वह आवारा बादल की भांति मंडराता रहा, पर एक उद्देश्य को लिए। इस पहाड़ी-स्थल में पॉंव जमाने के लिए संभावना की खोज करता भटकता रहा। कभी शिमला, कभी मनाली और मणिकर्ण की खाक छानते हुए अब धर्मशाला से आगे की सैलानियों की पसंदीदा जगह पर पिछले हफ्ते से डेरा डाले बैठा है। उसे पहाड़ों से लगाव बचपन से रहा है। कितना खुला आकाश है। शहरों में आकाश तक नसीब नहीं। बर्फ की तरह शीतल हवा का झोंका सरसराता हुआ सारे शरीर को अनछुई ठंडक से लपेट लेता है। बादलों का झुंड चिड़ियों की तरह पास से गुजरता है। सैलानियों को कार से हाथ बाहर करके सुखद-स्पर्श झेलकर विस्मित होते उसने देखा है। बस में यात्रा करते सारे यात्री सांप की तरह बलखाती घुमावदार पहाड़ी सड़कों और हरियाली की चादर ओढ़े शांत मुनि की तरह तटस्थ पहाड़ों को देखकर रोमांचित होकर एक अलौकिक सुख में डूबे-इतराते सफर का आनंद भोगते हैं ।
मनाली और शिमला की खूबसूरती को भुलाना आसान नहीं था। वहॉं से वह डूबे मन से वापस हो लिया, एक सुखद अनुभूति, ताजगी और ठंडक को समेटे। वहॉं जमने का इरादा कई कारणों से उसने टाल दिया। यहां कुछ परिचित निकल आये, बल्कि निकलने से ज्यादा बनाये गये। निकट के लोगों ने संपर्क साधने पर पता दिया था। बस, चला आया। परिचय का सिलसिला इसी तरह पनपता है। बिना पहचान के नये लोगों को नयी जगह कई दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। सो उसने यहॉं अपने नये परिचितों के पास आने की सोची।
सबसे पहले संपर्क साधा दोस्त के चाचा के साथ। उन्हें अपना, जीविका संबंधी प्रयोजन बताया
“”क्या करोगे?” दिलचस्पी लेते हुए दोस्त के चाचा ने पूछा।
“”योग सिखाऊँगा” सरलता से उसने जवाब दिया। चाचा ने आश्र्चर्य से देखा।
“”यहॉं हर कोई योग सिखाने ही चल पड़ता है, न जाने कितने योग केंद्र, योग कक्षाएँ, बस योग, योग, योग…”
“”योग को इतने सस्ते अर्थ में न लें। सारा विश्र्व योग को मानता है। शरीर रोग-मुक्त हो, यही मानव-जाति को योग का संदेश है।” वह उत्तेजित हो उठा।
“”यहां विदेशी पर्यटकों की भरमार है, इसीलिए?”
वह चुप रहा। शायद उत्तर देना उचित नहीं समझा। चाचा ने सवाल किया,
“”म्यूजिक कंसर्ट के बारे में क्या ख्याल है?”
“”संगीत-शास्त्र के बारे में ज्ञान नहीं है।” दो टूक जवाब था उसका।
हाथ हवा में लहरा कर आश्रयदाता चाचा ने कहा, “”अरे, वो जो तबला, सितार, हारमोनियम या बांसुरी सिखा रहा है, वह कौन-सा तीसमार खां संगीतकार है?”
“”मैं लोगों की बात नहीं जानता। इस विद्या का प्रशिक्षण लिया है तो यही सिखाऊँगा। मिल सकता प्लॉट-ब्लॉट, तो…।” वह हिचकिचाते हुए कह गया।
“”अरे, प्लॉट कहॉं खरीदते फिरोगे?” घोर आश्र्चर्य के साथ उन्होंने पूछा।
“”प्रबंध नहीं हो पाएगा क्या?” अजनबी, पर अब परिचित और “चाचा’ संबोधित व्यक्ति खामोश रहा। उसके सवाल पर प्रतििाया व्यक्त की, “”संभव क्यों नहीं हो पाएगा? जब चाचा बन ही गया हूँ, तो अपने नाम से ले दूंगा। कागजी कार्रवाई तो जानते ही होंगे?”
