जीवन संध्या

आज फिर सुबह से घर में महाभारत छिड़ गया था। दादी ने ऑफिस जाते हुए टोक जो दिया था, मम्मी-पापा को। कई दिनों से दादी के चश्मे की डंडी टूट गयी थी तथा घुटनों के दर्द की दवाई भी खत्म हो रही थी। बस इतनी-सी बात थी, लेकिन मम्मी को तो बहाना चाहिए दादी से लड़ाई करने का। उनकी हर बात वह काट देती थीं। पापा के सामने झूठी-सच्ची बातें कहती रहतीं, पर दादी हमेशा चुप रहतीं। शुरू-शुरू में तो पापा मम्मी की बातों पर ध्यान नहीं देते थे, पर अब तो वे भी जब-तब दादी को डांट कर चुप करा देते थे।

दादी की आंखों से अश्रु बह निकले, जिससे उनका गुस्सा और भड़क उठा तथा चिल्लाकर बोलीं, “”अब आप यह नौटंकी बंद कीजिए, कितनी बार कहा है कि हमें जाते हुए मत टोका करें। एक दिन दवाई नहीं आएगी तो….”, उनकी बात सुनकर किसी तरह आंसुओं को तो दादी ने रोक लिया, पर उनका हृदय रोता रहा। मम्मी के सामने किसी की भी हिम्मत नहीं होती थी, कुछ कहने की। जब भी मां नानी के घर से आती थीं, तो चार-पांच दिन उखड़ी-उखड़ी रहती थीं, खास कर दादी से। नानी मम्मी को कहतीं, “”तू अपनी सास को उनके छोटे बेटे के पास क्यों नहीं भेज देती, सारा दिन घर में मनहूसियत-सी छाई रहती है।”

दादी मां शिक्षिका की नौकरी से सेवानिवृत्त, ईश्र्वर में विश्र्वास रखने वाली पतिव्रता व साधारण स्त्री थीं। ताउम्र अपने परिवार की शक्ति बनी रहीं। अपने दोनों बेटों को उच्च शिक्षा दिलायीं। दादी की तपस्या का ही परिणाम है कि आज पापा और चाचा जी ऊंचे पद पर कार्यरत हैं। सेवानिवृत्ति के पश्र्चात उनकी दुनिया सिमट कर छोटी-सी हो गयी थी। वह घर के समीप स्थित मंदिर में सुबह-शाम कुछ वक्त गुजारती थीं। रिश्तेदारों को भी अपने पास नहीं बुला सकती थीं, क्योंकि मम्मी के स्टैंडर्ड में फर्क पड़ता था। कभी-कभार दादी की छोटी बहन आ जातीं तो वह भी मम्मी को सहन नहीं होता था। थोड़ी-थोड़ी देर में कटाक्ष करती ही रहतीं कि यह घर धर्मशाला नहीं है, जहां कोई भी ऐरे-गैरे आकर आराम फरमाएं। ये सब सुनकर दादी तिलमिला जातीं।

एक समय था, जब दादी के दोनों बेटों के बारे में कहा जाता था कि बेटे हों तो ऐसे। पापा व चाचा दोनों ही होनहार व आज्ञाकारी बेटे कहलाते थे, पर आज दोनों ही अपनी आंखों के सामने अपनी ही मां को अपमानित होते देखते रहते हैं। दादा जी के स्वर्गवास होने के पश्र्चात् तो दादी जी निःसहाय-सी हो गयी थीं। सब सुनकर विष के घूंट पीकर रह जाती थीं।

कहते हैं, मां तो मां होती है। चाची कितना भी कटु बोलतीं, फिर भी दादी कभी उनके लिए बुरा नहीं चाहती थीं। शादी के आठ वर्ष पश्र्चात् भी चाची की गोद नहीं भरी थी। इसलिए दादी हमेशा उनके लिए भगवान से दुआ मांगतीं कि “गौरी’ की भी गोद भर जाये। मेरे बेटे को भी संतान सुख मिल जाये। चाची अंतर्राष्टीय कंपनी में नौकरी करती थीं। दादी को कुछ नहीं समझती थीं। मम्मी व चाची दोनों ने ही दादी को कभी सास वाला सम्मान व प्यार नहीं दिया।

आज तो हद ही हो गई, जब मम्मी ने पापा से कहा कि आंटी को वृद्घाश्रम क्यों नहीं छोड़ आयें? मम्मी दादी को “अम्मा’ या “मम्मी’ कहने की बजाय “आंटी’ कहती थीं, क्योंकि वह दादी की बचपन की सहेली की बेटी थीं। दादी को “आंटी’ संबोधन सुनकर दुःख तो बहुत लगता था, पर चुप्पी लगा लेती थीं। वृद्घाश्रम की बात सुनकर पापा एकदम चौंक से गये। परन्तु मम्मी के तर्क-वितर्क के सामने उनकी एक नहीं चली। शाम को ऑफिस से आने के पश्र्चात् कुछ सकुचाते हुए दादी से बोले, “”मां, मुझे कुछ बात करनी है आपसे।”

