यशोधर्मा देवी का परम भक्त था। एक बार उसने विंध्यवासिनी देवी की कृपा प्राप्त करने के लिए कठोर साधना की। वर्षों तक की गई साधना से प्रसन्न होकर विंध्यवासिनी ने उसे दर्शन दिए। उन्होंने पूछा, “मैं तुम्हें कुछ देना चाहती हूँ। तुम्हें धनलक्ष्मी चाहिए या भोगलक्ष्मी?’ यशोधर्मा ने कहा, “मैं निर्णय नहीं ले पा रहा।’ देवी ने कहा, “तुम कौतुकपुर जाओ। वहॉं भोगवर्मा और अर्थवर्मा नामक दो व्यक्ति रहते हैं। उनकी स्थिति देख कर आओ। दोनों लक्ष्मियों में जो पसंद आ जाएं, आकर मांग लेना।’
यशोधर्मा कौतुकपुर गया। पहले वह अर्थवर्मा के घर पहुँचा। उसने देखा कि उस घर में धन का अनर्गल उपयोग किया जा रहा है। बिना स्नान किए घर के लोग अंधाधुंध खा-पी रहे हैं। गंदे कपड़े पहने हुए हैं। किसी भी अतिथि की सेवा को तत्पर नहीं होते। यशोधर्मा निराश होकर लौट आया।
अब वह भोगवर्मा के पास पहुँचा। भोगवर्मा की पत्नी भगवान की पूजा में मगन थी। सभी स्नान के बाद स्वच्छ वस्त्र पहनकर तैयार थे। उन्होंने यशोधर्मा के पहुँचते ही विनम्रता से स्वागत-सत्कार किया। उन्हें प्रेम से भोजन कराया। फिर उनसे हाथ जोड़ कर पूछा, “कुछ सेवा-सहायता की ़जरूरत हो, तो मैं तत्पर हूँ।’ प्रातःकाल यशोधर्मा विंध्यवासिनी देवी के पास पहुँचा। वह बोला, “माताश्री! मुझे भोगलक्ष्मी प्रदान करने की कृपा करें, जिससे मैं धन का सेवा-परोपकार में उपयोग कर सकूं।’
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