आगामी चुनाव तक सरकार सुरक्षित हो गई है। लेकिन प्रस्ताव पर हुई बहस के दौरान सदन में और सदन के बाहर भी, जो कुछ हुआ, उससे यह सवाल फिर से हवा में तैरने लगा है कि क्या हमारा जनतंत्र भी सुरक्षित है?

सच तो यह है कि इस विश्र्वासमत की कार्यवाही के दौरान न सरकार हारी है और न विपक्ष, हारा तो हमारा जनतंत्र है। यह सही है कि यह बात सुनने में कटु लगती है लेकिन सदन के भीतर जिस तरह हमारे अधिकांश सांसदों ने व्यवहार किया और सदन के बाहर भी जिस तरह हमारे राजनेताओं और राजनीतिक दलों ने साफ-सुथरी राजनीति की लक्ष्मण रेखाएं लांघी हैं, उसे देखते हुए जनतंत्र की पराजय अथवा उसके घायल होने की कड़वी सच्चाई को स्वीकार करना ही होगा। पूरे दो दिन की सारी बहस के दौरान विभिन्न पक्षों के तर्कों-दलीलों के बजाय कुल मिलाकर शोर-शराबा ही हावी रहा। अध्यक्ष को बार-बार यह कहते हुए सुनना कि “यह क्या हो रहा है’, “सारा देश हमारे (शर्मनाक) व्यवहार को देख रहा है’, “आप लोग किसी को बोलने क्यों नहीं देते, किसी को सुनते क्यों नहीं’, ….और अध्यक्ष की हताशा को देखना किसी भी संवेदनशील नागरिक के लिए एक पीड़ा ही थी। ऐसा नहीं है कि पहली बार सदन में इस तरह का दृश्य दिख रहा था। ऐसे हर मौके पर हमारे सांसदों ने इसी तरह का व्यवहार किया है। हमने यह भी देखा है कि ऐसा व्यवहार लगातार बद से बदतर होता जा रहा है।

हॉं, जो एक बात पहले कभी नहीं दिखी थी, वह भी इस बार दिख गयी। सदन के भीतर और सदन के बाहर रुपयों के लेन-देन के आरोप तो पहले भी लगते रहे हैं, प्रधानमंत्री नरसिंह राव के समय में रुपये लेकर वोट देने वाले सांसद भी हमने देखे हैं, लेकिन इस बार वे नोट भी सदन में लहराये गये जिसे लहराने वाले सांसदों का कहना है कि ये उन्हें इसलिए दिये गये थे कि मतदान में भाग न लें, ताकि सरकार बच सके। इस आरोप की सच्चाई सामने आनी अभी बाकी है। बताया गया कि एक टीवी चैनल ने रुपये लेने-देने की घटना को टेप भी किया था। वह टेप भी लोकसभा के अध्यक्ष को सौंपा गया है। अध्यक्ष ने मामले की पूरी जांच का और दोषियों को दंडित करने का आश्र्वासन दिया है। यह आश्र्वासन कितना और कब पूरा होता है, यह तो आने वाला कल ही बताएगा, लेकिन इस कांड ने एक बार फिर हमारे लोकतंत्र को एक शर्मनाक स्थिति में ला खड़ा किया है। ऐसी शर्मनाक स्थिति किसी भी व्यवस्था के लिए पराजय ही होती है। विडम्बना यह है कि आरोप सच्चा हो या झूठा, दोनों ही स्थितियों में पराजित हमारी व्यवस्था ही हुई है।

इस समूचे कांड में सांसदों की खरीद-फरोख्त के आरोप खुलेआम लग रहे थे। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता श्री ए. बर्धन ने सबसे पहले आंकड़े घोषित किए थे। उन्होंेने कहा था कि सांसदों को सरकार के पक्ष में वोट देने के लिए 25 करोड़ रुपये दिए जाने की पेशकश की जा रही है। इस आरोप का कोई प्रमाण उन्होंने नहीं दिया, लेकिन 1993 में नरसिंह राव की सरकार के समय झारखंड मुक्ति मोर्चे के सांसदों को रुपये दिए जाने की बात देश भूला नहीं है, इसलिए बर्धन के इस आरोप से कोई चौंका नहीं। सच तो यह है कि हमारे राजनीतिक दलों ने अपने व्यवहार से चौंकाने वाली कोई स्थिति बचने ही नहीं दी है। अब जनता को यह लगने लगा है कि सत्ता के लिए हमारे राजनेता कुछ भी कर सकते हैं। जनता के न चौंकने की यह स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण भी है और खतरनाक भी।

