स्वतंत्रता दिवस पर राष्ट को संबोधित करते हुए मनमोहन सिंह ने स्वीकार किया कि महंगाई नियंत्रण में नहीं आ रही है। एक साल पहले भारतीय अर्थव्यवस्था सुदृढ़ थी। महंगाई 5-6 प्रतिशत की दर पर सामान्य थी। अर्थव्यवस्था भी तीव्र गति से चल रही थी। आर्थिक विकास दर 10 प्रतिशत को पार कर गयी थी। परंतु हम अपनी सफलता को बरकरार नहीं रख सके, जैसे ते़ज गति से चल रहा घुड़सवार ़जरा-सी असावधानी से गिर जाता है। हमारी आर्थिक सफलता के वैश्र्विक परिणाम हुए। चीन के साथ हमने भारी मात्रा में तेल का आयात किया। साथ-साथ स्टील, मशीनरी, हवाई जहाज आदि की भी हमारी मांग में वृद्घि हुई। परिणामस्वरूप अनेक वस्तुओं के वैश्र्विक मूल्यों में वृद्घि हुई। इसमें सीमेंट,गेहूं और खाद्य तेल सम्मिलित थे। वैश्र्विक अर्थव्यवस्था का तापमान बढ़ने लगा और भारतीय अर्थव्यवस्था को भी बुखार चढ़ गया।
हुआ यूँ कि अमेरिका की अर्थव्यवस्था इस मूल्य वृद्घि को बर्दाश्त नहीं कर सकी। वह अर्थव्यवस्था पहले ही ऋण के विशाल दलदल में खड़ी थी। तेल के बढ़ते मूल्यों से वहॉं मंदी छाने लगी। अमेरिकी उपभोक्ता ऋण की अदायगी नहीं कर सके। अमेरिकी बैंकों की आय प्रभावित हुई। लोन री-पेमेंट की कमी की पूर्ति करने के लिए अमेरिका विदेशों में लगे धन को घर वापस ले आया। इस ाम में उन्होंने भारत में शेयरों की बिकवाली की और हमारा शेयर बा़जार लुढ़क गया। हमारी सफलता ही हमें ले डूबी, जैसे ते़जी से चल रहा घुड़सवार तीव्र मोड़ पर बैलेंस खो बैठता है।
यहॉं तक की परिस्थिति में भारत सरकार की भूमिका नगण्य थी, परंतु इसके बाद भारत सरकार ने गलती की। सरकार ने निर्णय लिया कि अर्थव्यवस्था सुदृढ़ है अतः तेल के बढ़ते मूल्यों का भार जनता पर नहीं डाला जायेगा, जैसे महंगाई बढ़ने पर अमीर घर का मालिक घी के मासिक कोटे में कटौती नहीं करता है। एक वर्ष के अंतराल में चुनाव होने को थे। परमाणु करार को लेकर सरकार पहले ही संकट में थी। तेल के मूल्य में वद्घि करके सरकार जनता के आाोश का सामना नहीं करना चाहती थी। लेकिन तेल के मूल्य कम बनाये रखने के बावजूद महंगाई नहीं थमी चूंकि तेल समेत दूसरे तमाम कच्चे माल जैसे कोयला, सीमेंट आदि के दाम बढ़ते रहे। महंगाई दस प्रतिशत की दर से बढ़ती रही। सरकार के लिए यह राजनीतिक संकट बन गया। चुनावी गणित को अपने पक्ष में करने के लिए महंगाई पर नियंत्रण ़जरूरी था।
महंगाई बढ़ने का तात्कालिक कारण निवेश की तीव्र गति का होना था। नयी फैक्टरियां लगाने के लिए सीमेंट, स्टील एवं श्रम सभी की मांग बढ़ती है जिससे इनके दाम बढ़ते हैं। महंगाई पर नियंत्रण करने के लिए सरकार ने निवेश की गति पर ब्रेक लगाने का निर्णय लिया। निवेश के दो स्रोत होते हैं- घरेलू एवं विदेशी। सरकार को इन्हें ठंडा करना था। प्रश्र्न्न था कि किस निवेश पर दबाव बनाया जाये- घरेलू पर या विदेशी पर? यहॉं सरकार ने दूसरी गलती की। सरकार ने घरेलू निवेशकों को दबाने और विदेशी निवेश को खुला रखने का निर्णय लिया। सरकार चाहती थी कि देश की वैश्र्विक पैठ पर दुष्प्रभाव न पड़े इसलिए विदेशी निवेश पर निशाना साधने के स्थान पर सरकार ने घरेलू निवेश पर निशाना साधा। ऱिजर्व बैंक ने घरेलू ब्याज दरों में लगातार वृद्घि की। सोच थी कि घरेलू ब्याज दर में वृद्घि से घरेलू निवेशकों के लिए ऋण लेना महंगा हो जायेगा और वे फैक्टरी लगाने की योजनाओं को स्थगित कर देंगे। इस नीति का कुछ न कुछ प्रभाव हुआ। परंतु निवेश का चरित्र गाजर-मूली खरीदने सरीखा नहीं होता है। नींव डालने के बाद फैक्टरी को बीच में रोकना संभव नहीं होता है। ब्याज में वृद्घि का प्रभाव दिखने में समय लगता है यद्यपि उद्यमी का उत्साह और साहस तत्काल जाता रहता है। परिणाम यह हुआ कि नये निवेश के कुछ कार्याम स्थगित किये जाने के बाद भी महंगाई पर प्रभाव कम ही पड़ा।
