बरसात के मौसम में उमड़-घुमड़ कर बादल आते हैं, गरजते हैं और बरसकर चले जाते हैं। यह ही वह मौसम होता है जिसमें बिजली भी चमकती है और पोखरों, नालों और आस-पास के गड्डों में भरे पानी के कीचड़ में मेंढकों के झुंड के झुंड इकट्ठे होकर टर्र-टर्र की कर्कश आवाज में टर्राते रहते हैं। ठीक इसी तरह जब चुनाव के दिन आते हैं तब गॉंव-गॉंव, गली-गली में झूठ, भ्रम और अफवाहों के बादल हमारे ऊपर मंडराते हुए देखे जा सकते हैं। टीवी, अखबार, पोस्टर और होर्डिंग्स में नेताओं की तस्वीरें छपने लगें, सड़कों, चौराहों और मुहल्लों में मंच बनने लगें, राजनैतिक पार्टियों की रैलियां निकलने लगें, भाषण, नारों और जिन्दाबाद, मुर्दाबाद की आवाजें उठने लगें तो समझ लो चुनाव दरवाजे तक आ गये और बच्चों-बच्चों की जुबान पर छा गये।
व्यक्ति जहॉं एक से दो, दो से चार और चार से आठ हुए, चल पड़ती हैं चर्चाएँ चुनाव की। इस तरह की जन चर्चाओं के मंच नहीं बनते। ये चर्चाएं दो आदमी के मिलते ही कभी भी, कहीं भी शुरू हो जाती हैं। ग्राहक दुकानदार से माल खरीद रहा हो, चौराहों पर लोग जमा हो गये या सड़कों और फुटपाथों पर चल रहे हों, कोई बस या टेन में सफर कर रहा हो, होटलों और काफी हाउसों में चाय-काफी-नाश्ता चल रहा हो, लंच-डिनर का सामूहिक आयोजन हो, लोग अपने परिवार के साथ डायनिंग टेबिल पर बैठे हों, दामाद ससुराल में गया हो या नाई की दुकान पर कोई हजामत बनवा रहा हो- सब एक ही विषय पर तर्क, कुतर्क और अटकलों पर अटकलें लगाते रहते हैं। अपनी समीक्षात्मक और आलोचनात्मक विशेषज्ञता के प्रदर्शन में व्यस्त हो जाते हैं। क्यों न यह सब हो? जिस तरह वर्षा की स्थिति पर प्रकृति का भावी रूप अवलंबित है, ठीक उसी तरह चुनाव के पूर्वानुमान और उसके नतीजों पर हमारे समाज की आर्थिक, सामाजिक, प्रशासनिक और राजनैतिक दशाएं अवलंबित होती हैं।
बरसात के मौसम के बादलों में पानी भरा रहता है किंतु चुनाव के मौसम के घटाटोप छाये बादलों में पानी नहीं बल्कि झूठ, भ्रम और अफवाहों की भरमार होती है। राजनीति की वाष्प से तैयार ये बादलों के झुंड गरज-गरज कर घोषणा करते रहते हैं, भाषणों और नारों की मेंढकीय टर्र-टर्र और मीडिया में बिजली-सी चमक से धरती को सींच-सींच कर हरी-भरी रखने, सुख और समृद्घि की फसलें लहलहाने के वायदे और आश्र्वासनों की झड़ियां लगाते रहते हैं। राजनीति के ये बादल आसमान में यहॉं से वहॉं और वहॉं से यहॉं बेतहाशा दौड़ते ही रहते हैं। लोग खूब देखते हैं, आशा भरी ऩजरों से इन बादलों को और इंतजार करते हैं लगने वाली झड़ियों के नतीजों का। चौपालों पर जमा लोग इन बादलों के परिणामों की कल्पनाओं पर अपनी-अपनी टिप्पणियां देते रहते हैं और विगत मौसम में बरस गये बादलों की हकीकतों के नाम सिर धुनते रहते हैं। स्वर्गीय कवि पंडित आनंद मिश्र की कविता में ऐसे ही मौसम में बरस गये बादलों पर क्या सटीक बात कही गई है-
“बादल इतने बरस रहे हैं
पौधे फिर भी तरस रहे हैं।
यही चमन को अचरज भारी
पानी कहॉं चला जाता है?’
