दुर्बुद्धि मनुष्य के पास धन-संग्रह न होने पावे। इससे वह अपने साथियों का हित नहीं करता। जो इस प्रकार अकेला भोग भोगता है, वह निश्र्चय ही चोर है, पाप भोगता है।
मोघमन्नं विन्दते अप्रचेताः
सत्यं ब्रवीमि वध इत्स तस्य।
नार्यमणं पुष्यति नो सखायं
केवलाघो भवति केवलादि।।
(ऋग्वेद 10/117/6)
धन से मन में लोभ, मोह, मद और अहंकार की भावना का जन्म होता है। बुद्धिमान से बुद्धिमान व्यक्ति भी इसके चंगुल में फॅंस जाता है, फिर दुर्बुद्धि व्यक्तियों की क्या बात है! वे तो धन पाकर पागल हो उठते हैं और उचित-अनुचित का विचार किए बिना ही भोग-विलास में लिप्त हो जाते हैं। संसार में चारों ओर अनेक पापबुद्धि व्यक्ति दिखायी देते हैं, जिनके पास अन्न, धन एवं नाना प्रकार की भोग-सामग्री के भंडार भरे हैं। प्रत्यक्ष में वे बहुत धनी और सुखी दिखायी देते हैं, पर क्या वास्तव में ऐसा होता है? नहीं, ऐसा नहीं है। ये सारी भोग सामग्री वे भोग नहीं पाते, उलटे वह ही भोगकर उनका भक्षण कर डालती है। यह सारी की सारी धन-संपदा वास्तव में सुंदर मनोहर रूप रखकर आया हुआ उनका काल ही है।
पापी, दुर्बुद्धि व्यक्ति के पास एकत्र हुआ सांसारिक भोग का सामान उसकी मृत्यु के समान ही है।
ऐसा व्यक्ति उस धन का सदुपयोग करने में सर्वथा असमर्थ होता है। सारे धन को वह अपनी देह के पोषण में तथा विलासिता में व्यय करता है। यज्ञीय भावना का उसमें पूर्ण रूपेण अभाव होता है। न तो वह उस धन से प्राणि-जगत के पोषण का कार्य करता है और न ही किसी पारमार्थिक आयोजन में व्यय करता है। यदि वह यज्ञादि कर्म से संसार का उपकार करते हुए, यज्ञ-शेष का उपयोग करता, तो वही धन-संपत्ति उसके लिए अमृत के समान पवित्र और पुण्य फलदायक हो जाती। समाज में व्याप्त कुरीतियों एवं कुप्रथाओं का जन्म पापकर्मों से अर्जित व संग्रहीत धन से ही होता है। इससे लोगों में अपराधिक प्रवृत्ति भी बढ़ती है, अनाचार व दुराचार को बढ़ावा मिलता है तथा अराजकता फैलती है।
अकेला भोगने वाला, औरों को खिलाए बिना, स्वयं अकेला खाने वाला केवल पाप को ही भोगता है। जब चारों ओर असंख्य व्यक्ति ऐसे हैं, जिन्हें एक वक्त की रोटी भी नहीं मिल रही, भूखे-नंगे झोपड़ों में पड़े यातनाएं भुगत रहे हों, तो उनके बीच हलुआ-पूरी खाने वाले और विलासिता का जीवन जीने वाले व्यक्ति से बढ़कर पापी और कौन हो सकता है? ऐसा व्यक्ति बाहर से देखने पर तो बहुत सुखी और मजे में दिखाई देता है, परंतु ध्यान से देखें तो वह केवल अपने पाप को ही भोगता है, शुद्ध पाप का भागी बनता है और अयज्ञ के भारी पाप के बोझ को अकेला ही उठाये फिरता है। संसार में जरूरत पड़ने पर कोई भी उसकी सहायता नहीं करता और वह समाज से कटा हुआ एकाकी जीवन बिताता है।
शरीर, मन और आत्मा को पुष्ट करने वाले सच्चे भोजन (धन) में और शीघ्र विनाश को पहुंचा देने वाले पापमय भोजन (धन) में भेद कर सकने की विवेक-बुद्धि हमें आनी चाहिए। पाप से सना हुआ हलुआ-पूरी खाने की अपेक्षा रूखा-सूखा खाना या भूखा रहना हजार गुना श्रेष्ठ होता है।
वही धन मौत भी दे सकता है और अमृत भी।
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