जारी है रोज़गार के अवसर में गिरावट का दौर

पिछले वर्षों में बेरोजगारी देश की केन्द्रीय समस्या के रूप में उभर कर सामने आई है। गरीबी और बदहाली की जनक मानी जाने वाली इस समस्या का स्वरूप हमारे देश में साल-दर-साल भयावह होता जा रहा है। पिछले दशक में भारत में रोजगार के अवसरों में निरंतर गिरावट आई है। हमारी उच्च शिक्षा प्रणाली प्रतिवर्ष लगभग 30 लाख नए स्नातक तैयार करती है, लेकिन हमारी सरकार के पास उन स्नातकों को रोजगार देने की कोई कारगर योजना नहीं है। इस कारण देश में बेरोजगारों की संख्या हर साल बढ़ती जा रही है। देश में उच्चशिक्षित व प्रशिक्षित युवकों की भरमार है, लेकिन उनकी क्षमता और प्रतिभा का सार्थक और सकारात्मक उपयोग देश के हित में नहीं हो पा रहा है। यही कारण है कि उच्च शिक्षा की डिग्रियां और डिप्लोमा लिए युवक शहरों और कस्बों में रोजगार की तलाश में भटक रहे हैं। देश में शिक्षित बेरोजगारों की संख्या 4 करोड़ से अधिक है, जबकि 20 करोड़ लोग ऐसे हैं जिन्हें आंशिक या मौसमी रोजगार प्राप्त है। बेरोजगारी का सीधा संबंध गरीबी और आर्थिक विषमता से है। देश में पिछले वर्षों में सकल राष्ट्रीय आय में तेजी से वृद्धि हुई है, लेकिन व्यवहार में उसका वास्तविक लाभ आम आदमी को नहीं मिला। 50 के दशक में देश की सकल राष्ट्रीय आय का 15 प्रतिशत हिस्सा 5 प्रतिशत लोगों के हाथों में था। जबकि सन् 2000 में यही 5 फीसदी लोग देश की 40 प्रतिशत आय का लुत्फ उठा रहे हैं। सरकार के आर्थिक विकास के दावों के बावजूद देश में गरीबी निरंतर बढ़ती जा रही है। ताजा अध्ययन बताते हैं कि देश की एक तिहाई आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन कर रही है। गरीबी के अंतर्राष्ट्रीय मानक एक डॉलर प्रतिदिन से कम आय को गरीबी का आधार मानें तो भारत में गरीबों की संख्या 50 प्रतिशत से अधिक होगी। देश में बेरोजगार तो गरीबी की प़ीडा भोग ही रहे हैं, बल्कि कामकाजी लोगों का भी एक बड़ा वर्ग गरीबी और बदहाली से त्रस्त है।

पिछले दिनों केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना की औपचारिक शुरुआत की है। इस योजना के तहत देश के 6 करोड़ ग्रामीण घरों के प्रत्येक एक सदस्य को साल भर में 100 दिन के रोजगार की गारंटी का अधिकार मिलेगा। मोटे तौर पर सोचा जाए तो यह योजना ग्रामीण गरीबों की जीवन रेखा साबित होगी, क्योंकि देश की 70 फीसदी आबादी गांवों में निवास करती है।