राजनैतिक दलों के उठे हुए कतिपय बादल केवल आसमानी-सुल्तानी के प्रतीक सिद्घ हो जाते हैं। ऐसे आसमानी बादल आते हैं, भाषणों में गरज जाते हैं, वायदों और आश्र्वासनों में बरस जाते हैं और ऊपर ही ऊपर आसमानी मंच पर नाटक का अभिनय करते हुए ताली बटोरकर चले जाते हैं किंतु जमीन प्यासी ही छोड़ देते हैं।
बस्ती के लोगों, हो जाओ सावधान, फिर आ गया है मौसम चुनाव का। राजनैतिक दलों के आसमान में छाने लगे बादल… इन तीनों प्रदेशों में सत्ता का झंडा लहरा रहा है। एक ऐसी राजनैतिक पार्टी के झंडे जिसके बादल पिछले चुनावी मौसम में खूब छा गये थे, गरज-गरज कर वायदों और आश्र्वासनों की झड़ियां लगा गये थे। लोगों को उस समय के बादलों पर खूब विश्र्वास था। बड़ी उम्मीदें थीं कि समृद्घि की फसलें लहलहायेंगी, किसान समृद्घ हो जायेंगे, आबो-हवा स्वस्थ हो जायेगी। गरीबों, अनुसूचित जातियों, जनजातियों, अल्प-संख्यकों, महिलाओं और युवाओं के दिन फिर जायेंगे। क्या ऐसा कुछ हुआ, और यदि कुछ हुआ तो क्या कहीं दिखा? उस मौसम के बादल भी भरे थे भ्रम, अफवाहों और झूठे वायदों से, जो आसमान में ही रह गये, वे जमीन को स्पर्श नहीं कर पाये परंतु वे दावा करते हैं कि जमीन उन्होंने हरी-भरी कर दी, खूब उत्पादन बढ़ाया, लोगों के घर भर गये। ठीक है, उनका दावा मान लिया। लेकिन इस हकीकत से इंकार नहीं किया जा सकता है कि जिनके घर भर गये हैं और जिनकी जमीनें तर हो गई हैं ऐसे कुछ वे ही लोग हैं जिनकी प्रवृत्ति विघटनकारी है, जो सभी धर्मावलंबियों को एक जाजम पर नहीं देख सकते, जो किसी विशेष संगठनों और विचारधाराओं से जुड़े हैं या फिर भ्रम और झूठ, फरेब का कीचड़ मचाकर उसमें फूल खिलाना चाहते हैं। पिछले मौसम में वायदों और आश्र्वासनों की जो बरसात हुई थी उससे कुछ आंगनों के ही मंडुवे हरे-भरे हो पाये, अमूमन देखा जाय तो गॉंव के गांव बूंद-बूंद पानी को तरस गये। खेत बंजर ही रह गये, सड़कों के गड्ढे गहरे होते चले गये, सिंचाई पम्प करंट विहीन रहे, देहातों में घासलेट की डिबरिया जलती रहीं। कागजों में रोजगार की गारंटियां दबी रहीं। जमाखोरी और मुनाफाखोरी बारहमासी दिवालियां मनाती रहीं, महिलाओं पर अत्याचार होते रहे, दिन दहाड़े चौराहों पर चेन छिनती रहीं, हुड़दंगियों ने सार्वजनिक संस्थाओं और शासकीय प्रतिष्ठानों में खूब हुड़दंग मचाया। अब फिर उसी तरह का मौसम आ गया है। झूठे वायदों, भ्रमों, छलावों, अफवाहों और चरित्र-हनन की झड़िया लगने लगीं हैं और फिर से सत्ता पर काबिज होने के लिए उसी जनता से आशीर्वाद की भीख मांगने के लिए झोलियां फैलने लग गईं हैं। सावधान, तीनों राज्यों के लोगों; इन गरजते बादलों से फिर वही ध्वनि निकल रही है, जिसका हाल विगत पॉंच वर्षों में देखने को मिला था।
– राजेन्द्र जोशी
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