गोपमाल महर्षि अंगिरा के शिष्य थे। विद्या पूर्ण हो जाने के बाद महर्षि ने उन्हें सदाचार का पालन करते हुए गृहस्थ जीवन जीने की प्रेरणा दी। गोपमाल की पत्नी भी संस्कारी और धर्मपरायण थी। दोनों गृहस्थ जीवन का पालन करने के साथ-साथ गायों की सेवा करते थे। गायों का दूध बूढ़े एवं असहाय लोगों को देकर उन्हें बहुत संतोष मिलता था। एक बार अनजाने में गोपमाल से कोई पापकर्म हो गया। उनका हृदय ग्लानि से भर गया। कई रात वह सो नहीं पाए। एक दिन अपने प्राण त्यागकर प्रायश्र्चित करने के उद्देश्य से वह जंगल की ओर निकल पड़े। पीछे-पीछे उनकी पत्नी भी चल पड़ी।
गोपमाल अभी कुछ ही दूर गए थे कि सामने महर्षि अंगिरा आ खड़े हुए। गुरु को पता चल गया था कि पाप से भयभीत होकर उनका शिष्य आत्मघात के लिए जा रहा है। मर्हार्ंिर्ष ने उन्हें समझाते हुए कहा, “अनजाने में हुए कृत्य का प्रायश्र्चित इस तरह नहीं हो सकता। गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए सद्कार्यों में निरंतर लगे रहो। वृद्घों एवं रोगियों की सेवा के कार्य में बाधा न आने दो। मनुष्य जीवन बड़े भाग्य से मिलता है। उसे नष्ट करना घोर अधर्म है।’ गोपमाल महर्षि के चरणों में लोट गए। महर्षि अंगिरा ने उन्हें उठाकर कहा कि जैसा मैंने कहा, वैसा ही करो। बाद में गोपमाल साधना और सेवा के बल पर बहुत विख्यात हुए।
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