गृहस्थ के बिना संन्यास नहीं होता और संन्यास न हो, तो गृहस्थ का महत्व नहीं रहता उसमें शुद्घि और पवित्रता नहीं रहती। गृह-वास एवं गृह-त्याग, दोनों का अपना-अपना महत्व है। ब्राह्मण परम्परा में चार प्रकार के आश्रम माने गए हैं। इन चार आश्रमों में ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम और संन्यास आश्रम आते हैं। इस प्रकार जीवन को चार भागों में बांट दिया गया है। पच्चीस वर्ष तक मनुष्य को विद्यार्थी जीवन, आगामी पच्चीस वर्ष तक गृहस्थ जीवन, तत्पश्र्चात पच्चीस वर्ष तक वानप्रस्थ जीवन और अंत में पच्चीस वर्ष तक ही संन्यास जीवन ग्रहण कर लेना चाहिए। यही ब्राह्मण परम्परा की मान्यता रही है।
इन चार आश्रमों में सबसे बड़ा है गृहस्थ जीवन। महाभारत में इसका बहुत समर्थन किया गया है। प्रश्न प्रस्तुत हुआ- गृहस्थ आश्रम सबसे बड़ा कैसे? इस प्रश्न के संदर्भ में कहा गया कि ब्रह्मचर्य आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम, संन्यास आश्रम- इन तीनों को धारण कौन करता है? इनका भरण-पोषण कौन करता है? ज्ञान और अन्न, दोनों दृष्टियों से ये तीनों आश्रम गृहस्थाश्रम पर अवलम्बित हैं। ब्रह्मचर्य आश्रम के व्यक्तियों को गृहस्थ पंडित पढ़ाते हैं, अध्यापक पढ़ाते है। उनके अन्न की व्यवस्था भी गृहस्थ ही करते हैं। वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम की व्यवस्था का उत्तरदायित्व भी गृहस्थ वहन करता है। मनुस्मृति का प्रसिद्घ श्लोक है-
यस्मात् त्रयोप्याश्रमिणो, ज्ञानेनान्नेन चान्वहम्।
गृहस्थेनैव धार्यन्ते, तस्माज्ज्येष्ठा श्रमो गृही।।
ज्ञान और अन्न के द्वारा तीनों आश्रमों को गृहस्थ ही धारण करता है, इसलिए वह ज्येष्ठाश्रम है, सबसे बड़ा आश्रम है। गृहस्थ ही तीनों आश्रमों की व्यवस्था वहन करता है, इसीलिए यह ब्राह्मण परंपरा के अनुरूप बनाए गए चारों आश्रमों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना गया है।
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