जीवन एक यात्रा है और प्रत्येक मनुष्य यहॉं यात्री है। जन्म से लेकर मृत्यु तक हर मानव इस जीवन-यात्रा पर यात्रायित रहता है। यह जीवन-यात्रा और उसके यात्री तभी सफल होते हैं, जब जीने का सही अर्थ जान लें। व्यक्तित्व व्यक्ति का अपना होता है, मगर उसे सृजन, विकास और सुरक्षा में बाहरी परिवेश, वातावरण, संपर्क, संवाद, संबंध, सहयोग सभी का बुनियादी योगदान रहता है। जीवन को सार्थक और उद्देश्यपूर्ण दिशा देने में धर्म की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। धर्म ही वह आधार है, जो मनुष्य को बाहरी विकास के साथ-साथ अपने आंतरिक विकास की ओर अग्रसर करता है।
जीवन-यात्रा को सफल और सार्थक बनाने में कुछ बातों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है। जैसे- प्रभु यीशु ने कहा है कि जो अंधेरे में चलता है, वह लड़खड़ाता और गिरता है, लेकिन जो सूर्य के प्रकाश में चलता है, वह लड़खड़ाता नहीं है, गिरने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। इसी भांति महावीर ने कहा, “”जैसे ओस की बूंद घास की नोक पर थोड़ी देर तक ही रहती है, वैसे ही मनुष्य का जीवन भी बहुत छोटा है, शीघ्र ही नष्ट हो जाने वाला है। इसलिए क्षणभर को भी प्रमाद न करो।”
इसलिए श्रेष्ठतम जीवन कैसे जीया जाए, इस पर विचार करना होगा। जब हम इस प्रश्र्न्न की गहराई में जायेंगे, तो हमें अपने भीतर राग, द्वेष, झूठ, पाखंड, लाभ, कपट और अहंकार जैसे अनेक विकार दिखाई देंगे, लेकिन साथ ही सत्य, करुणा, मैत्री, पवित्रता के भाव भी दिखाई देंगे। यह हमारा स्वयं का निर्णय होगा कि हमें किन भावों को आगे लाना है। हमारे लिए जीवन-यात्रा का सर्वश्रेष्ठ पाथेय है कि उनसे सदा दूर रहना, जिनसे अशुभ मिलता हो और उनके सदा करीब रहना, जिनसे कुछ श्रेष्ठ मिलता है। मनुष्य जीवन की विडम्बना है कि हमें जो भी कुछ देता है, हम बिना सोचे-विचारे उसे बटोर लेते हैं। इस प्रकार अपने जीवन में भी कचरा इकट्ठा कर लेते हैं। उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति रास्ते में कुछ अफवाहें सुनाना शुरू करे तो हम उसे अत्यंत ध्यान से सुनते हैं, इसी तरह दूसरों की निंदा और दोषारोपण को भी हम बिना सोचे-समझे मन के भीतर जमा कर लेते हैं। व्यर्थ की बातों में सिर खपाना हमारी दिनचर्या का हिस्सा बनकर रह गया है। कितनी विचित्र बात है कि हमारे आंगन में कोई कचरा डाल जाये तो हम नाराज होकर उससे झगड़ने चले जाते हैं, लेकिन जब कोई हमारे मन में, मस्तिष्क में झूठी और निरर्थक बातों का कचरा डालता है तो हम न नाराज होते हैं और न उसे लेने से इनकार करते हैं।
यह जीवन की एक बड़ी विसंगति है, जो सार्थक जीवन की बाधा भी है। जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव आते रहते हैं, कभी सुख की छांव गहराती है तो कभी दुःख की धूप तपती है। कभी अच्छे कामों की निन्दा सुनने को मिलती है तो कभी बुरे कामों पर झूठी प्रशंसा भी होती देखी जाती है। कभी अनसोचा लाभ हो जाता है तो कभी प्रयत्नों के बावजूद भी हानि उठानी पड़ती है। कभी अनुकूलताएँ कदमों पे झुकती हैं तो कभी प्रतिकूलताएँ तूफानी हवाओं के साथ जमीं से पैर उखाड़ने की कोशिशें करती हैं। कहा नहीं जा सकता कि जीवन में कब और कौन-सा क्षण जीवन को कैसा अनुभव दे जाये।
