जम्मू समझौता स्वागत योग्य

दो महीने से भी अधिक समय तक एक सफल आंदोलन का संचालन करने वाली अमरनाथ यात्रा संघर्ष समिति के हिस्से में एक बहुत बड़ी कामयाबी यह दर्ज हुई है कि उसने अपने संघर्ष को सफलता के मान्य-बिन्दु तक पहुँचा कर ही दम लिया है। एक समझौते के तहत सरकार ने अमरनाथ श्राइन बोर्ड को यात्रा के समय, जिसकी अवधि 90 दिन की होगी, 800 कनाल जमीन अस्थाई तौर पर आवंटित करने की संघर्ष समिति की मॉंग स्वीकार कर ली है। यह जरूर है कि श्राइन बोर्ड इसका उपयोग यात्री-सुविधा के तौर पर करेगा, लेकिन जमीन का मालिकाना ह़क उसका नहीं होगा। रविवार को सरकार और संघर्ष समिति के बीच चली एक मैराथन बातचीत के बाद दोनों ही पक्ष एक लिखित समझौते से बंध गये हैं और संघर्ष समिति ने अपना आंदोलन भी वापस ले लिया है। सरकार ने आंदोलन के दौरान सामान्य अपराधों में शामिल लोगों को तात्कालिक प्रभाव से अपराध मुक्त कर दिया है और जिन लोगों पर कुछ गंभीर आपराधिक धारायें लगाई गई हैं, उनकी समीक्षा कर 60 दिनों के भीतर निर्णय ले लिया जाएगा। इसके अलावा संघर्ष समिति ने मारे गये और घायल हुए लोगों को उचित मुआवजा देने तथा निजी परिसंपत्तियों के नुकसान की क्षतिपूर्ति की मॉंग भी सरकार से मनवा ली है।

हालॉंकि समझौते के बाबत जो प्रतििायायें आई हैं, वह मिलीजुली हैं, लेकिन इन प्रतििायाओं के बाहर एक सवाल यह ़जरूर उठता है कि यह निर्णय क्या सरकार उस समय नहीं ले सकती थी, जब यह आंदोलन अपने शुरूआती दौर में था। दो महीने तक जम्मू संभाग भीषण अराजकता के दौर से गुजरा है और आंदोलन के चलते 60 से अधिक लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी है, ह़जारों की संख्या में लोग घायल हुए हैं, अरबों रुपये की सरकारी और ़गैर-सरकारी संपत्तियों का नुकसान हुआ है, इसकी जिम्मेदारी किसके माथे दर्ज की जाएगी। संघर्ष समिति तो अप्रत्यक्ष रूप से ही सही, इस आरोप से इस तर्क के साथ बरी हो गई है कि उसकी मॉंग के औचित्य पर मुहर लगाते हुए सरकार ने उसे स्वीकृति दी है। अगर यह मॉंग पहले ही मान ली गई होती, तो जम्मू को पुलिसिया दमन तथा कर्फ्यू के साथ ही लाठी, आँसू गैस और शूट एट साइट के दौर से नहीं गुजरना पड़ा होता। कहा तो यह भी जा सकता है कि सदा से शांत रहे जम्मू के लोगों को इस तरह के अराजक आंदोलन की ओर ढकेलने का काम सरकार द्वारा लिए गये एक अनुचित फैसले ने किया है। आ़जाद सरकार ने जब श्राइन बोर्ड को मांगी गई सुविधा के तहत भूमि आवंटित करने का फैसला लिया था, तो उसके पीछे वहॉं के उच्चतम न्यायालय का एक निर्देश भी था। इसलिए उस आवंटन को अवैध तो किसी हालत में साबित नहीं किया जा सकता। अवैध उस आवंटन को घाटी के अलगाववादियों के दबाव में उसे निरस्त करने का निर्णय था। देर आयद दुरुस्त आयद की कहावत के अनुसार बहुत देर में ही सही, लिया गया यह फैसला और संघर्ष समिति के साथ समझौता एक अच्छा और सामयिक निर्णय माना जाएगा। इससे जम्मू संभाग निश्र्चित रूप से राहत की सांस लेगा और उसके साथ ही तेजी से हो रहे जम्मू और कश्मीर के बीच सांप्रदायिक विभाजन को भी रोका जा सकेगा।

जहॉं तक घाटी का सवाल है, उसके लिए भूमि का आवंटन सिर्फ एक राजनीतिक खेल के रूप में अलगाववादी नेताओं ने प्रस्तुत किया है। उसके एक प्रवक्ता ने यह समझौता हो जाने के बाद कहा भी है कि हमारे लिए फिलहाल भूमि आवंटन का मुद्दा कोई मुद्दा नहीं है, हम इस समझौते को ़खारिज करते हैं। पीडीपी की नेता महबूबा मुफ्ती ने इसे अस्वीकार्य बताते हुए कहा है कि इसमें सिर्फ जम्मू के हितों का ख्याल रखा गया है। उन्होंने अपने वक्तव्य में यह भी जोड़ा है कि जम्मू के लोगों को ़खुश करने की नीति से कश्मीरियों में अलगाव की भावना बढ़ेगी। हॉं, नेशनल कॉनेस के नेता फारू़क अब्दुल्ला ने अवश्य इसे एक अच्छा और उचित फैसला बताया है। गऱज यह कि पिछले दिनों अपने उग्र अलगाववादी आंदोलन के चलते जो दबाव राज्य और केन्द्र सरकार पर हुर्रियत नेताओं ओर पीडीपी ने बनाया था और जिसके चलते अमरनाथ श्राइन बोर्ड को आवंटित भूमि वापस ले ली गई थी, सरकार परे ठेलती दिखाई दे रही है। सरकार ने जिस तरह अलगाववादियों के “मुजफ्फराबाद चलो’ आंदोलन को कुचला और उसके बाद पूरी घाटी में कर्फ्यू आयद कर अलगाववादी नेताओं की गिरफ्तारियां हुईं, उसके बाद अब उन्हें यह जरूर समझ लेना चाहिए कि भारत सरकार के तेवर रू-रियायत देने के पक्ष में नहीं रह गये हैं। खास कर जिस तरह एक मुहिम के तहत अलगाववादियों ने कश्मीर स्थित राष्टसंघ के नुमाइंदों को कश्मीर की आजादी के बाबत ज्ञापन सौंपा, वह भारत सरकार को पूरी तरह सावधान हो जाने के लिए काफी था। भारत सरकार अब इस बात को बखूबी समझ गई है कि पाकिस्तान के इशारे के ये गुलाम अलगाववादी जो खेल खेलना चाहते हैं वह सीधे तौर पर भारतीय संप्रभुता को चुनौती है। इस चुनौती का मुकाबला दृढ़ता के साथ इनके जहरीले मसूबों को कुचल कर ही किया जा सकता है। काश! इस नीति की अमलावरी बहुत पहले की गई होती तो कश्मीर को, और पूरे देश को एक गंभीर त्रासदी से न गुजरना पड़ता। तब न अलगाववाद होता और न आतंकवाद।

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