जनहित याचिकाओं के बारे में दिशानिर्देश तय करने के संबंध में जारी वाद-विवाद में सारे पहलुओं पर ठीक से ध्यान नहीं दिया जा रहा है। इसमें सन् 1982 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस तरह याचिकाओं के बारे में दी गई व्यवस्थाओं की भी अनदेखी की जा रही है। न्यायाधीश स्थानांतरण मामले के नाम से विख्यात एस.सी. गुप्ता विरुद्घ भारत सरकार मुकदमे में न्यायालय ने मंशा ़जाहिर की थी कि नागरिकों को राज्य द्वारा विकास कार्यामों के निष्पादन के दौरान अपने नागरिक अधिकारों के उल्लंघन से बचाव के लिए अदालती न्यायिक सुरक्षा की ़जरूरत है।
उपरोक्त कानून प्रस्तावित जनहित याचिकाओं पर सटीक बैठता है। सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट भी किया था कि राज्य को खास तौर से अपने नागरिकों के हितों के रक्षार्थ, मुस्तैद रखने की गरज से भी जनहित के इन मुकदमों की आवश्यकता है।
सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने उस वक्त जनहित याचिकाओं और सामान्य मुकदमों के बीच के अंतर को भी स्पष्ट किया था। उसका कहना था कि अगर नागरिकों के प्रति कर्त्तव्य निर्वाह में कोताही को सिर्फ इसलिए अनदेखा कर दिया जाए कि इससे किसी व्यक्ति विशेष के न्यायाधिकार का उल्लंघन नहीं हुआ है, तो ऐसे में कर्त्तव्य निर्वाह में कोताही पर कोई लगाम नहीं रहेगी जिसके फलस्वरूप कानून के प्रति असम्मान की भावना को बल मिलेगा। इससे भ्रष्टाचार और अकर्मण्यता को भी प्रश्रय मिलेगा क्योंकि तब सरकार को प्रदत्त अधिकारों पर ज्यादा से ज्यादा राजनीतिक व्यवस्था की ही लगाम रहेगी। इससे भी बुरा तब होगा जब राज्य भी इन अधिकारों के दुरुपयोग का सहभागी हो जाएगा। ऐसे में वे नए सामुदायिक, सामाजिक अधिकार जो कि समाज के निचले तबके के हित में प्रस्तावित हैं, निरर्थक हो जाएंगे।
पिछले कुछ अरसे से महिलाओं के अधिकार, नागरिक स्वतंत्रता, कैदियों की मौत, पर्यावरण एवं नागरिक स्वास्थ्य जैसे विभिन्न मुद्दों को व्यक्तियों अथवा संस्थाओं द्वारा न्यायालय के समक्ष समय-समय पर पेश किया गया। ऐसे ही जनहित के मुद्दों पर हमारे सर्वोच्च न्यायालय की राय को संसार भर में मील के पत्थर की तरह मान्यता मिली है और यह भी माना जा रहा है कि उदारवाद के इस दौर में नागरिक अधिकारों पर बढ़ते खतरे के मद्देऩजर न्यायालय अपने संवैधानिक दायित्वों का निर्वाह इन जनहित के मुद्दों के माध्यम से ही कर पाएंगे।
निर्णयों में जनहित याचिकाओं के बारे में व्यापक चर्चा होकर इसके लिए पैमाने निर्धारित किए जा चुके हैं, साथ ही ऐसे मुकदमों की सीमाएं भी निश्चित की जा चुकी हैं। फिर भी जनहित के मुद्दों पर न्यायालयों द्वारा दिए गए निर्णयों और उनके फलस्वरूप समाज को पहुँचे फायदों के बारे में शीघ्रता से दस्तावेज तैयार करना एक बड़ी आवश्यकता है। हम सभी जानते हैं कि जनहित याचिकाओं के परिणामस्वरूप ही हमारे देश में चुनावों की प्रिाया में सुधार संभव हुआ है। उन्हीं की वजह से उम्मीदवारों पर निजी सम्पत्ति और आपराधिक पृष्ठभूमि के खुलासे का दायित्व डाला जा सका है।
इस मामले में जारी ताजा चर्चा में इस महत्वपूर्ण तथ्य की अनदेखी की जा रही है कि न्यायाधीश स्थानांतरण मामले के तत्काल बाद 1982 में जनहित याचिकाओं के मानक निर्धारण के लिए कम से कम दस प्रश्र्न्नों को विचारार्थ रखा गया था। (सुदीप मजुमदार विरुद्घ भारत सरकार में)। सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने 8 अगस्त, 02 को सुनाए फैसले में इनका जवाब दिया था। उसके मुताबिक सन् 1982 में निर्धारित प्रश्र्न्नों पर वाद-विवाद की आवश्यकता नहीं है क्योंकि इस बीच जनहित याचिकाओं की सुनवाई के लिए न्यायालयों ने अपने मार्गदर्शक बिंदु एवं सिद्घांत निर्धारित कर लिए हैं। ऐसे में सारे विवाद को विराम मिल जाना चाहिए।
अब जनहित याचिकाओं के मामले में मार्गदर्शन के लिए नए प्रयास इसे एक यांत्रिक प्रिाया में बदल देंगे और मुद्दा ऐसे पारम्परिक मुकदमों के जाल में पुनः उलझ जाएगा जिससे इसे न्यायापालिका ने दो दशक पहले ही उबार लिया था।
ऐसे विवाद जिनका संबंध समाज के निर्धन और वंचित तबके के हितों से है, को आसानी से पहचाना जा सकता है। बुरे, दुर्भावनापूर्ण और उद्वेगी मुकदमों का प्रबल विरोध किया जाना चाहिए। एक अऩुभवी अदालती दिमाग के लिए वैसे भी यह कोई कठिन कार्य नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस संबंध में अपने समक्ष प्रस्तुत व्यक्तिगत मुकदमों में से 50 प्रतिशत को खारिज कर दिया है। मार्गदर्शक बिंदु अनावश्यक विवाद और अन्याय ही बढ़ाते हैं और यह बात जनहित याचिकाओं के बारे में भी सच है।
जो लोग अदालतों पर अति सिायता का आरोप लगाते हैं वे नौकरशाही और राजनीतिक विवादों की बड़ी संख्या को भूल जाते हैं। निजीकरण की प्रिाया ने राज्य की जनहितैषी कार्यकुशलता पर प्रभाव डाला है। ऐसे में अदालतों को अपने निर्देशों के िायान्वयन के बारे में सतत् सजग रहना पड़ेगा। लेकिन यह कार्य बहुत पेचीदा है। किसी भी परिस्थिति में न्याय उपलब्ध करवाना ही एकमात्र मार्गदर्शक सिद्घांत हो सकता है। यही कानून का निचोड़ भी है।
– संजय पारिख
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