बीते दिनों जापान में खाद्यान्न समस्या, जलवायु, परिवहन और आसमान छूती तेल की कीमतों पर लगाम लगाने का रास्ता खोजने के उद्देश्य से आयोजित जी-8 सम्मेलन में दुनिया ने सबसे धनी आठ देशों के साथ तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों के जी-5 आउटीच समूह ने भी शिरकत की, तीन दिनों तक चले विचार-मंथन में।
इसके लिए 60 अरब येन यानी करीब 283 मिलियन पाउंड और रुपये में करीबन 2400 करोड़ खर्च किए गये। मगर नतीजा वही निकला जिसकी आशंका जताई जा रही थी। ग्लोबल वार्मिंग जैसे अहम मसले पर बात वहीं आकर अटक गई जहां से शुरू हुई थी। विकासशील देशों ने विकसित देशों के कार्बन उत्सर्जन संबंधी फार्मूले को मानने से इनकार कर दिया और विकसित देश अपनी जिम्मेदारी के लिए कोई भी रूपरेखा तैयार करने से बच निकले। हालांकि सम्मेलन के अंत में 2050 तक ग्रीन हाउस गैसों के प्रभाव को कम करने पर सभी देशों ने सहमति जरूर जताई मगर यह साफ नहीं किया गया है कि पहल कौन करेगा। क्या भारत और चीन अपने विकसित होने के सपने को अधूरा छोड़ेंगे या फिर अमेरिका और ब्रिटेन आगे बढ़कर कोई उदाहरण पेश करेंगे, ऐसी कोई संभावना नजर नहीं आती। महज चर्चा के लिए जितनी भारी भरकम राशि खर्च की गई, अगर इतनी राशि गरीबी और भुखमरी की मार झेल रहे आीका के किसी इलाके में खर्च की जाती तो शायद वहां के लोगों का कुछ भला हो जाता। जी-8 सम्मेलन हर बार किसी पिकनिक की तरह ही होता रहा है, जहां दुनिया के बड़े-बड़े नेता मिल-बैठकर कुछ देर चर्चा करते हैं, लजीज व्यंजनों का लुत्फ उठाते हैं, ऐशो-आराम के बीच तीन दिन गुजारते हैं और फिर वापस अपने-अपने देश लौट जाते हैं। पिछली बार भी जर्मनी में आयोजित जी-8 सम्मेलन में ग्लोबल वार्मिंग पर कोई खास कारगर रणनीति नहीं बन पाई थी, हालांकि सदस्य देशों ने 2050 तक ग्रीन हाउस गैसों में 50 फीसदी कटौती के लक्ष्य पर गंभीरता दिखाई थी, लेकिन अमेरिकी राष्टपति जॉर्ज डब्ल्यू. बुश के इस अड़ियल रवैये ने कि जब तक चीन और भारत जैसे विकासशील देश इस पर सहमत नहीं होते, वह रजामंद नहीं होंगे, ने सारे प्रयासों पर पानी फेर दिया। एशिया कार्बन व्यापार के निदेशक के मुताबिक ग्रीन हाउस गैसों में कटौती के लिए जी-8 नेताओं की ओर से स्वच्छ ऊर्जा के जोरदार समर्थन की आशा कर रहे लोगों को निराशा ही हाथ लगी है। जलवायु परिवर्तन के मसले पर ही इंडोनेशिया के बाली में हुए सम्मेलन में भी अमेरिका आदि विकसित देशों की वजह से क्योटो संधि पर बात नहीं बन पाई थी। अमेरिका आदि देश शुरू से ही ग्लोबल वार्मिंग के दुष्प्रभावों के लिए तेजी से विकास कर रहे भारत और चीन को ही दोषी करार देते आए हैं। वह इस बात को मानने को कतई तैयार नहीं हैं कि ग्रीन हाउस गैसों में बढ़ोत्तरी के लिए वो भी बराबर के जिम्मेदार हैं। ग्रीन हाउस गैसें पिछले आठ लाख साल के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई हैं। वैज्ञानिक कई बार आगाह कर चुके हैं कि अगर अब भी इस दिशा में कठोर कदम नहीं उठाए गए तो परिणाम बहुत ही भयानक होंगे। जलवायु परिवर्तन के साथ ही भुखमरी जैसे विषय पर भी सम्मेलन में कुछ खास नहीं हो पाया। महज एक साल में हालात बद से बदतर हो गए हैं। जून, 2007 में कच्चा तेल 70 डॉलर प्रति बैरल था, इस समय ये 150 