जम्मू की अराजकता द्वैतवादी राजनीति का परिणाम

चिल्लाने को हम लाख चिल्लाते रहें कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, लेकिन जो परिस्थितियॉं तेजी से इस ़जमीन के दोनों हिस्सों यानी कि घाटी और जम्मू में उभरी हैं, उनसे यह साफ दिखाई देता है कि इस प्रदेश का राजनीतिक नहीं तो सांप्रदायिक विभाजन व़जूद में जरूर आ गया है। वैसे राजनीति को सांप्रदायिकता से और सांप्रदायिकता को राजनीति से बॉंट कर देखना भ्रामक ही माना जाएगा। राजनीति को जब भी परवान चढ़ने की जरूरत पड़ती है तो वह सांप्रदायिकता को बेहिचक अपनी सीढ़ी बना लेती है। अतः कश्मीर घाटी में और जम्मू संभाग में जो दिखाई दे रहा है, वह ऊपर-ऊपर सांप्रदायिक ़जरूर है, मगर भीतर जो अन्तर्धारा बह रही है वह राजनीति की ही है। दोनों हलकों में सांप्रदायिकता ने जिस तरह अपने उन्माद का विस्तार किया है, उससे उन परिस्थितियों की याद ता़जा हो जानी स्वाभाविक है, जो देश के बॅंटवारे के ठीक पहले वातावरण में फैल गई थी। दुःख तो इस बात का है कि इसे अब भी ़खतरनाक बिन्दु तक खींचते रहने की चेष्टायें निरंतर की जा रही हैं। इस दशा में अब यह सोचना बहुत मुश्किल हो गया है कि क्या सिर्फ सेना और सुरक्षा बलों के सहारे हम कश्मीर को हिन्दुस्तान का हिस्सा बनाये रख पायेंगे।

जहॉं तक कश्मीर घाटी का सवाल है, वह तो पिछली शताब्दी के आ़खरी दशक से ही कट्टरपंथी अलगाववादियों के कब़्जे में है। आतंकवाद के दानव ने इस घाटी की सदियों पुरानी सामाजिक-सांस्कृतिक समरसता को जहरीली सांप्रदायिकता के हवाले कर दिया और इसी के चलते घाटी से हिन्दुओं, खासकर कश्मीरी पंडितों को मार-मार कर वहॉं से निर्वासित कर दिया। घाटी को खाली कराने के पीछे इस्लामिक चरमपंथियों की योजना को केन्द्र और राज्य सरकार ने या तो समझा नहीं अथवा समझने के बावजूद राजनीतिक कारणों से इसकी उपेक्षा की। भारत से कई-कई लड़ाईयॉं हार चुका पाकिस्तान इस चरमपंथ का जन्मदाता बन गया है और जिस तरह भारत ने उसे तोड़ कर बांग्लादेश का निर्माण कराया था, उसका बदला वह कश्मीर को तोड़कर लेना चाहता है। उसका निशाना कश्मीर घाटी है और हुर्रियत सहित जितने भी अलगाववादी धड़े हैं उनकी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष मदद वह बराबर करता रहता है। उसने आतंकवादियों को कश्मीर की आजादी के मुजाहिदीन बताया है। उन्हें वह आर्थिक मदद तो देता ही है, उन्हें पाकिस्तानी सेना अपने हलके में प्रशिक्षण शिविरों के माध्यम से प्रशिक्षित भी करती है।