“”हॉं, मुझे फर्क नहीं पड़ता, विश्र्वास कागज-पत्रों से बड़ा होता है, चाचू।”
“”फिलहाल, किराए पर लेकर काम चलाओ। धंधा जम गया तो यह काम भी आसान हो जाएगा। कोई मेम फांस लेना, वह मकान भी बनवा देगी।” कटाक्ष किया।
वह मुंह ताकता रहा। चाचा ने हंसकर कहा, “”दरअसल कई लोगों ने छः सालों का कॉन्टैक्ट किया है। जमीन अपनी, खर्च उनका और समय पूरा होते ही बिल्ंिडग मुफ्त। छः सालों तक मकान का उपयोग अपने ढंग से करेंगे…”
“”आपको ऐसा कोई नहीं मिला?” प्रश्र्न्न सीधा था। चाचू ने भी सीधे ढंग से जवाब दिया, “”पैसे के लालच में सभ्यता-संस्कृति बेच दें? वे जब तक रहेंगे, मनमानी करेंगे। उनकी जिंदगी जीने के रंग-ढंग का प्रभाव हमारे घर-समाज पर पड़ता है कि नहीं?, बस, इसीलिए ऐसी कोशिश नहीं की।” चाचू ने साथ ही उसे कहा, “”रहने व खाने की कोई दिक्कत नहीं… समझो, बंदोबस्त हो जाएगा, यहॉं बड़े धंधे हैं। गेस्ट हाउसों का तांता लगा हुआ है। हर आदमी इसी धंधे से जुड़ गया है। मकानों की संख्या तो बढ़ रही है, किन्तु उस हिसाब से विदेशी-पर्यटकों का आना-जाना नहीं बढ़ रहा है।”
उसने गहरी सांस लेकर पहाड़ की श्रृंखलाओं को देखा। पहाड़ की छाती पर जहां चीड़ और देवदार के दरख्तों का साम्राज्य था, वहां ऊँचे-ऊँचे मकानों की भरमार थी। सारी हरियाली सिमट कर पत्थरों और कंाीटों में तबदील हो गई थी। अगर इसी तरह हरियाली और पहाड़ की भूमि का अस्तित्व मिटता रहा, तो लोग इधर का रुख क्यों करेंगे? जिस शांति की खोज में विदेशी-पर्यटक इधर आते हैं, वे भ्रमित हो जाएँगे, शोर-शराबे व भीड़ से। उन्हें रिझाने के लिए ऐसा किया और अंत में वो ही ठोकर मारकर भागेंगे। प्रकृति के संग खिलवाड़ नहीं करना चाहिए।
होटल, रेस्टोरेंट और बाजार के जंगल में आदमी खो गया है। प्रकृति ने बेशुमार दौलत लुटाई थी। लोभ में पड़ कर आदमी ने उसके दोहन का ऐसा नंगा नाच किया कि जंगल को जंगल न रहने देने का संकल्प ले लिया। वन-माफिया इतने सिाय हो गये कि वन-विभाग गूंगा बन गया है। प्रकृति की प्राकृतिक छटा वैश्र्विक सभ्यता के आगे रोड़ा अटकाती महसूस हुई तो उसे समाप्त करने में कसर न रखी गयी। जंगल में मंगल बसाने की प्रिाया में विस्थापित हुए तिब्बतियों की जनसंख्या आबाद करने की मानवीय भावना थी। उन्होंने स्थानीय लोगों को बाजार बसाने का नुस्खा दिया। पहले यहां के सीधे-साधे लोग गेस्ट हाउस से पैसा खींचने के उपाय से अनजान थे। पर अब तो होड़ मची है, मारामारी है। इसी धन कमाऊ धंधे से पगलाए लोग जानवरों के चारा को भी चर गये। उपजाऊ भूमि बिक गयी। जमीन का टोटा हो गया। जिस जमीन को कोई बायीं आँख से भी नहीं देखना चाहता था, रातों-रात वह उपेक्षित जमीन सोना उगलने लगी। पहाड़ी बंजर भूखंड का मूल्य आकाश छूने लगा है। बाजारवाद ने जंगल और भूमि दोनों को लील लिया है।
