आरुषि-हेमराज हत्याकांड में अब फिर एक नया मोड़ आ गया है। सीबीआई ने आरुषि के पिता राजेश तलवार को “क्लीन चिट’ देते हुए कहा कि उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं है। सीबीआई का कहना है कि तलवार का कंपाउंडर मुख्य आरोपी के रूप में उभरा है।
राजेश तलवार अब जेल से रिहा हो जाएँगे… लेकिन क्या वह उस मानसिक प्रताड़ना, वेदना और पीड़ा से रिहा हो पाएँगे जो उन्होंने इन पिछले लगभग दो महीनों के दौरान झेला है? क्या वह उस गंदे दाग को धो पाएँगे जो उन पर पुलिस और मीडिया ने लगाया है। वह मीडिया विशेषकर इलेक्टॉनिक मीडिया जिसने इस कांड की तह तक जाने के लिए शरलॉक होम्स की आत्मा ओढ़ ली थी, जिसने आरुषि के घर के एक-एक कोने का जायजा लिया, आरुषि की हत्या के घटनााम को विभिन्न एंगलों से, नये-नये तरीके से रूपांतरित किया और बाप-बेटी के रिश्ते को इतना कलंकित किया कि टीवी देखने वाली तमाम किशोरियों को अपने पिता में बेटियों का कातिल नजर आने लगा।
इस मामले में स्थानीय पुलिस भी कम दोषी नहीं है। बिना मामले की तह तक गए, हर रोज नए-नए पुलिसिया बयान आते रहे। कभी आरुषि के पिता के तथाकथित नाजायज संबंधों को उजागर करने वाले तो कभी एक पिता को बेटी का कातिल ठहराने वाले। वैसे तो सीबीआई भी दूध की धुली नहीं कही जा सकती और अभी भी आरुषि-हेमराज हत्या की गुत्थी को पूरी तरह सुलझा हुआ भी नहीं माना जा सकता क्योंकि अभी भी सीबीआई की थ्योरी में तमाम पेंच हैं।
लेकिन सवाल ये है कि आखिर ऐसी घटनाओं को इतना बढ़ा-चढ़ा कर क्यों पेश किया जा रहा है? हमारी मीडिया इतनी संवेदनहीन क्यों हो गई है कि वह समझ नहीं पा रही कि इन सबका असर अबोध बच्चों और संवेदनशील किशोर-किशोरियों पर क्या पड़ेगा। जिस तरह आरुषि-हेमराज हत्याकांड का “पोस्ट मार्टम’ हर दूसरे-तीसरे दिन लगभग तमाम समाचार चैनलों पर अतिरंजना की हद तक जाकर, शरलॉक होम्स की तमाम थ्योेरियों के आधार पर किया जा रहा था उससे अबोध और मासूम-हृदय बच्चों, विशेषकर लड़कियों को कितनी मानसिक क्षति पहुँची है, वह किस कदर रिश्तों के प्रति संशयशील हुई हैं, क्या इसका अंदाजा है किसी को?
ये माना कि वर्तमान समय ऐसा है कि किसी पर भरोसा करना किसी के लिए भी आसान नहीं रह गया है। धोखेबाजी, बेईमानी अपने चरम पर है लेकिन फिर भी, अभी भी रिश्तों की अपनी मर्यादा है, आदर है और पवित्रता भी। घटनाएँ हर कालखंड में घटती रही हैं और अपवाद हर रिश्ते-नाते में होते रहे हैं, अभी भी हो रहे हैं और आगे भी होते रहेंगे। लेकिन इसका अर्थ यह कत्तई नहीं कि आरुषि हत्याकांड जैसी घटनाओं को इस तरह तूल देकर बाप-बेटी और मॉं-बेटी-बेटा जैसे रिश्तों की मर्यादा को तार-तार कर दिया जाए। कम से कम मीडिया को इसका कोई हक नहीं। इसी प्रकार सीबीआई या स्थानीय पुलिस को भी एक हद तक हत्या की तह में जाए बिना किसी को दोषी करार देना ठीक नहीं। कानून भले आरुषि के पिता को बाइज्जत बरी कर दे लेकिन क्या एक पिता उस जिल्लत से ताउम्र छुटकारा पा सकेगा जो उसने जेल की चारदीवारी में कैद होकर इन पिछले दो महीनों में झेली है? क्या वह कभी भी समाज में मुँह ऊपर उठा कर चल सकेगा? क्या पुलिस उसकी खोई प्रतिष्ठा पुनः वापस ला सकती है?
सवाल ये है कि इन सबका दोषी कौन है? हम-आप, पुलिस या सीबीआई या हर घटना को अपने हिसाब से मोड़ देकर घटित करार देने वाली शरलॉक होम्स की आत्मा वाली मीडिया?
– अवनि (हैदराबाद)
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