“द वॉल स्टीट जनरल’ को इंटरव्यू देते हुए पाकिस्तान के राष्टपति आसिफ अली जरदारी ने बीती 5 अक्तूबर को जम्मू-कश्मीर के मिलिटेंट्स को “आतंकवादी’ कहकर पुकारा। उनके इस बयान का भारत में स्वागत स्वाभाविक था, लेकिन पाकिस्तान में इससे बवंडर खड़ा हो गया। और अगले ही दिन यानी 6 अक्तूबर को पाकिस्तान की सूचना मंत्री शैरी रहमान ने कहा कि पाकिस्तान कश्मीरी अवाम के सेल्फ डिटरमिनेशन अधिकार के प्रति समर्पित है। इसलिए वह कश्मीरी जंगजुओं को नैतिक व राजनयिक समर्थन देता रहेगा।
जरदारी के बयान और बाद में पाकिस्तानी सरकार की तरफ से उसके खंडन से तीन मुख्य बातें स्पष्ट हो जाती हैं। एक, पाकिस्तान में ऐसे लोगों की तादाद बढ़ती जा रही है जो अपने पड़ोसियों विशेषकर भारत से अमन व दोस्ती चाहते हैं। दो, स्वयं आतंकवाद की चपेट में आने के बाद अब पाकिस्तान को यह अहसास होता जा रहा है कि आतंकवाद से कोई लाभ नहीं है और अगर उसे अपने भीतर के आतंकवाद को समाप्त करना है तो उसे दूसरी जगह खासकर कश्मीर में आतंक को समर्थन देना बंद करना पड़ेगा। और अंतिम यह कि पाकिस्तान की अंदरूनी सियासत आज भी भावनात्मक रूप से कश्मीर के मुद्दे पर टिकी हुई है। यही वजह है कि जरदारी का बयान आने के तुरंत बाद पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने उनकी जमकर आलोचना की और कहा कि उनकी पार्टी इस मुद्दे को संसद में उठाएगी। नतीजतन, बचाव की मुद्रा में आते हुए सत्तारूढ़ पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी ने कहा की जरदारी ने कभी भी कश्मीरियों की पीड़ा को अनदेखा नहीं किया है। पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी पिछले 40 साल से कश्मीरियों के संघर्ष का समर्थन करती आयी है और उसकी नीति में कोई परिवर्तन नहीं आया है।
बहरहाल, जरदारी के बयान पर पाकिस्तान के अंदर हो रही सियासी खींचतान को अगर कुछ देर के लिए ऩजरअंदाज कर दिया जाए, तो उनके इस बयान से यह संकेत अवश्य मिलता है कि पाकिस्तान और भारत के बीच अमन स्थापित करने की जबरदस्त गुंजाइश है और अगर निहित स्वार्थों को राजनीतिज्ञ दरकिनार कर दें, तो कश्मीर समस्या का भी समाधान संभव है। यह उम्मीद इसलिए भी बलवती हो जाती है क्योंकि भारतीय उपमहाद्वीप से हजारों किलोमीटर दूर डेमोोटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो के खूनी मैदानों में भारत और पाकिस्तान के फौजी कंधे से कंधा मिलाकर शांति स्थापित करने के प्रयास में लगे हुए हैं।
हालांकि जम्मू-कश्मीर की नियंत्रण रेखा पर दोनों देश के फौजी एक-दूसरे के खिलाफ गोलीबारी करते रहते हैं, लेकिन कांगो में वे संयुक्त प्रयास से शांति कायम करना चाहते हैं। उन्हें देखकर ऐसा लगता ही नहीं कि वे कट्टर प्रतिद्वंदी हैं और आपस में चार युद्घ लड़ चुके हैं।
गौरतलब है कि कांगो के नॉर्थ कीवियु और साउथ कीवियु प्रांतों में नियंत्रण के लिए कांगो की सेना और विद्रोही मिलिशिया में जबरदस्त खूनी संघर्ष चल रहा है। यह संघर्ष इतना भयंकर है कि शांति स्थापना के लिए संयुक्त राष्ट ने पीस मिशन वहां भेजा है जो अपने फ्रांसीसी आदिवर्णिक शब्द एमओएनयूसी के नाम से जाना जाता है। इस मिशन में तकरीबन 10 हजार भारतीय व पाकिस्तानी सैनिक तैनात हैं।
