जीवन गीता

दुनिया में सारे सुख मिल जाएं तो जरूरी नहीं है कि शांति भी प्राप्त हो जाए। ये दोनों अलग-अलग बातें हैं। मन की शांति दूसरों के दुःखों को दूर करके भी प्राप्त की जा सकती है। इस संबंध में एक कथा है। एक राजा थे। वे अशांत स्वभाव के थे। एक बार उनके नगर में एक भिक्षु आया। भिक्षु के उपदेश से राजा बेहद प्रभावित हुए। उन्होंने भिक्षु से पूछा, “आपके चेहरे पर जो दिव्य शांति दिखाई दे रही है, क्या वह मुझे भी प्राप्त हो सकती है? यदि हो सकती है, तो इसके लिए मुझे क्या करना होगा? मैं राजा हूँ, तब भी अशांत हूँ।’ भिक्षु ने जवाब दिया, “हॉं, बिल्कुल प्राप्त हो सकती है। इसके लिए आपको अकेले में बैठ कर चिंतन करना होगा।

दूसरे दिन सुबह ही राजा राजमहल के एक कमरे में अपना आसन जमाकर बैठ गए। कुछ देरबैठे रहे। वे अकेले परेशान होने लगे। तभी उनके राजमहल का एक कर्मचारी उधर सफाई के लिए आया। राजा उससे बात करने लग गए। कर्मचारी के दुःखों को सुनकर उनका मन भर आया। कुछ समय बाद राजा चिंतन करते हुए राजमहल में ही घूमने लगे। घूमते-घूमते ही उन्होंने अपने राजमहल के हर कर्मचारी के दुःखों के बारे में जाना। सभी कर्मचारियों के दुःखों का मूल कारण खाने के लिए भोजन और पहनने के लिए कपड़ा था। राजा ने अपने कर्मचारियों के वेतन में वृद्घि की और उन्हें कपड़े बांटे।

शाम को राजा फिर से भिक्षु से मिलने गए। भिक्षु ने पूछा, “राजन, आपको कुछ शांति प्राप्त हुई?’ राजा ने कहा, “नहीं महात्मन, मुझे शांति तो प्राप्त नहीं हुई, किंतु अशांति थोड़ी-थोड़ी जाती रही है, जब मैंने मनुष्य के दुःखों के स्वरूप को जाना है।’ भिक्षु ने कहा, “वास्तव में आपने शांति के मार्ग को खोज लिया है, बस अब उस पर आगे बढ़ जाएं। राजा तभी प्रसन्न और शांत रह सकता है, जब उसकी प्रजा प्रसन्न हो।’

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