देश में बढ़ती आबादी और जीवन शैली में बदलाव के साथ-साथ पानी की मांग बढ़ती ही जा रही है। क्या उद्योग, क्या कृषि, क्या घरेलू कार्य, सभी के लिए पानी की आवश्यकता तेज़ी से बढ़ रही है। बढ़ती मांग और स्थिर आपूर्ति की पृष्ठभूमि में उपलब्ध जल स्रोतों पर कब्जे के लिए राज्यों, शहरी एवं ग्रामीण लोगों, संपन्न और गरीब वर्गों, कृषि और औद्योगिक हितों, नदी के ऊपरी और निचले हिस्सों के वासियों के बीच संघर्ष की स्थितियां निर्मित होती जा रही हैं।
इस परिस्थिति में विश्र्व भर के पूंजीपति, बहुराष्ट्रीय कंपनियां आने वाले वर्षों में पानी को मुनाफे के एक बड़े स्रोत के रूप में देख रही हैं। वे चाहती हैं कि विश्र्व के जल संसाधनों के अधिकतर भाग पर उनका अधिकार हो जाए ताकि वे इसे मनमानी कीमत पर बेचकर अपनी तिज़ोरियां भर
सकें। उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों ने उनका काम आसान भी बना दिया है।
सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र के बीच भागीदारी के नाम पर सरकारें शहर और ग्रामीण क्षेत्रों की जल आपूर्ति को निजी क्षेत्र को सौंपकर इस दायित्व से अपना पल्ला झाड़ना चाह रही हैं। कई राज्य सरकारों ने मात्र शहरी क्षेत्रों को पेयजल की आपूर्ति निजी क्षेत्र को सौंपने के कुछ प्रयास किए हैं।
इन सबसे अलग, छत्तीसगढ़ एक ऐसा राज्य है जिसने औद्योगिक उद्देश्यों के लिए जल की आपूर्ति के बहाने पूरी-पूरी नदियां ही बेचना शुरू कर दिया है। इस दिशा में प्रथम प्रयास तो अविभाजित मध्यप्रदेश की सरकार ने ही किया था।
सरकार के इस कदम ने इस नदी के किनारे बसे लोगों को इसके पानी के उपयोग से वंचित कर दिया। जिस पानी का ये लोग सदियों से उपयोग कर रहे थे, जिससे अपनी आजीविका चला रहे थे, अचानक ही उनका यह अधिकार छिन गया। नदी खरीदने वाली एक कंपनी ने तो बड़े गर्व से घोषणा भी कर दिया कि अगर वह चाहे तो ग्रामवासियों को नदी से पानी लेने, उसमें नहाने-धोने,पशुओं को पानी पिलाने आदि से रोक सकती है और यही उसने किया भी। ग्रामवासियों की नदी तक पहुँच को समाप्त करने के लिए उसने नदी के दोनों ओर पूरे 23 किमी. लंबे किनारों पर कंटीले तारों की बाड़ लगा दी। लोगों ने विरोध भी किया, आंदोलन भी चलाया परंतु उदारीकरण के इस दौर में जनशक्ति को धनशक्ति के आगे हारना ही था।
शिवनाथ नदी के 23 किमी. क्षेत्र के पानी से खरीदार कंपनी ने कितना लाभ कमाया, यह देखना भी समयोचित होगा। नदी के दोनों ओर कंटीले तार लगाने की प्रिाया में नदी के किनारे की अत्यंत उपजाऊ 176 एकड़ भूमि पर भी कंपनी ने कब्ज़ा कर लिया जिसका अनुमानित मूल्य 5 करोड़ रुपया है। साथ ही वह शिवनाथ नदी के पानी को मध्यप्रदेश औद्योगिक विकास निगम को बेचकर 1.84 करोड़ रुपया प्रति वर्ष की आय भी अर्जित कर रही है। मात्र 1 रुपये की राशि के बदले 500 करोड़ की भूमि पर कब्जा तथा 1.84 करोड़ की वार्षिक आमदनी से अधिक लाभ वाला सौदा शायद ही कोई और हो। छत्तीसगढ़ विधानसभा की सार्वजनिक लोक लेखा समिति ने मार्च, सन् 2007 की रिपोर्ट में शिवनाथ नदी के निजीकरण को राज्य के व्यापक हितों के विरुद्ध बताया था और इसे आपराधिक कृत्य की संज्ञा दी थी। ऐसे में यह अपेक्षा की जा सकती थी कि छत्तीसगढ़ की सरकार नदियों को बेचने की इस नीति को यहीं रोक देगी और आम लोगों के हित एवं आवश्यकताओं की पूर्ति की दिशा में कार्य करेगी। परंतु इस समय सरकारों के लिए आम जनता के हितों का कोई महत्व ही नहीं रह गया है। वे अब नदियों को ही नहीं, भूगर्भ में स्थित खनिजों, कृषि भूमि आदि को भी उद्योगपतियों को सौंपने की नीति अपना रही हैं। छत्तीसगढ़ की सरकार भी लोगों के विरोध और सार्वजनिक लेखा समिति की प्रतिकूल टिप्पणियों के बावजूद नदियों की बिक्री जारी रखे है। सरकार अब तक केलो, कुरकुट, शबरी, खरम और माण्ड नदियां बेच चुकी है। यही नहीं, शिवनाथ नदी के दंतेवाड़ा जिले में स्थित निचले भाग को पुनः एक स्टील कंपनी को बेच दिया है। इस तरह शिवनाथ नदी को एक बार नहीं, दो बार बेचा गया है। प्रचुर वर्षा वाले छत्तीसगढ़ राज्य की प्रचुर प्रवाहित नदियां अब निजी स्वामित्व की वस्तुएं बनती जा रही हैं।
पूंजीपतियों की लाभ की हवस को अब मात्र श्रमिकों के शोषण से संतुष्ट करना संभव नहीं रहा है क्योंकि उत्पादन में प्रयुक्त श्रमिकों की संख्या तो गिरती जा रही है। अतः अब पूंजीपति राष्ट्र के प्राकृतिक संसाधनों, जैसे- कृषि भूमि, खनिज पदार्थ, वन,पानी आदि पर कब्ज़ा कर अपनी-अपनी तिज़ोरियों को भरने के प्रयासों में लग गए हैं। छत्तीसगढ़ की नदियों पर कब्जा भी उन्हीं प्रयासों का अंग है। हम लोगों को मिल-बैठ कर सोचना होगा कि इन परिस्थितियों में हमें क्या करना है?
– डॉ. रामप्रताप गुप्ता
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