के आस-पास मंडरा रहा है। दस करोड़ से अधिक लोगों पर भुखमरी का खतरा है। कई देशों में तो रोटी के लिए दंगे तक हो रहे हैं। खुद भारत में ही हालात खस्ता हुए पड़े हैं। पिछले साल यहां मुद्रास्फीति की दर इन्हीं दिनों में 4.33 थी, जबकि अब यह आंकड़ा 12 पार करने को बेताब है। पिछले चार जी-8 शिखर सम्मेलन आर्थिक मुद्दों के साथ आतंकवाद या पंसद-नापसंद के विषयों पर ही भटकते रहे। इस बार भी महज सहमति बनने के अलावा कोई लक्ष्य निर्धारित नहीं हो पाया। अगर हर बार भारी-भरकम खर्च के बाद बात महज सहमति तक ही सिमट के रह जाए तो ऐसे सम्मेलनों का क्या फायदा।
गौरतलब है कि जी-8-दुनिया के सबसे अमीर एवं औद्योगिक देशों का अनौपचारिक संगठन है। ये आठ देश हर साल आम आदमी से जुड़े मसलों पर चर्चा के लिए बैठक करते हैं। इसके सदस्यों में अमेरिका, ब्रिटेन, ाांस, जर्मनी, जापान, इटली और कनाडा हैं, जबकि रूस को 1998 में आठवें सदस्य के रूप में संगठन में शामिल किया गया।
दुनिया की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं भारत, ब्राजील, चीन, मेक्सिको एवं दक्षिण आीका के प्रमुखों को भी इस सम्मेलन में आमंत्रित किया जाता है। इस समूह को जी-5 आउटरीच स्टेट्स कहा जाता है।
वैज्ञानिक मानते हैं कि मानवीय गतिविधियां ही ग्लोबल वार्मिंग के लिए दोषी हैं। ग्लोबल वार्मिंग या वैश्र्विक तापमान बढ़ने का मतलब है कि पृथ्वी लगातार गर्म होती जा रही है। वैज्ञानिकों का कहना है कि आने वाले दिनों में सूखा बढ़ेगा, बाढ़ की घटनाएं बढ़ेंगी और मौसम का मिजाज बुरी तरह बिगड़ा हुआ दिखेगा। इसका असर दिखने भी लगा है। ग्लेशियर पिघल रहे हैं और रेगिस्तान पसरते जा रहे हैं। कहीं असमय बारिश हो रही है तो कहीं असमय ओले पड़ रहे हैं, कहीं सूखा है तो कहीं नमी कम नहीं हो रही है। वैज्ञानिक कहते हैं कि इस परिवर्तन के पीछे ग्रीन हाउस गैसों की मुख्य भूमिका है जिन्हें सीएफसी या क्लोरो फ्लोरो कार्बन भी कहते हैं। इनमें कार्बन डाई ऑक्साइड, मीथेन, नाइटस ऑक्साइड और वाष्प है।
वैज्ञानिक कहते हैं कि इसके पीछे तेजी से हुआ औद्योगीकरण मुख्य कारण है। जंगलों का तेजी से कम होना, पेटोलियम पदार्थों के धुंए से होने वाला प्रदूषण और िाज, एयरकंडीशनर का बढ़ता प्रयोग भी है। इस समय दुनिया का औसत तापमान 15 डिग्री सेंटीग्रेड है और वर्ष 2100 तक इसमें डेढ़ से छह डिग्री तक की वृद्घि हो सकती है। एक चेतावनी यह भी है कि यदि ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन तत्काल बहुत कम कर दिया जाए तो भी तापमान में बढ़ोत्तरी तत्काल रुकने की संभावना नहीं है। वैज्ञानिकों का कहना है कि पर्यावरण और पानी की बड़ी इकाइयों को इस परिवर्तन के हिसाब से बदलने में भी सैकड़ों साल लग जाएंगे। ग्लोबल वार्मिंग में कमी के लिए मुख्य रूप से सीएफसी गैसों का उत्सर्जन कम करना या रोकना होगा और इसके लिए कूलिंग मशीनों का इस्तेमाल कम करना होगा या ऐसी मशीनों का उपयोग करना होगा जिनसे सीएफसी गैसें कम निकलती हैं। औद्योगिक इकाइयों की चिमनियों से निकलने वाला धुंआ हानिकारक है और इनसे निकलने वाला कार्बन डाई ऑक्साइड गर्मी बढ़ाता है। इकाइयों में प्रदूषण रोकने के उपाय करने होंगे।
– नीरज नैयर
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