महत्वपूर्ण बात होती है इन विपरीत दिशाओं में भी धूप की तरह स्वयं को अनछुआ रख लेना। मनुष्य सामुदायिक जीवन से जुड़ा है। सबकी रुचियां, स्वभाव, चिंतन, आदतें, पसंद, जीवन-शैली भिन्न-भिन्न होती हैं। इस भिन्नता में सबके अनुकूल स्वयं को वही ढाल सकता है, जो स्वयं को संतुलित रख सकता है और सबको सह सकता है।
वस्तुतः मानव और मानव-जीवन की श्रेष्ठता को सब स्वीकार करते हैं, किन्तु कम ही लोग जानते हैं कि श्रेष्ठ मानव-जीवन कौन-सा है। जिसने भौतिक संपदा अर्जित की है, बड़े-बड़े भवन बनाये हैं, सांसारिक भोग-विलास की वस्तुएं जुटाई हैं, उसे प्रायः सफल व्यक्तित्व माना जाता है। इस सबके पीछे कितनी अनीति, कितनी बेईमानी छिपी है, यह कोई नहीं देखता।
मनुष्य का जीवन बड़ा जटिल है। वास्तव में वह बड़ा सरल है, लेकिन हमने उसे जटिल बना दिया है। प्रकृति जब पैदा करती है, तब मनुष्य के पास कुछ नहीं होता और जब वह जाता है तब भी उसके हाथ खाली होते हैं। लेकिन आदमी है कि अपने जीवनकाल में दुनिया भर के प्रपंच करता है।
जीवन में प्रतिपल प्रकाश की आवश्यकता होती है। प्रकाश के अभाव में अंधकार होता है। अंधकार में रास्ता नहीं दिखाई देता, इसलिए आदमी पग-पग पर ठोकर खाता है। इसी से हमारे संत-मनीषियों ने कहा है कि अपनी चेतना को जाग्रत रखो और विवेक की तराजू को हमेशा हाथ में लेकर चलो। जो व्यक्ति ऐसा करता है, उसका जीवन सुफल और सार्थक हो जाता है। आत्मा शुद्ध और बुद्ध है। वह ज्योति-पुंज है, लेकिन मनुष्य उस पर कषायों का आवरण डाल कर ढक देता है। यह आवरण है काम का, ाोध का, लोभ का, मोह का, मद-मत्सर का। इन सब बुराइयों की गांठें वह अपने अंतर में बांधता रहता है। वे गांठें उसे दिखाई नहीं देतीं, इसलिए उनकी वह चिंता भी नहीं करता। बाहर कोई गांठ हो जाती है तो वह हैरान होकर तत्काल चिकित्सक के पास दौड़ता है, उसका उपचार कराता है, किन्तु जिनका उपचार उसे करना चाहिए, उनकी ओर उसका ध्यान नहीं जाता। अहंकार के मद में डूब कर व्यक्ति जीवन के ध्येय से ही विमुख हो जाता है।
वह सब कुछ जीत लेना चाहता है, लेकिन असली जीत तो अपने को जीत लेना है। कहावत है। जिसने अपने को जीत लिया, उसने जग को जीत लिया। हमारे धर्म-पुरुषों ने इसके उज्ज्वल दृष्टान्त प्रस्तुत किये हैं। वे अकिंचन होकर रहे हैं, किन्तु सारे संसार की संपदा उनके चरणों में लोटती रही है। वर्तमान युग में गांधी जी इसके जीते-जागते उदाहरण थे।
विश्र्व के अधिकांश व्यक्ति आज भौतिक मूल्यों के उपासक बन गये हैं और जीवन के धर्म को भूल गये हैं। उनकी इस उपासना ने दुनिया के बाह्य रूप को बड़ा लुभावना बना दिया है। इसी से मनुष्य उसी के पीछे दौड़ रहा है। यदि वह क्षण भर रुक कर गंभीरता से सोचे तो उसे पता चलेगा कि यह सब मृग-मरीचिका है, भ्रम-जाल है। जीवन वह नहीं है, जिसे वह जी रहा है।
– मनीष जैन
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