तुलसी का बिरवा

सूरज आकाश में चढ़ आया था। गदबदे सुंदर बालक-सी सुहानी लगने वाली ठंड, अब बाप के घर से ससुराल जाने वाली नवोढ़ा की तरह माहौल से विदा ले चुकी थी।

रास्ते में राकेश को सामने आता देख मोहन हुमक कर उसके गले लिपट गया “”बहुत दिनों बाद मिल रहे हो यार?”

“”हॉं, पिछले महीनों बहुत परेशानियों से घिरा रहा। घर से बाहर निकलने का मन ही नहीं होता था, सिवाय नौकरी पर जाने के।”

“”क्यों?… ऐसा क्या हुआ?” मोहन के चेहरे पर खेत में उग आए खरपतवार की तरह अनेक प्रश्र्न्नवाचक भाव उभर आए।

“”हुआ क्या?… पहले पिता जी बुरी तरह बीमार पड़ गये। फिर एक भयानक हादसा हो गया।” कहते-कहते उसकी आँखें आँसुओं से छलछला आईं, “”मेरी बारह वर्षीय बेटी मुझसे जुदा हो गयी।”

“”कैसे, क्या हुआ?” संवेदना में आकंठ डूबते हुए मोहन सारा मामला जानने हेतु बेताब हो आया।

“”शानू स्कूल से आ रही थी। 6वीं में पढ़ती थी। सामने से आ रहे एक टक वाले ने उसे रौंद दिया। घटनास्थल पर ही उसने दम तोड़ दिया। अस्पताल ले जाने का भी मुझे अवसर नहीं मिला।”

“”च्य…च्य…च्य… बहुत बुरा हुआ यार! ये साले टक वाले कोई-कोई तो बहुत ही बेपरवाह अंधे होकर गाड़ी चलाते हैं। कोई मरे-कटे इनकी बला से। ये अधिकतर कानून के शिकंजे से भी बच ही निकलते हैं। पुलिस ने डाइवर को गिरफ्तार कर लिया होगा?”

“”नहीं यार! उस समय वहॉं बहुत कम लोगों की आवाजाही थी। दिन के बारह बजे का समय था। टक वाला शानू को रौंद कर टक को भगा ले गया।”

“गजब हो गया यार! चल वहॉं पार्क में बैठते हैं।” वे दोनों पार्क में चले गये। जहॉं तरह-तरह के फूल खिले थे। उनसे उठती भीनी-भीनी गंध सारे माहौल में तैर रही थी। छुट्टी का दिन होने के कारण नये जोड़े हाथ में हाथ डाले उन्मुक्त हास्य-विनोद के साथ विचरण कर रहे थे। वे दोनों नीम के पेड़ के नीचे पड़ी बेंच पर बैठ गये। फूला हुआ नीम का बौर वातावरण को और भी खुशनुमा बना रहा था। मोहन ने फिर बातों की बाती बटते हुए कहा, “”सब ऊपर वाले की मर्जी। उसकी मर्जी पर किसका बस चलता है? अब दुःख को छोड़ो। इस पीड़ा को मन से निकाल दो। मन को स्वस्थ करो। चिंता-फिा छोड़ो।” मोहन ने चाय के ठेले से दो चाय मंगाई। चाय पीते हुए वह फिर राकेश की तरफ उन्मुख हुआ, “”घुट-घुटकर बेटी के लिए दुःख करने से बेटी तो अब वापस आने से रही। फिर उसके लिए इतना दुःख करने से क्या लाभ? हॉं, बेटा न होता तो कोई बात भी थी।” तब तक दोनों ने आधा-आधा कप चाय घुड़क ली थी। मोहन का प्रवचन जारी था, “”तुम्हें तो उलटे खुश होना चाहिए। छाती से एक भारी बोझ टला। नहीं तो बेटी के शादी-विवाह और ा़र्ंिजदगी भर के नेग-चार उसेे देते-देते आदमी की टाट गंजी हो जाती है।”

मोहन की बातें सुन राकेश उसे हेयदृष्टि से देखने लगा। बची चाय को बेंच पर रखते हुए उसने उसे झिड़क दिया, “”बेटियों के विषय में तुम्हारी यह सोच नितांत घटिया… निम्न… और संकुचित है। तुम्हारे मन-बुद्घि का यह निरा खोटापन… गंदी नाली में कुलबुलाते कीड़े जैसी तुम्हारी यह गंदी प्रवृत्ति। अरे! बेटियॉं तो आँगन में खड़ी मह-मह करती तुलसी का बिरवा होती हैं। बेटियॉं सदैव ही अपने माता-पिता को जी-जान होमकर, प्रेम-स्नेह के जल से सींचती हुई हमेशा हरा-भरा रखती हैं। मॉं-बाप को दुःखी देख, वे भी दुःखी होती हैं। उसे दूर करने के लिए जी-जान लगा देती हैं। वे माता-पिता की सेवा-सुश्रूषा में हर क्षण-हर पल एक स्वामिभक्त की तरह तत्पर रहती हैं।