योजना आयोग ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि पिछले दशक में देश में रोजगार की संभावनाएं लगातार क्षीण हुई हैं। 1983 तक जहॉं भारत में रोजगार वृद्धि दर 2.7 प्रतिशत थी, वह अब गिरकर 1.07 प्रतिशत रह गई है। पिछले दशक में केंद्र सरकारें विश्र्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव में कई सार्वजनिक उपामों को बंद कर निजी हाथों के सुपुर्द करती रही हैं। सार्वजनिक उपामों के बंद होने से देश में बेरोजगारी बढ़नी तय है। क्योंकि ये सार्वजनिक उपाम संगठित क्षेत्र के लिए रोजगार के सबसे बड़े स्रोत हैं। सरकार ने बेरोजगारी की समस्या को समय रहते नियंत्रित न किया तो देश में गरीबी और बदहाली तो बढ़ेगी ही, बल्कि इसके परिणामस्वरूप देश के युवक अपराध में भी लिप्त होंगे। सन् 2010 तक भारत की आबादी 120 करोड़ तक पहुँच जाएगी और रोजगार वृद्धि दर में तीव्र बढ़ोत्तरी न हुई तो देश में बेरोजगारों की संख्या कम से कम 10 करोड़ हो जाने का अनुमान है। आर्थिक उदारीकरण अपनाने के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों और अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों का दबाव व वर्चस्व बढ़ता जा रहा है। घरेलू उद्योग जो उदारीकरण लागू होने से पहले लाभ की स्थिति में थे, वे भारतीय बाजारों में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रवेश के बाद बुरी तरह लड़खड़ाते प्रतीत हो रहे हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों की चुनौती इतनी प्रबल है कि देश का घरेलू औद्योगिक तंत्र निरंतर पिछड़ता जा रहा है।

उदारीकरण के परिणामस्वरूप देश में सूचना प्रौद्योगिकी व सॉफ्टवेयर सरीखे ज्ञान आधारित उद्योगों व सट्टा प्रधान व्यवसायों का भारी विकास हुआ है, पर इससे देश की गरीबी और बेरोजगारी सरीखी चिरंतन समस्याओं के समाधान की राह नहीं निकलती और न ही देशवासियों के जीवन स्तर में सुधार होता है। विश्र्व विकास संघ के सांख्यिकी अध्ययन के नतीजे हमें बताते हैं कि संसार के उच्च आय वर्ग के 20 फीसदी लोग संसार के 86 प्रतिशत सकल उत्पाद के नियंत्रक हैं। इन 20 फीसदी लोगों का विश्र्व निर्यात बाजार के 82 प्रतिशत तथा प्रत्यक्ष निवेश के 62 प्रतिशत भाग पर प्रत्यक्ष नियंत्रण है। निम्न आय वर्ग की आबादी- जो सर्वाधिक भारत में ही निवास करती है- को विश्र्व के सकल घरेलू उत्पाद का एक प्रतिशत से भी कम भाग प्राप्त होता है। कुछ विकसित देशों में नशेबाजी पर होने वाला व्यय 80 विकासशील देशों के सकल घरेलू उत्पाद के योग के बराबर है।

कृषि अब तक भारत में रोजगार का सबसे प्रमुख माध्यम रही है। लेकिन सरकार द्वारा कृषि उत्पादों के आयात पर से मात्रात्मक प्रतिबंध हटा लिए जाने के बाद भारतीय बाजार विदेशी कृषि उत्पादों से भर गए हैं। सरकार की खुली आयात नीति के कारण भारतीय किसानों की हालत दयनीय हो गई है। उन्हें बाजारों में अपनी फसल का लागत मूल्य भी नहीं मिल पा रहा है। देश में पाम और सोया खाद्य तेलों के आयात में हुई बेतहाशा वृद्धि के कारण बाजारों में सरसों, तिल व मूंगफली सरीखे भारतीय खाद्य तेलों की मांग में तीव्र गति से गिरावट आई है। पिछले दिनों हुए एक अध्ययन की रिपोर्ट में बताया गया है कि विश्र्व के 30 संपन्न देशों के किसान प्रतिदिन 46 अरब रुपए की सब्सिडी का लाभ पाते हैं। इसके मुकाबले भारत में औसत किसान को प्रतिमाह 50 रुपए से भी कम का सब्सिडी लाभ मिलता है। सरकार पर इस नाममात्र की कृषि सब्सिडी को भी समाप्त करने के तकादे तेज हो रहे हैं। इस कारण भारतीय किसान प्रतिस्पर्द्धा में पिस रहे हैं और कृषि के पेशे से विमुख होते जा रहे हैं। कमोबेश यही हालत पशुपालक किसानों की है। देश में दूध, मक्खन, पनीर आदि उत्पादों के बढ़ते आयात के कारण पशुपालकों के समक्ष अस्तित्व का संकट उठ खड़ा हुआ हैं। आज किसानों के लिए खेती और पशुपालन दोनों ही काम अलाभकारी सिद्ध हो रहे हैं और उनके लिए आजीविका की समस्या   उत्पन्न हो गई है। कृषि की तरह भारत में लघु उद्योग भी रोजगार के प्रमुख स्रोत रहे हैं। लेकिन पिछले वर्षों में सरकारी नीतियों के कारण लघु उद्योगों का विकास अवरुद्ध है। सरकार ने लघु उद्योगों को प्रोत्साहन देने की बजाय उनके लिए आरक्षित उत्पादों में निरंतर कटौती की है। इससे लघु उद्योगों की सेहत कमजोर हुई है और रोजगार के अवसर कम हुए हैं। इसी प्रकार देश में बुनकर, कुम्हार, बढ़ई, लोहार, मछुआरे, बसोड़े आदि कई वर्ग अपने हाथ के हुनर से अपनी आजीविका चलाते थे। लेकिन देश में नई टेक्नोलॉजी के आगमन के साथ ही इन कर्मप्रधान पेशों का अस्तित्व संकट से घिर गया है और इन लोगों के सामने आजीविका की समस्यायें मुंह बाए खड़ी हैं।

