जीवन गीता

कौशल प्रदेश में देवदत्त नामक एक विद्वान ब्राह्मण निवास करते थे। वह निःसंतान थे। एक बार गोभिल मुनि ने किसी बात से रुष्ट होकर उन्हें शाप दे दिया, “तुम्हें संतान सुख तो मिलेगा, किन्तु तुम्हारा पुत्र मूर्ख होगा।’ देवदत्त धर्मशास्त्रों के अध्येयता थे। उन्होंने विनम्रता के साथ कहा, “मुनिवर पुत्र के मूर्ख और दुष्ट होने से तो अच्छा है कि संतान ही न हो। वेदों में स्पष्ट लिखा है कि मूर्ख ब्राह्मण न तो पूजा के योग्य होता है और न ही उसे आदर मिल पाता है। धर्मशास्त्रों में तो यहॉं तक लिखा है कि वेदविहीन मूर्ख ब्राह्मण को दान नहीं देना चाहिए। उस राजा के राज्य को धिक्कार है, जहॉं धन के बल पर मूर्ख पूजे जाते हैं और विद्वानों का अनादर होता है. अतः मैं आपसे विनम्र प्रार्थना करता हूँ कि आप इस शाप को वापस लेने की कृपा करें।’

पण्डित देवदत्त ने मुनि के चरणों में झुक कर कहा, “मुनिवर! आप महान धर्मशास्त्री हैं। आपने शाप देते समय यह नहीं सोचा कि संसार में मूर्ख और शठपुत्र का पिता होना मृत्यु से भी अधिक कष्टप्रद होता है?’

देवदत्त के वाक्य सुनकर मुनि गोभिल को दया आ गई। उन्होंने उन्हें आशीर्वाद दिया कि “तुम्हारा पुत्र तप और सत्य की साधना करते-करते मूर्ख से परम विद्वान बन जाएगा।’ आगे चलकर पण्डित देवदत्त के पुत्र सत्यव्रत ने अपनी अनूठी सत्यनिष्ठा के बल अग्रणी विद्वान की ख्याति अर्जित की।

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