और बेटे! बेटों में तो सैकड़ों में ऐसा कोई निकल जाये तो उस मॉं-बाप का भाग्य, नहीं तो बैठ गई भैंस पानी में।

अरे! आजकल के इन तथाकथित श्रवण कुमारों द्वारा अपने मॉं-बाप को पीड़ित करने-सताए जाने के किस्से तुम आए दिनों अखबारों में नहीं पढ़ते?” एकाएक राकेश अपनी जेब से रूमाल निकाल कर आँख में पड़ गये कचरे को निकालने का प्रयास करने लगा, “”दूर क्यों जाते हो भाई? अपने पड़ोसी डॉ. वर्मा जी को ही ले लो। एक लड़का उनका इनकम टैक्स ऑफिसर है। दूसरा लाडला एस.डी.ओ.। वह आयकर अधिकारी तो कभी वर्मा जी को अपने पास फटकने तक नहीं देता। एक बार वे गलती से एस.डी.ओ. बेटे के यहॉं चले गये। उसकी मैम साहिबा ने उनको महीने भर भी नहीं सहन किया। वह दुष्टा हमेशा उनको यह कहते हुए खरोंचती रहती थी कि जब देखो तब खों-खों करते रहते हैं। इनकी खों-खों ने सारा बंगला सिर पर उठा रखा है। इनकी भयानक आवा़ज से हमारा बेचारा पामेरियन डॉग डरकर पलंग के नीचे घुस जाता है।” उसके दुर्व्यवहार की बात वर्मा जी ने अपने लड़के से कही तो वह भी कहने लगा, “”वह ठीक ही तो कहती है पापा!”

एकाएक राकेश को खांसी आ गई। खांसना बंद हुआ तो वह फिर कहने लगा, “”अब डॉ. वर्मा की देख-रेख उनकी अविवाहिता लेक्चरार बेटी करती है। जरा-सी कोई तकलीफ डॉ. वर्मा को हो जाये तो वह उन्हें तुरंत अस्पताल ले दौड़ती है। उनकी सेवा-तीमारदारी में तोला-मासा होती रहती है। डॉ. वर्मा बेटी के इस व्यवहार को देख उस पर आशीर्वाद की झड़ी लगाए रहते हैं। “”जुग-जुग जियो बेटा। उन्नति के उच्चतम शिखर छुओ।” साथ ही साथ अपने मन के दर्द को भी उससे प्रकट कर देते हैं, “”मेरे लिए ऐसे कब तक खपती रहेगी बेटा। आज मरा कल पराया घर। तू शादी कर ले। इस लंबी डोरी-सी जिंदगी को कब तक अकेली ढोती रहेगी?”

डॉ. वर्मा के प्रयास आखिर रंग लाए हैं। लड़की शादी के लिए तैयार हो गई है, लेकिन इस शर्त पर कि लड़का डॉ. वर्मा के यहॉं आकर रहेगा। वह अपने मॉं-बाप को अकेला किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ सकती। उन्हीं के मुहल्ले का एक युवक डॉक्टर उससे विवाह करने को उसकी इस शर्त पर राजी हो गया है। युवक के माता-पिता नहीं हैं। उसके मामा ने उसे पढ़ाया-लिखाया है। मामा का लंबा-चौड़ा परिवार है तथा वह काफी समृद्घ भी हैं। उसे भी इस बात पर कोई एतराज नहीं है।

डॉ. वर्मा ने अपनी वसीयत में लिखा है कि उनकी मृत्यु के बाद उनकी लड़की ही उन्हें मुखाग्नि देगी तथा उनकी सारी संपत्ति की वही एकमात्र अधिकारिणी होगी।” आकाश में चमकता सूरज अब कुछ गर्मा गया। वातावरण में कुछ तपिश अपना प्रभाव छोड़ने लगी। राकेश ने मोहन से कहा, “”चलूँ यार! बहुत समय हो गया, यहॉं बातें करते-करते। घर पर सभी मेरी प्रतीक्षा करते होंगे।”

“”हॉं यार, मैं भी चलूँ। तेरी भाभी ने दो-चार ़जरूरी वस्तुएँ बा़जार से मंगाई हैं।”

दोनों चलने के लिए खड़े हुए। मोहन, राकेश की बातों को मनन करता हुआ गंभीर हो गया, तो ऐसा लगा, जैसे वह भी शायद वास्तविकता की तह में पहुँच गया हो।

– मृदुल शर्मा

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