यह सही है कि उदारीकरण से देश का आर्थिक और औद्योगिक विकास तेज़ी से हुआ है, लेकिन इस विकास का लाभ देश के आम आदमी को नहीं मिल पाया है। एक ओर हम कहते हैं कि हमारा लक्ष्य देश के प्रत्येक नागरिक के लिए भोजन,पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास व रोजगार की व्यवस्था करना है, वहीं दूसरी ओर हम ऐसी आर्थिक और औद्योगिक नीतियां अपनाते हैं, जिससे आर्थिक विकास का समूचा लाभ देश के 5 प्रतिशत अभिज्यात वर्ग को मिलता है। सरकारी नीतियों का यह विरोधाभास समाज में असंतोष और आाोश को जन्म दे रहा है। देश के गरीबों का जीवन स्तर सुधारना और बेरोजगारी को दूर करना, सचमुच सरकार की प्राथमिकता है तो उसे इस दिशा में गंभीर और ईमानदार कदम उठाने होंगे। भारत में बेरोजगारी और गरीबी की समस्या का समाधन आर्थिक विकास के पश्र्चिमी मॉडल से नहीं निकलेगा। हमें देश की आर्थिक क्षमता का विकास हमारी भौगोलिक परिस्थितियों, कामगारों की क्षमता और जनता की ज़रूरतों को ध्यान में रख कर करना होगा। औद्योगीकरण के पश्र्चिमी मॉडल को भारत की जमीन पर आरोपित कर देश को बेरोजगारी और गरीबी सरीखी चिरंतन समस्याओं से मुक्त नहीं किया जा सकेगा। देश में रोजगार को नागरिक के मूलभूत अधिकार की श्रेणी में लाकर सरकार को रोजगार सृजन के प्रभावी और परिणामोन्मुख कदम उठाने होंगे। भूमि सुधारों को सही तरीके से लागू किया जाए, बाल मजदूरी पर प्रभावी रोक लगाई जाए, बैंकों की बकाया वसूली के कारगर अभियान चलाए जाएं, सार्वजनिक क्षेत्र के उपामों के निजीकरण पर रोक लगाई जाए- ऐसे अनेक कदम हैं जो देश में बेरोजगारी पर काबू पाने में सहायक हो सकते हैं। इसके अलावा कृषि तथा लघु उद्योगों को प्रोत्साहन देना रोजगार सृजन का सबसे कारगर उपाय हो सकता है। कृषि व लघु उद्योगों को सरकार द्वारा सब्सिडी और समर्थन मिले तो ये न केवल देश की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करेंगे, बल्कि देश को बेरोजगारी के संकट से उबारने में सहायक भी होंगे। सरकार को आश्र्वासनों और वादों से ऊपर उठ कर रोजगार सृजन की दिशा में व्यावहारिक और परिणामोन्मुख कदम उठाने होंगे।

– आलोक खटेड़

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