मैकलोडगंज में बस से उतरते ही वह ठगा-सा रह गया। इतनी चहल-पहल! जिधर नजरें फिराओ, होटल और रेस्टोरेंट। तिब्बतियों के झुंड और लाल वस्त्र धारी लामाओं का आना-जाना। गोरी-चिट्टी मेमों का धड़ल्ले से घूमना। प़िज़्जा और बर्गर का बोलबाला। पेस्टी डेन। फास्टफूड से अघाते देशी-विदेशी पर्यटक। गले में कीमती कैमरा लटकाए आश्र्चर्य से नैसर्गिक आनंद लेते सैलानियों की भीड़। देश के विभिन्न प्रांतों से आये पर्यटक, विदेशियों को भ्रमित नजरों से निहारते और मंद-मंद मुस्काते। वे बस बेपरवाह। खुली आँखों से बचे-खुचे सौंदर्य को लूटने में व्यस्त। कुछ विदेशी संग फोटो खिंचवाने “प्लीज-प्लीज’ कहते, आगे-पीछे घूमते लोग। ऐसा आभास हो रहा था, जिस मैकलोडगंज को अंग्रेजों से भरपूर समर्थन मिला था, आज जीवित होकर वह उसी विदेशी रंग में डूब चुका है। इसका जीर्णोद्घार तिब्बतियों के पॉंव पड़ते ही शुरू हो गया था।
पिछले चार दिनों से उपयुक्त जगह की तलाश में वह घूमता रहा। नव-निर्मित भवन बनते ही बुक हो जाते हैं। दलाई लामा मंदिर से नीचे तक दायीं-बायीं दोनों तरफ अटे-सटे मकानों में कोई खाली कमरा नहीं था। वापस भागसूनाथ के आसपास और अप्पर भागसूनाथ तक देख आया। पसंद-नापसंद के झूले में हिचकोले खाता रहा। मामला था कि जम ही नहीं रहा था। यहां के स्थानीय बाशिंदे उसे पहुँचे हुए मालूम हुए। टूटी-फूटी अंग्रेजी जम कर उगल रहे थे। योग क्लास की बात शुरु होते ही पूछते, “”साल के लिए?… ”
“”हो सकता है” वह जवाब देता।
“”एक साल का एडवांस पेमेंट करना होगा”, इस बार वह सोच में पड़ गया। जवाब मिलने पर विलंब हुआ तो मालिक को ही कहना पड़ा, “”सीजन शुरू होने वाला है। बाद में “रेट’ बढ़ जाएगा। तब कमरा ढूंढने से भी नहीं मिलेगा? इतना बढ़िया तो मिल ही नहीं सकता।”
“”देखता हूँ” कहकर वह लौट आया। उसके परिचित के घर के सामने एक नर्तक ने “भरतनाट्यम’ का स्कूल खोल रखा था। सुबह-सवेरे “ता-ता-थैया’ का स्वर, ताली और तबले की गूंज… कुछ दूर एक मकान पर छोटी तख्ती लटकी थी- “लर्न हिन्दी’ … सोचा, चलो हिन्दी के प्रति तो मोह है। नहीं, मोह नहीं, हिन्दी भाषा को भी व्यापार की मंडी में सजा दिया है। विदेशियों को किस तरह सिखाई जाती है हिन्दी, यह भी कौतुक जागा उसमें। एक जगह “कुकिंग कोचिंग क्लास’ का पट्टा लटका था, लिखा था, “हर किस्म के भारतीय व्यंजन बनाना सीखें’।
यू.पी. से आया था काम की तलाश में। किसी ने सलाह दी, मसाज का काम कर। हांक लगाने लगा, दो-चार शीशियों में तेल डालकर “”बॉडी मसाज”। दो-तीन गोरे हत्थे चढ़ गये तो भैया की दिहाड़ी बन गयी। पौवा-सौवा पी-पू डालता था। “ब्यूटी पार्लर’ से जुड़ा तो उसकी भी रोजी-रोटी का प्रबंध हो गया। योग और मसाज फलता-फूलता धंधा जो है। सभी लोग ग्राहकों को रिझाने के चक्कर में थे। दुकान है, तो ग्राहक है। ग्राहक है, तो पैसा है। पैसा है, तो साधन है। साधन है, तो संपन्नता है। इधर आधुनिक जीवन-शैली इसी संपन्नता की कहानी कहती है।
शुरूआती दौर में शांति की खोज में ब्रह्मबूटी के रसिक ज्यादातर नंग-धड़ंग इजराइली लोग ऊँची चढ़ाई पर तंगहाली में गुजर-बसर करने वालों के कच्चे मकानों में रहने लगे थे। वे नशीले पदार्थों का सेवन करते “ओम शांति’ अलापते चिलम फूंकते रहते और वहॉं बसे लोगों को भी यह धंधा करने के लिए उकसाते। कुछ ने उनकी संगत से खाना-पीना सीखा, कुछ ने काले धंधे में अपने हाथ काले करके पैसा उगाया। लुक-छिपकर यह गैर-कानूनी धंधा