मौजूदा वक्त में कहने को निजाम जम्मू-कश्मीर सरकार का है, लेकिन वास्तविक निजाम आतंकवादियों और कट्टरपंथी जमातों का है। केन्द्र ने आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए जो सेना और सुरक्षा बलों की तैनाती की है, जन सहयोग के अभाव में उनके सारे अभियान असफल सिद्घ हो रहे हैं। हालात इस कदर संगीन हो गये हैं कि खुलेआम कट्टरपंथी जमातों की तकरीरों में “पाकिस्तान-जिन्दाबाद’ के नारे लगाये जाते हैं और पाकिस्तानी झंडा फहराया जाता है, जिसे सरकार के रहनुमा और सेना, सुरक्षाबल और पुलिस के लोग अपनी खुली आँखों से देखकर भी चुप लगा जाते हैं। बा़जार में खुलेआम पाकिस्तानी करेंसी से खरीद-फरोख्त होती है और पाकिस्तान द्वारा संचालित टेलीविजन चैनल के साथ ही पाकिस्तान रेडियो के प्रसारण सुने जाते हैं। हाल के दिनों में कट्टरपंथियों की ओर से एक फरमान जारी किया गया। फरमान में भारतीयों, जिनमें अधिकतर मजदूर वर्ग के लोग शामिल हैं, को कश्मीर से बाहर चले जाने अन्यथा अंजाम भुगतने को तैयार रहने को कहा गया है। इस लिहाज से पेट-जिलाने वाले इन मजदूरों का पलायन बड़े पैमाने पर हुआ है। इसकी जानकारी राज्य सरकार को अथवा केन्द्र सरकार को न हो, ऐसा भी नहीं है। लेकिन वह इस मौके पर भी उतनी ही लाचार समझ में आती है, जितनी घाटी से कश्मीरी पंडितों के पलायन के समय थी।

कहने का सार यह कि कश्मीर घाटी का सांप्रदायीकरण एक सोची-समझी षड्यंत्रकारी योजना के तहत हुआ है। एक लंबी प्रिाया के रूप में उन षड्यंत्रकारियों का उद्देश्य आज जमीनी ह़कीकत की शक्ल ले चुका है। लेकिन इसी राज्य के जम्मू संभाग में जो कुछ हुआ है या हो रहा है, उसने बिना किसी योजना और बिना किसी प्रयास के एक अराजक शक्ल अख्तियार कर लिया है। कोई सोच भी नहीं सकता था कि िाया-प्रतििाया में उलझी इस राज्य की राजनीति इतनी ते़जी से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की दिशा में आगे बढ़ेगी। इस ध्रुवीकरण का नतीजा इस रूप में सामने आ रहा है कि मुस्लिम सांप्रदायिकता और हिन्दू सांप्रदायिकता दोनों एक-दूसरे को ललकारती समानान्तर खड़ी दिखाई देती है। कश्मीर घाटी तो बहुत दिनों से जल ही रही थी, अब वही आग जम्मू संभाग की सड़कों पर उतर कर नंगा नाच रही है। आग भी ऐसी कि उसमें अधिकतर सियासतदॉं पेटोल डालते ही देखे जा रहे हैं, पानी डाल कर इसे बुझाने वाला दूर-दूर तक कोई दिखाई नहीं देता।

जम्मू में हफ्तों से कर्फ्यू आयद है। पुलिसबल की कार्यवाहियॉं जब प्रदर्शनों को रोक पाने में असफल सिद्घ हुईं तब सेना बुलाई गई। लेकिन सेना भी कुछ खास कर पाने में कामयाब होती नहीं दिखती। लाठी चार्ज, आंसू गैस और फायरिंग प्रदर्शनकारियों के हौसले को तोड़ नहीं पा रही है। भले ही कुछ हिन्दुत्ववादी राजनीतिक जमातें अपनी ओर से इसे हवा दे रही हों, लेकिन वे नहीं भी होतीं तो वही होता जो हो रहा है। इस दृष्टि से जम्मू संभाग में जो कुछ हो रहा है उसे किसी सा़िजश का हिस्सा नहीं माना जा सकता। यह हिन्दू-मन की आस्था पर लगी चोट है जिसने लोगों को तिलमिला दिया है और लोग आाोश में सड़कों पर उतर आये हैं। हालॉंकि उन्मादित भीड़ जो तोड़-फोड़ और प्रहार कर रही है उसे जायज नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन उनके उन्माद को किसी तर्क से गलत भी सिद्घ नहीं किया जा सकता। हिन्दुओं की ओर से सिर्फ एक ही मॉंग की जा रही है कि अमरनाथ यात्रियों के लिए आवंटित भूमि, जिसे आवंटित करने के बाद वापस ले लिया गया था, पुनः अमरनाथ श्राइन बोर्ड को वापस की जाए।