जब भाजपा के तीन सांसदों ने एक करोड़ के नोट सदन में अध्यक्ष की मे़ज पर रखे तो पीठासीन उपाध्यक्ष ने कहा था, “अ-अ-अ-यह क्या है!’ लेकिन टीवी पर यह दृश्य देखते समय सदन में बैठे सदस्यों के जितने भी चेहरे दिखे, उन पर आश्र्चर्य या पीड़ा का भाव कहीं नहीं था। सरकारी पक्ष इसे अविश्र्वास से देख रहा था और विपक्ष इस संतुष्टि के भाव के साथ कि सरकार नंगी हो गयी। लेकिन हकीकत यह है कि नंगे हम सब हुए हैं।

वैसे असलियत तो जॉंच के बाद ही सामने आएगी लेकिन “रिश्र्वत’ लेने वाले सांसदों से देश के नागरिक यह तो पूछ ही सकते हैं कि सदन में “नाटक’ करने के बजाय वे इस बात की शिकायत पुलिस में भी तो कर सकते थे। चलो मान लिया, घटना का राजनीतिक लाभ उठाना उन्हें ज्यादा फायदेमंद लगा होगा, लेकिन यह तो पूछा ही जा सकता है कि किसी टीवी चैनल को सूचित करने के बजाय, या के साथ-साथ उन्होंने पुलिस को सूचित क्यों नहीं किया- तब अपराधी रंगे हाथों पकड़ा जाता। राजनीति का घिनौना चेहरा भी सामने आ जाता और अपराधी को स़जा भी मिल जाती।

बहरहाल, इस संदर्भ में जो कुछ हुआ वह एक त्रासदी है। लेकिन त्रासदी यह भी है कि पंद्रह साल पहले ऐसे ही मामले में अपराधी पकड़े तो गये थे, पर उन्हें कोई स़जा नहीं मिली। तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव एवं गृहमंत्री बूटा सिंह को अदालत ने दोषी पाया था, सजा भी सुनायी थी, लेकिन उच्च न्यायालय ने उन्हें निर्दोष ठहरा दिया। मामला उच्चतम न्यायालय में जाना चाहिए था, लेकिन पता नहीं क्यों सीबीआई को यह स्वीकार नहीं था। जिन सांसदों ने रिश्र्वत ली थी, उन्हें संविधान की धारा 105 (2) के तहत सांसद के विशेषाधिकार के नाम पर बख्श दिया गया। उनमें से एक सांसद शिबू सोरेन बाद में मंत्री भी बने थे, सुना है इस बार भी उन्होंने सरकार को समर्थन देने के बदले में मंत्री पद मांगा है। शायद वे बन भी जाएंगे।

राजनीति में सब कुछ जाय़ज है, कहकर विश्र्वासमत की सारी सौदेबाजी को शायद जल्दी ही भुला भी दिया जाएगा, लेकिन यह सारी सौदेबाजी, सदन के भीतर-बाहर सदस्यों का अनुचित व्यवहार और सत्ता के लिए राजनीतिक दलों द्वारा की जाने वाली असैद्घांतिक, अनैतिक और अनुचित कार्यवाही को मतदाता भी भुला देता है, यह जनतांत्रिक व्यवस्था के लिए भी दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण है। सत्ता का खेल खेलने वाले जीत के लिए कुछ भी कर सकते हैं, लेकिन जब मतदाता इस खेल में मोहरा बना दिया जाता है तो यह कुल मिलाकर जनतांत्रिक मूल्यों का नकार ही होता है। जनतंत्र में मतदाता न तो दर्शक होता है, न मोहरा। मतदाता इस व्यवस्था की धुरी है, उसकी जागरूकता जनतंत्र की सफलता की शर्त है। देखना है, राजनीतिक दलों, राजनेताओं को मतदाता कैसे बताता है कि वह सब कुछ देख-समझ रहा है।

 

– विश्वनाथ सचदेव

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