सरकार ने सोचा था कि घरेलू उद्योग की लगाम खींचने के बावजूद देश की वैश्र्विक पैठ बनी रहेगी, चूंकि विदेशी निवेशकों को उत्तरोत्तर सुविधाएं दी जा रही थीं, जैसे बीमा एवं दूसरे क्षेत्रों में विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाने पर सरकार ने मन बनाया है। परंतु विदेशी निवेशकों का भरोसा फिर भी उठ गया। तेल को महंगा खरीदकर सस्ता बेचने का भार अंततः सरकार पर पड़ता है। तेल कंपनियों द्वारा जारी किये गये बांड का सरकार को अंततः भुगतान करना ही पड़ेगा। फलस्वरूप सरकार की वित्तीय स्थिति बिगड़ने लगी। वैश्र्विक रेटिंग एजेंसियों जैसे फिच एवं मूडी ने भारत को डाउनग्रेड कर दिया है यानी भारत की अर्थव्यवस्था को कमजोर बताया है। इससे विदेशी निवेशकों का विश्र्वास जाता रहा। उन्होंने लगभग सात अरब डॉलर की रकम भारत से निकाली।
इस प्रकार भारत सरकार पूर्णतया फेल हो गयी। सरकार चाहती थी कि घरेलू निवेशकों की लगाम खींचने के साथ-साथ विदेशी निवेशकों की लगाम ढीली छोड़ दे जिससे विदेशी निवेशकों का विश्र्वास बना रहे। परंतु घरेलू उद्यमों पर दबाव बढ़ने के साथ-साथ विदेशी निवेशक भी भाग खड़े हुए। सच यह है कि विदेशी निवेशक भारत इसलिए आते हैं क्योंकि घरेलू कंपनियों के लाभ का एक हिस्सा हासिल कर सकें। जब घरेलू उद्यम दबाव में आये तो विदेशी निवेशकों का भी पलायन होना ही था, जैसे गृहिणी के बजट में कटौती की भरपाई रेस्तरां से भोजन मंगवाकर नहीं की जा सकती है। सरकार की सोच थी कि घरेलू निवेशक मरता है तो मरने दो, विदेशी निवेशकों के सहारे हम आर्थिक विकास दर बनाये रखेंगे और चुनाव जीत जायेंगे। दुर्भाग्यवश ऐसा न हो सका और सरकार को चक्कर आने लगा।
अंत में हर तरह से सरकार गच्चा खा गयी। तेल सस्ता बेचने के बावजूद महंगाई बढ़ती जा रही है। घरेलू उद्यमियों की लगाम खींचने के बावजूद विदेशी निवेशक पलायन कर रहे हैं। इस दुरूह स्थिति के उत्पन्न होने का मूल कारण सरकार द्वारा जनता को भ्रम में रखने की चेष्टा है। सरकार जनता को अंधेरे में रख कर उनके वोट हासिल करना चाहती है। सस्ता तेल खरीदने का खामियाजा अंततः जनता को ही भुगतना होगा। इस बात को सरकार जनता से छुपा रही है और जता रही है कि सस्ता तेल बेचकर सरकार ने अपूर्व साहस का परिचय दिया है। सरकार घरेलू उद्यमों को बता रही है कि महंगाई पर नियंत्रण करने के लिए घरेलू ब्याज दरों में वृद्घि ़जरूरी है जबकि निहित सोच विदेशी निवेशकों के हितों को सुरक्षित करना था। लेकिन भ्रम कुछ समय तक ही टिकता है। सत्यमेव जयते…। सच्ची स्थिति का आभास जनता को हो ही गया।
सरकार को जनता के सामने सच्चाई से पेश आना चाहिए। आयातित तेल के मूल्य बढ़ाकर दूसरे घरेलू उत्पादन पर टैक्स घटाना चाहिए जिससे महंगाई नियंत्रण में आये और आर्थिक विकास की तीव्र गति भी बनी रहे। घरेलू ब्याज दर न्यूनतम बनाये रखना चाहिए और ़जरूरत के अनुसार विदेशी निवेश पर एंटी टैक्स लगाना चाहिए।
दुर्भाग्य है कि मनमोहन सिंह ने इन सही नीतियों का सहारा लेने के स्थान पर भ्रामक नीतियों का सहारा लिया जिसके परिणाम सामने आये। मनमोहन सिंह ने जिस मनोवेग से जनता के समक्ष बढ़ती महंगाई को स्वीकारा है वैसे ही उसे दूर करने के लिए सच्चे उपायों को चुनना चाहिए और अपनी मासूम जनता को राहत पहुँचा कर उसका दिल जीतना चाहिए।
– डॉ. भरत झुनझुनवाला
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