करना आज उनकी जरूरत बन गया था। पैसे के लालच के चलते अनैतिक धंधा भी पनप रहा था। पारंपरिक मकानों का ढांचा आधुनिकतम सुख-सुविधा वाले मकानों में बदल गया था। हर मकान में इंगलिश सीट वाला फ्लश बाथरूम था। गीजर होना अनिवार्य हो गया। वाशिंग मशीन के सहारे लांडी का काम करके अतिरिक्त मुनाफा बटोरा जा रहा था। जिसके पास अटेच्ड बाथरूम और किचन सहित डबल बेडरूम थे उनकी तो चांदी ही चांदी थी। टैरेस और बालकॉनी भी हों तो सोने में सुहागा। जंगल और पहाड़ का व्यू दिखना पहली शर्त थी। आपका गेस्ट हाउस यदि सारी शर्तें पूरी करने की क्षमता रखता है, तो आप छोटे-मोटे अंबानी बन गये समझो। इंटरनेट की दुकानें विदेशियों के लिए थीं। वेस्टर्न यूनियन मनी चेंज की दुकान भी विदेशियों की सुविधा के लिए ही थी।
“”कोई निर्णय ले पाये कि नहीं?” आखिरकार चाचा को पूछना ही पड़ा। वह सुस्त स्वर में बोला, “”पैसे बहुत मांगते हैं।”
“”भई, सबका धंधा है, कमाने के लिए बैठे हैं”
“”सो तो है, अंकल जी…”
“”लोग तो घरों में, बाहर बरामदे में या आंगन में रेस्टोरेंट खोले बैठे हैं। हर प्रकार के कॉन्टीनेन्टल डिश सर्व करते हैं।”
“”लोगों ने धंधे की जड़ पकड़ ली है। यह भी एक उपलब्धि है।”
“”भांग, धतूरे को भी धंधे में शामिल कर लिया है। डग्स सप्लाई करते हैं। पुलिस भी क्या करे? सब धंधे में लिप्त हैं, वह भी हफ्ता-महीना बांध लेती है। घर तो सबको चलाना है।” …
वह हंसा। “”आप तो सब कुछ जानते हैं, लेकिन सुधार के नाम पर बरसों पुराना पुरखों का मकान मरम्मत करने में डटे हैं। कमाने के प्रति कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई, क्यों?”
“”सही कहते हैं, देखते-देखते सब फल-फूल गये। मैं जहां का तहां हूं। बच्चे कहते हैं, बेच दो जमीन, मुँह मांगा पैसा मिलेगा। उन्हें कैसे समझाऊँ कि अब जमीन खरीदना इतना आसान नहीं है।” एक क्षण के लिए चुप्पी छायी रही। शायद दोनों के आपसी संवाद चूक गये। उठकर जाते हुए वे थके स्वर में बोले, “”जंगल जा रहा हूं, मवेशियों के लिए चारा-पानी लेने। भेड़ें हैं तो ऊन है, लेकिन पट्टू तो चाहिए। इस घरेलू पेशे को भी लोग भूलते जा रहे हैं। गद्दी की पहचान खो रही है।”
“”सुना है, जंगल में पेड़ काटने की मनाही है।” उसने पूछा।
“”चोर चोरी से जाया करते हैं, हेराफेरी से नहीं। यदि रात को एक पेड़ न काटा तो कड़ी और गज के बिना यह पुश्तैनी मकान ढह जाएगा।” उसने हंसिया (दराती) को बगल में बांध लिया। वह कबूतर की तरह चुपचाप देखते हुए सोचता रहा, “”कैसे करते हैं, ऐसा काम लोग? सरकारी जमीन का अतिामण रुकता नहीं है। खनन बंद होता नहीं है। वन-कटान थमता नहीं है। यह क्षेत्र टाउन प्लानिंग में होने के बावजूद भी बिना नक्शा पास किये मकान धड़ल्ले से बन रहे हैं। पटवारी से पुराना मकान लिखवा कर बिजली-पानी का कनेक्शन ले रहे हैं। कौड़ियों की जमीन लाखों में बेच रहे हैं। यहां के नागरिक जिनके बाप-दादा भूमिहीन थे, वे जमीन नहीं खरीद पाते, लेकिन दिल्ली, हरियाणा और पंजाब के धनिक वर्ग जमीन का मालिकाना हक लेने में मिनट नहीं लगाते।
