हसरत मोहानी के बारे में फिरा़क गोरखपुरी ने कहा था कि वो नयी ग़जल के संस्थापक हैं। स्वतंत्रता सेनानी व राष्टवाद के घोर समर्थक होने के बावजूद प्रगतिशील धारा से उनका संबंध रहा है। सबसे खास बात यह है कि वे एक शायर के रूप में सौंदर्य और प्रेम की अनूठी अभिव्यक्ति रखते थे, जिसको विख्यात ग़जल गायक गुलाम अली ने घर-घर पहुंचाया है। इतनी सब विशेषताओं को गिनवाने के बाद शायद एक ही नाम जुबान पर आता है और वह है हसरत मोहानी।
चुपके-चुपके रात-दिन आँसू बहाना याद है
हम को अब तक आश़िकी का वो ़जमाना याद है
कवि और शायर का मूल धर्म प्रेम और सौंदर्य की पूजा है और हसरत मोहानी ने स्वतंत्रता-संग्राम में अँग्रे़जों का कड़ा विरोध करने के परिणाम स्वरूप कई बार जेल जाने तथा राजनीतिक गतिविधियों में सिाय रूप से भाग लेने के साथ-साथ शायरी के मूल धर्म को पूरी श्रद्घा के साथ निभाया है। उनकी शायरी में जो दृश्य उभरते हैं, वे कल्पना कम, वास्तविकता से अधिक संबंध रखते हैं।
ऐसा महसूस होता है कि उन्होंने उन दृश्यों को बहुत निकट से देखा है और पूरी ईमानदारी से उसे अपने शेरों में ढाल कर हम तक पहुंचाया है। चुपके-चुपके… ग़जल सुनते हुए ऐसे कई दृश्य हमारे सामने से गु़जरते हैं जैसे प्रेमी को देख कर प्रेमिका का दांतों में उंगली दबाना, मिलन की रात में विरह के दिनों की याद आते ही खुद रोना और प्रिय को रुलाना, दोपहर की धूप में कोठे पे नंगे पॉंव आना, दर्दे दिल की दास्तान बेरु़खी से सुनते हुए हाथों के कंगन घुमाना आदि कई दृश्य उनकी यादों का हिस्सा बन कर जीवंत हो जाते हैं। प्रिय को सोते में देख कर एक दृश्य कुछ यूँ उभरा है-
सिर कहीं, बाल कहीं, हाथ कहीं, पॉंव कहीं
उसका सोना भी है किसी शान का सोना देखो
घर से हर वक्त निकल आते हो खोले हुए बाल
शाम देखो ना मेरी जान सवेरा देखो
कहीं ाोध की बिजली न गिर जाए, इसके लिए शायर उस दृश्य में एक ऩजाकत पैदा करता है। हसरत साहब का यह शेर कभी नहीं भुलाया जा सकता।
सामने सबके मुनासिब नहीं हम पर ये इताब
सिर से ढल जाए ना गुस्से में दुपट्टा देखो
प्रेम का एक महत्वपूर्ण अंश है- प्रतीक्षा। जब इन्त़जार लंबा होने लगता है तो शायर कहता है कि वह अब उस इन्त़जार के बोझ को अपनी आँखों से उठा नहीं पाएगा। इसलिए रात-दिन काटना बहुत मुश्किल है। आश्र्चर्य है कि इन घ़डियों को भी वह खुशी से गु़जार सकता है और यह घ़डियॉं भी बहार के लम्हों के रूप में परिवर्तित हो सकती हैं, लेकिन इस बात का विश्र्वास हो, निश्र्चित तौर पर यह पता हो कि वह प्रेम करता है और उसके आने की पूरी उम्मीद है। उन्होंने अपने एक शेर में प्रतीक्षा के व्यापार के विस्तार का उल्लेख कुछ यूँ किया है-
उनके ़खत की आऱजू है, उनकी आमद का ़ख्याल
किस ़कदर फैला हुआ है, कारोबार-ए-इन्ते़जार
…हालांकि इन्त़जार की यह घड़ियॉं जब लंबी हो जाती हैं तो वह प्रिय को भूलना चाहता है, लेकिन लाख कोशिश करने के बावजूद वह ऐसा नहीं कर पाता। इन्हीं लम्हों को ऩजर है, हसरत मोहानी का यह शेर-
नहीं आती तो याद उनकी महीनों भर नहीं आती
मगर जब याद आते हैं तो अक्सर याद आते हैं
बात शुरू हुई थी, नयी ़ग़जल की संस्थापक के रूप में हसरत मोहानी की भूमिका की। इस बात से किसी को भी इन्कार नहीं हो सकता कि उन्होंने ़ग़जल की खूबसूरती को बुलंदियों तक पहुंचाया है। इसका मुख्य कारण है कि उनकी अभिव्यक्ति और भावनाएँ अनुभव के धरालत से नहीं हटतीं। उनका प्रेम मायूसी और रुसवाई से नहीं डरता बल्कि “प्यार किया तो डरना क्या…’ के रास्ते पर आगे बढ़ता है। यही कारण है कि वे हवाओं से यह पूछते हुए ऩजर आते हैं कि उनमें जो खुश्बू है, वह उनके प्रिय की है। इसका अर्थ यह है कि प्रिय का आज घर से बाहर निकलना हुआ है। प्रिय के छुपने के बावजूद वे संतुष्ट हैं कि अब उन्हें अपनी दिल की आँखों से देखने का मौ़का मिलेगा।
मुझ से तुम छुपने लगे, अच्छा किया, यूँ ही सही
और जो मैं अब दीदा-ए-दिल से तुम्हें देखा करूँ
उल्लेखनीय है कि हसरत मोहानी देश के पहले स्वतंत्रता सेनानी हैं, जिन्होंने संपूर्ण स्वतंत्रता का नारा लगाया था और इसके लिए संघर्षरत रहे। जब देश का विभाजन हुआ तो उनके कई साथी पाकिस्तान चले गये, लेकिन उन्होंने भारत छोड़ने से इन्कार कर दिया। अंग्रे़जों के खिलाफ ते़ज चलने वाली ़कलम के मालिक हसरत मोहानी का जन्म 1875 में हुआ था और 1951 में उन्होंने इस जहॉं को अलविदा कह दिया। शायरी के अलावा जेल में बिताए गये दिनों पर लिखी गयी उनकी किताब “मुशाहिदाते-़िजन्दान’ काफी लोकप्रिय रही।
– एफ.एम. सलीम
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