लालमती वर्मा के पति जिस वक्त बहुत बीमार थे, तभी उन्होंने अपने बच्चों व अन्य रिश्तेदारों से स्पष्ट कह दिया था कि वे सती होंगी ताकि उन्हें पतिव्रता के रूप में याद किया जाए। इसलिए जब बीती 11 अक्तूबर को उनके पति का निधन हुआ तो वह भी उनके साथ चिता में जलकर सती हो गईं। यह रायपुर से 145 किलोमीटर दूर छेछड़ गांव की घटना है। इस हादसे की अगली सुबह जब पुलिस गांव में पहुंची, तब तक पूरी रात ग्रामवासी व आसपास के सैकड़ों लोग तथाकथित सती को महिमा मंडित करते हुए उसकी पूजा-अर्चना कर रहे थे। उन्होंने लालमती को देवी मानकर रामायण व अन्य पवित्र धर्मग्रंथों का पाठ किया था। बहरहाल, बाद में पुलिस ने लालमती के तीनों लड़कों, उनकी पत्नियों, और एकमात्र पुत्री को लालमती के सती होने में सहयोग देने के लिए गिरफ्तार कर लिया। उन्हें अदालत में 12 दिन की न्यायिक हिरासत में भेजा है। जबकि गांव में पुलिस तैनात है ताकि सती को महिमा मंडित न किया जा सके। गौरतलब है कि सती को महिमा मंडित करने पर कानून में 7 साल की स़जा और 30 हजार रुपये तक के जुर्माने का प्रावधान है।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि यह समाज को कलंकित करने वाली घटना है, जो विशेष रूप से महिला व उसके बराबरी के अधिकारों का अपमान करती है। लेकिन सवाल यह है कि इसके लिए दोषी कौन है? वह समाज जो अपने सामने इस किस्म के घिनौने अपराधों को होने देता है? वह पुलिस प्रशासन जो घटना होने के बाद ही मौका-ए-वारदात पर पहुंचता है? सरकार का सूचना विभाग जो कानून और स़जा की संपूर्ण जानकारी अवाम तक नहीं पहुंचाता ताकि वह डरे? या फिर धर्म के वह ठेकेदार जो धर्मग्रंथों के मूल तत्वों को जनता तक नहीं पहुंचाते बल्कि उन्हें छुपाए रखते हैं? शायद इसके लिए ये सभी और साथ में हम सभी भी जिम्मेदार हैं।
लालमती (70वर्ष) के पति काफी अरसे से बीमार थे और गांव में संभवतः सभी लोगों को मालूम था कि लालमती का इरादा सती होने का है। इसके बावजूद न तो लालमती के परिवार के सदस्यों ने और न ही किसी अन्य ग्रामीण ने इसकी सूचना पुलिस को दी। जो खबरें मिल रही हैं, उनसे यह भी जाहिर होता है कि किसी ने लालमती को हतोत्साहित करने का प्रयास भी नहीं किया। अधिक संभावनाएं इस बात की हैं कि लालमती को उकसाया गया होगा कि इससे वह देवी के रूप में पूजी जाएंगी। गौरतलब है कि आज भी मध्यप्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में सती मंदिर हैं जिनमें नियमित पूजा-अर्चना की जाती है। यह अफसोस की ही बात है कि सती पर प्रतिबंध होने के बावजूद इस किस्म की घटनाएं तकरीबन कहीं न कहीं हो ही जाती हैं। ध्यान रहे कि 1815 और 1829 के बीच अकेले कलकत्ता शहर में 8,134 सती होने की घटनाएं रिकॉर्ड की गईं थीं, जिससे क्षुब्ध होकर अंग्रेजों ने 1829 में सती पर प्रतिबंध लगा दिया था। अब यह समाज की ही कमजोरी है जो वह इन वीभत्स कृत्यों को अब भी दोहराता है।
पुलिस प्रशासन का काम सिर्फ यही नहीं है कि अपराध होने के बाद वह मुल़्िजमों को गिरफ्तार करके उन्हें अदालत के दरवाजे तक पहुंचाए। पुलिस प्रशासन का काम यह भी है कि वह ऐसा माहौल कायम करे और ऐसी व्यवस्था उत्पन्न करने में मदद करे जिसमें लोग अपराध करने से डरें या स्वयं अपने आप पर लगाम लगाए रखें। लेकिन देखने में यह आता है कि पुलिस प्रशासन की ढिलाई व लापरवाही के कारण अपराधों में निरंतर इजाफा होता रहता है। विशेषकर सामाजिक कुरीतियों को दूर करने में पुलिस अपनी शायद कोई जिम्मेदारी ही नहीं समझती है। इसलिए भी अज्ञानी समाज का दुस्साहस कम नहीं होता और सती जैसी घटनाएं सामने आ जाती हैं।