“”हां, बोल बेटा, सोच क्या रहा है? मां से कुछ बात करने से संकोच कैसा?” पता नहीं कितने दिनों पश्र्चात् आज पापा दादी से बात कर रहे थे। दादी का दिल कर रहा था कि अपने बेटे को गले लगा लें, पर मम्मी की घूरती आंखों के आगे वह विवश थीं।

“”मां, मैं चाहता था कि… आपके लिए वृद्घाश्रम ज्यादा ठीक रहेगा। आप यहां सारा दिन अकेले रहते हुए, बोर हो जाती होंगी, वहां आपके साथ की और भी महिलाएं होंगी। आश्रम में सभी सुविधाएं हैं, वहां आपको किसी भी प्रकार की… तकलीफ नहीं होगी। वहां सत्संग भी रोज होता है। आप वहां बहुत खुश… रहेंगी।” पापा ने किसी तरह अपनी बात पूरी की। अब दादी के बोलने की बारी थी। वह बोलीं, “”मुझे घर छोड़कर आश्रम में जाने की बात कह रहा है। बेटा वहां औलाद द्वारा ठुकराए हुए बूढ़ों के लिए सब कुछ है। पर बेटा, वहां तुम नहीं होगे, मेरी फूल-सी कोमल पोती नहीं होगी, वहां…।” कहते-कहते उनकी आंखें भर आयीं और गला रुंध गया। एकटक निहारते-निहारते वह फूट-फूट कर रोती रहीं।

मम्मी बहुत खुश नजर आ रही थीं। गाड़ी में दादी का पुराना छोटा-सा बक्सा व कुछ खाने-पीने का सामान रखा जा रहा था। घर से आश्रम का रास्ता एक घंटे के करीब का था। पूरे रास्ते गाड़ी में सन्नाटा रहा। मैं कुछ बोलना चाहती तो मम्मी आंखें निकाल कर चुप करा देतीं। झटके के साथ गाड़ी आश्रम के सामने जाकर रुकी। सामने देखा, मोटे-मोटे काले शब्दों में लिखा हुआ था “जीवन-संध्या’ आश्रम। दादी की आंखें लिखे हुए शब्दों पर अटकी रहीं। लगता था, वो मन ही मन कुछ दृढ़-संकल्प कर रही हैं।

मम्मी-पापा ने आश्रम की औपचारिकताएं पूरी कीं। मम्मी की तो मानो कोई मुराद पूरी हो रही हो। पापा आकर बोले, “”मां, सब कार्य पूरा हो गया। आपका कमरा नं. 10 है। चलो आपको छोड़ आयें।” मम्मी-पापा जैसे ही दादी का सामान उठाने लगे तो दादी ने बड़े सख्त लहजे में कहा, “”खबरदार जो मेरे सामान को हाथ लगाया। मैं अपना बोझ उठाने में अभी समर्थ हूं। अपनी बीवी और बच्चे को लेकर घर चले जाओ। जाओ, मैं खुद चली जाऊँगी।” दादी अपनी धोती के पल्लू को मुंह में दबाए अपना बक्सा उठाकर चल पड़ीं। “”मां मेरी बात तो सुनो…।”

“”अब तुम्हारे मुंह से “मां’ शब्द अच्छा नहीं लगता।” “”नहीं मां, हम हर रविवार तुम्हें मिलने आया करेंगे। तुम अपने को अकेली मत समझना।”

“”यहां कभी मिलने मत आना, और न ही किसी को यहां का पता देना। मुझे किसी से नहीं मिलना।” कुछ ही क्षण पश्र्चात् मम्मी हाथ में कुछ कागजात लेकर आयीं और बोलीं, “”अच्छा आंटी, इन कागजों पर आप दस्तख्त कर दीजिए।” “”क्यों?” दादी विस्फारित नेत्रों से बोलीं।

“”अब आप तो यहां रहेंगी, पता नहीं आपको कब क्या हो जाये? ये वसीयत के कागज हैं, ये तो आप ही कहती थीं न कि तुम्हारे बाद ये सब हमारा ही तो है। तो फिर क्यों नहीं आप भी इस जिम्मेवारी से मुक्ति पा लेतीं।”

“”मुक्ति, मुक्ति तो मैंने सबसे पा ली है। बेटा, तुम्हारे पापा द्वारा बनाया घर मैंने “जीवन संध्या’ आश्रम वालों के नाम कर दिया है। मेरे जाने के पश्र्चात् वो वृद्घाश्रम बन जाएगा, जिसमें मेरी तरह न जाने कितने अपनों के द्वारा ठुकराए जाने पर उसमें आकर अपनी जीवन की संध्या बिता सकेंगे।”

मम्मी-पापा अवाक् होकर देखते रह गये। उनके पास अब बोलने के लिए शब्द ही नहीं थे। मैं दादी से लिपट कर रोने लगी। मैं उनके निर्णय पर बहुत खुश थी। मैं चुपचाप गाड़ी में आकर बैठ गयी।

– सुरेखा शर्मा

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