एमओएनयूसी के मुख्यालय पर भारत और पाकिस्तान के सेना अधिकारी एक साथ काम करते हैं, एक साथ योजना बनाते हैं, एक साथ खाते-पीते हैं, एक साथ शांति प्रयासों का मूल्यांकन करते हैं और एक साथ लता मंगेशकर के गीतों और गुलाम अली के ग़जलों को सुनते हैं।
साउथ कीवियु में पाकिस्तानी ब्रिगेड भारतीय हेलीकॉप्टरों पर निर्भर हैं। 2004 के बुकावु संकट के दौरान जब पाकिस्तानी सैनिकों को विद्रोही मिलिशिया ने घेर लिया था, तो उन्होंने मदद के लिए भारतीय एयरफोर्स को रेडियो सिग्नल भेजा और एमआई-35 अटैक हेलीकॉप्टर्स ने विद्रोही ठिकानों पर 57एमएम रॉकेट्स बरसाए। इस तरह पाकिस्तानी सैनिक अपनी जान बचा सके। गौरतलब है कि गोमा में एमओएनयूसी की प्रयोगात्मक पूर्वी डिवीजन को बीती अगस्त में समाप्त करने से पहले इसकी कमान भारतीय मेजर जनरल के हाथ में थी और उनके सहायक एक पाकिस्तानी ब्रिगेडियर थे। भारत और पाकिस्तान के यह शांति सैनिक हालांकि कारगिल व अन्य घटनाओं को भूल नहीं सकते, लेकिन बतौर सैनिक एक-दूसरे का सम्मान करते हैं और एक-दूसरे से मिलकर अफ्रीका के इस देश में शांति स्थापना का भी प्रयास कर रहे हैं।
सवाल यह है कि जो सहयोग भारतीय उपमहाद्वीप से हजारों किलोमीटर दूर दर्शाया जा सकता है, वह कश्मीर की नियंत्रण रेखा पर क्यों नहीं दिखायी देता? अगर अवाम के स्तर पर देखा जाए तो दोनों देश के लोग 1947 में बनी सीमा रेखा को वैसे ही समाप्त करना चाहते हैं जैसे कि पूर्वी और पश्र्चिमी जर्मनी के बीच बर्लिन की दीवार को गिरा दिया गया था। दोनों देशों की अवाम अच्छी तरह से समझती है कि विकासशील देशों में हथियारों पर पैसा खर्च करना गरीबी को ही दावत देना है, इसलिए आर्थिक सहयोग बढ़ना चाहिए, वी़जा की पाबंदी हटनी चाहिए और स्थायी शांति की स्थापना होनी चाहिए। लेकिन अवाम की यह सोच राजनीतिज्ञ निहित स्वार्थों के कारण प्रतिबिंबित नहीं करते। वे कश्मीर और अन्य विवादित मुद्दों को सिर्फ इसलिए उलझाए रखना चाहते हैं ताकि अपनी राजनीतिक रोटियां सेंक सकें। जरदारी के बयान और बाद में उसके खंडन को इसी दृष्टिकोण से देखना चाहिए।
दरअसल, गौर से देखा जाए तो जरदारी ने कुछ गलत नहीं कहा है। कश्मीर में जो लोग हिंसा में लिप्त हैं और बेगुनाहों की हत्याएं कर रहे हैं, उन्हें किसी भी दृष्टिकोण से जेहादी नहीं कहा जा सकता। जेहाद का अर्थ है जद्दोजहद करना ताकि यह धरती सभी इनसानों के लिए रहने की बेहतर जगह हो जाए। जबकि अपनी आपराधिक हरकतों से कश्मीर के दहशतगर्दों ने जेहाद को भी आतंक का पर्याय बना दिया है। इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति को बदलने के लिए जरदारी का बयान महत्वपूर्ण और स्वागतयोग्य था। लेकिन अफसोस! जो बयान शांति स्थापना का सेतु बन सकता था, उसे वापस ले लिया गया। इसलिए यह बात एक बार फिर स्पष्ट हो गयी है कि जब तक राजनीतिज्ञ वोट के छोटे-छोटे लालच को नहीं त्यागेंगे तब तक न कश्मीर समस्या का समाधान होगा और न ही भारतीय उपमहाद्वीप में शांति की स्थापना होगी।
– डॉ. एम.सी. छाबड़ा
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