गिरफ्तार होने के बाद लालमती के बड़े बेटे भरतराम ने कहा कि उसने आज तक यह नहीं सुना था कि सती होने पर प्रतिबंध है और इस संदर्भ में सख्त कानून मौजूद हैं। कानून की जानकारी न होने का अर्थ निर्दोष होना नहीं है। लेकिन इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि सरकारी सूचना विभाग इतना लचर है कि अधिकतर नागरिकों को अपनी जिम्मेदारियों, अधिकारों, कानूनों और सजाओं के बारे में मालूम ही नहीं है। गौरतलब है कि 4 सितंबर, 1987 को जब देवराला, राजस्थान में रूपकंवर ने अपने पति की चिता पर जलकर अपनी जान गंवाई थी, तब उसके बाद “द कमीशन ऑफ सती (प्रिवेंशन) एक्ट-1987′ का गठन किया गया था। लेकिन इस कानून की रोशनी में आखिर कितने लोग यह जानते हैं कि “सती या जलाना या विधवाओं को जिंदा गाड़ना मानव प्रकृति की भावनाओं के विरूद्घ है और भारत के किसी भी धर्म में इसे आवश्यक कर्तव्य नहीं माना गया है।’ अगर इस तरह जान देने का प्रयास करने वाली महिला बच जाती है तो उसे एक साल की कैद और जुर्माना होगा। जो व्यक्ति उसे सती होने पर मजबूर या सहयोग करते हैं, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से, उन्हें सजा-ए-मौत या आजीवन कारावास और जुर्माने की सजा से गुजरना होगा।
सती में सहयोग करने का अर्थ यह है कि विधवा या महिला को यह यकीन दिलाना कि सती होने पर उसे या उसके मृत पति या रिश्तेदार को आध्यात्मिक लाभ होगा… सहयोग का यह भी अर्थ है कि विधवा या महिला को सती होने के निश्र्चय पर कायम रखना, अगर महिला जलने या जिंदा दबाए जाने से अपने आपको बचाने का प्रयास करे तो उसे बचने न देना और उन्हें भी रोकना जो उसे बचाने का प्रयास करें।
इससे जाहिर हो जाता है कि सती को रोकने के लिए कानून ने चौतरफा हदबंदी की हुई है और इतनी सख्त सजाओं का प्रावधान रखा है कि कोई भी सती होने में उकसाने व सहयोग करने से डरेगा। शायद यह कानून की सही जानकारी अवाम तक न पहुंचने की वजह ही है कि सती जैसे घिनौने अपराध इधर-उधर होते रहते हैं।
बहरहाल, इन अपराधों के लिए काफी हद तक हमारे धर्मगुरु भी जिम्मेदार हैं। पहली बात तो यह है कि धर्म की गलत व्याख्या के कारण सती जैसे अपराध पर मतभेद हैं। गौरतलब है कि जब रूपकंवर का मामला उठा था तो कांचीपुरम के शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती ने सती को शास्त्रों के विरूद्घ बताया था, लेकिन पुरी के तत्कालीन शंकराचार्य ने सती को शास्त्रसम्मत बताया था। जबकि तथ्य यह है कि यजुर्वेद की एक ऋचा के अनुसार विधवा से कहा गया है कि वह निरर्थक अपने मृत पति की मृत्यु-शय्या पर विलाप कर रही है, उसे तो उठकर किसी अन्य योग्य वर का हाथ थाम लेना चाहिए ताकि उसका जीवन सफल हो सके। वेदों के इस स्पष्ट आदेश के बावजूद हमारे धर्मगुरु विभिन्न धार्मिक टीवी चैनलों पर इधर-उधर की बातें तो करते रहते हैं लेकिन समाज सुधार विशेषकर महिला अधिकारों व हितों की बातों को जन-जन तक पहुंचाने का प्रयास नहीं करते।
दरअसल, सती या मानव बलि जैसे घिनौने अपराधों पर उस समय तक पूरी तरह से विराम नहीं लगेगा जब तक समाज, सरकारी अमला और धर्मगुरु मिलकर ईमानदारी से इस संदर्भ में प्रयास नहीं करते।
– वीना सुखीजा
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