थकान महसूस हुई तो भागसूनाथ के स्वीमिंग पुल के पास बेंच पर आकर बैठ गया। कई लोग नीले साफ पानी पर तैर रहे थे। कुछ लोग पानी में छलांग लगाकर हुड़दंग मचा रहे थे और कुछ लोग समस्याओं को ऩजरअंदा़ज करते हुए अट्टहास कर रहे थे। उसका मन चाहा कि फेंक दे उदासी की मोटी चादर को, किन्तु चाहने पर भी वह ऐसा नहीं कर सका। कितनी बेबसी है। संभावनाओं को मन में पाले हुए बुझी हुई अंगीठी की तरह बेजान-सा पड़ा रहा। चारों तरफ जीवन है। उसकी तंद्रा भंग हुई। कोई था, जो कैमरा थमाते हुए बोला, “”सर, क्लिक दबाएंगे जरा?” बिना “हां-हूं’ किए उसने दंपति का फोटो खींच दिया। दोनों “”थैंक्यू” कहकर साफ्ट डिंक पीने लगे। मंदिर के नीचे एक फोटोग्राफर की दुकान थी, जहां कश्मीरी डेस पहन कर लोग फोटो खिंचवाने का आनंद ले रहे थे। वल्लभ डोभाल प्रकृति की गोद में बैठे साहित्य-सृजन करते नजर आए। चाचा के लड़के ने उनके बारे में बताया था।
जरा क्रोश होने के ख्याल से उसने पानी से मुंह धोया। शुद्घ साफ जल को हाथों में भर कर पिया। अच्छा लगा। वह फिर बेंच पर पसर गया। बैठे-बैठे लोगों को वाटरफॉल की तरफ जाते देखता रहा। विस्तृत फैला पहाड़। दूर झरना। झरने का झर-झर झरता पानी। नीचे घाटी में मैकलोडगंज में आये तिब्बतियों को नहाते-धोते देखना भी दर्शनीय-सा था। गहराई में वे छोटे-छोटे जीव प्रतीत होते थे। सुस्ताने के बाद वह कुछ हलका-सा महसूस करने लगा। वह उठ गया। उसके कदम बढ़ते गये। कुछ देर पहले छाया घना कोहरा अब छंटना शुरू हो गया था। ऊपर निहारा तो ऐसा लगा जैसे पर्वत की चोटी गर्व से सिर उठाये ताक रही है। पैदल चलते-चलते धौलाधार की पहाड़ियों का अभिनंदन करते हुए उसने कहा, “”मैं फिर आऊँगा…” और पहाड़ी हवा का तीखा झोंका उसके बदन को छूता सरसराकर आगे बढ़ गया। चीड़-देवदार के पेड़ हवा के संग झूमने लगे, उसे ऐसा आभास हुआ जैसे प्रकृति ने उसे सहलाकर कहा हो, “”अगली बार जरूर आना, पहाड़ी वातावरण में तुम्हारा स्वागत है।”
वह झूम उठा हवाओं के संग। आजीविका की तलाश में मनाली और शिमला को खंगाल कर उसने धर्मशाला के पर्यटन क्षेत्र की तरफ रुख किया था। मैकलोडगंज के छोटे-से बस अड्डे पर एचआरटीसी की बस का इंतजार कर रहा था, पठानकोट जाने के लिए। चाचा ने आश्र्वासन देते हुए कहा, “”यहां कारोबार का बहुत स्कोप है।”
उसने कहा, “”यदि यहॉं का दाना-पानी किस्मत में लिखा होगा तो काम भी मिलेगा..।”
भागसूनाथ में दर्शन करने के बाद फिर आने के लिए लौट पड़ा। कारोबार जमा तो चढ़ावा चढ़ाने की मनौती भी मांग ली। कुछ देर पहले मोबाइल में मैसेज था, “”पैसे का इंतजाम हो गया है।” खुशी से लहराकर घड़ी पर नजर डाली। चार बजे बस छूटने वाली थी। सीट पर बैग रखकर सामने की दुकान पर बर्गर लेने के लिए उतरा। उसे आज मैकलोडगंज बहुत खूबसूरत लगने लगा। यहां से दो कि.मी. की दूरी पर उसके लिए अपार संभावनाओं का द्वार खुलने वाला था। उसकी आँखों में सपनों का इंद्रधनुष फैल गया। छितरा कर वह पहाड़ की गोद में समा गया।” बस ढलान पर फिसलती जा रही था। बस के इंजन का घर्र-घर्र शोर भी उसे संगीतमय लग रहा था।
– लक्ष्मीनारायण “मधुप’
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