अतः इस आंदोलन के पीछे किसी हिन्दू संगठन की सा़िजश तलाश करना मामले को और उलझाने जैसा है। इसे सिर्फ और सिर्फ एक समुदाय की आहत प्रतििाया भर माना जा सकता है। देश की बात अगर छोड़ भी दी जाए तो जम्मू और कश्मीर की धरती पर जितना अधिकार मुसलमानों का है, उससे कम अधिकार किसी मायने में हिन्दुओं का नहीं है। जब स्थानीय सरकार मस्जिदों और दरगाहों के लिए फरा़गदिली के साथ ़जमीन आवंटित कर सकती है तो अमरनाथ यात्रियों के लिए अगर उसने ऐसा किया तो घाटी में इतना बवाल क्यों मचाया गया? यह म़जाक नहीं तो और क्या है कि जो पीडीपी इस आवंटन की प्रिाया की साझेदार थी, वह भी इसके खिलाफ आंदोलन में कूद पड़ी। सवाल तो यह है कि अलगाववादी हुर्रियत और पीडीपी जैसे राजनीतिक दलों ने यह कैसे मान लिया कि भूमि आवंटन का यह मामला एक सा़िजश है जिसके तहत कश्मीर की कश्मीरियत अथवा उसका मुस्लिम वर्चस्व यहॉं हिन्दुओं को बसाकर छीन लिया जाएगा? क्या इसका सीधा मतलब यह नहीं है कि कश्मीरियत सिर्फ कश्मीर घाटी के मुसलमानों की जागीर है और जम्मू संभाग के हिन्दुओं और लद्दाख के बौद्घों का इससे कोई मतलब-सरोकार नहीं है।

कश्मीर के इतिहास का सबसे दुःखद इतिहास उस दिन लिखा गया जिस दिन गुलाम नबी आ़जाद की राज्य सरकार और केन्द्र की मनमोहनी सरकार ने आवंटित जमीन की वापसी की मॉंग करने वाले उपद्रवी अलगाववादियों की इस नाजायज मांग पर अपनी स्वीकृति की मुहर लगा दी। इस स्वीकृति ने परोक्ष रूप से ही सही, अलगाववाद की सांप्रदायिक राजनीति को जम्मू-कश्मीर की राजनीति का पर्याय बना दिया। अब इसकी प्रतििाया में अगर जम्मू के हिन्दुओं को यह समझ में आया हो कि कश्मीर में कट्टरपंथी मुस्लिम राजनीति का ही वर्चस्व रहेगा, हम भी इसी प्रदेश के नागरिक हैं, हम भी वही “कश्मीरियत’ रखते हैं जो घाटी का मुसलमान रखता है, लेकिन सेकुलर राजनीति की कसमें खाने वाली केन्द्र और राज्य सरकार के लिए हमारी भावनाओं और आस्थाओं की अहमियत दो कौड़ी की है, तो इसे सह़ज प्रतििाया ही माना जा सकता है। अपनी इसी प्रतििाया के साथ जम्मू संभाग का हिन्दू जनमानस आज तकरीबन एक महीने से भीषण अराजकता का इतिहास लिख रहा है। यह सही है कि उसका आंदोलन अराजकता का शिकार है और यह अराजकता विध्वंस रचना में अपनी पूरी ताकत झोंक रही है। लेकिन यह भी सही है कि सरकारी पुलिस, सुरक्षा बल तथा सेना जो जवाब उसे दे रही है वह उसके प्रश्र्न्नों के अनुकूल नहीं है। लाठी, गोली, आंसू गैस और कर्फ्यू इसका जवाब हो भी नहीं सकता। इसका बस एक ही जवाब हो सकता है कि इन लोगों को यह बताया जाय कि वे भी जम्मू-कश्मीर राज्य के नागरिक हैं या नहीं? अगर सरकारों को एक वर्ग-समुदाय की आस्थाओं की इतनी चिन्ता है तो उनकी आस्था को क्यों पददलित और लांछित किया जा रहा है? और यह भी कि अमरनाथ श्राइन बोर्ड को दी गई जमीन अगर मुस्लिम कट्टरपंथियों के उपद्रव के आगे घुटने टेक कर वापस ले ली गई, तो वे इसे दुबारा पाने के लिए अगर उसी की नकल करते हैं तो इसे गलत किस तर्क से कहा जाएगा?

– रामजी सिंह “उदयन’

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