मलयालम के प्रमुख दैनिक समाचार-पत्र “मातृभूमि’ में एक अत्यंत चिंताजनक रिपोर्ट प्रकाशित हुई है, जो बताती है कि केरल की अविवाहित कन्याओं में गर्भधारण और भ्रूण-हत्याओं की संख्या में वृद्घि हो रही है। लिखा है कि 13 और 24 वर्ष के बीच की आयु-वर्ग की कन्याओं पर, जो अध्ययन आलपुषा मेडिकल कॉलेज के गाइक्नोलॉजी विभाग की अध्यक्ष डॉ. ए. शीला मोनी के नेतृत्व में हुआ, उसी से उक्त निष्कर्ष निकला है। अध्ययन केरल के कोट्टयम व कोषिकोट मेडिकल कॉलेजों पर केन्द्रित था।
इसके कारणों पर भी अध्ययन से कुछ निष्कर्ष निकले हैं, जो ये हैं- अभिभावकों में सतर्कता का अभाव, परिवार का प्रतिकूल वातावरण, अनुशासनहीनता, परिवार के सदस्यों में पारस्परिक स्नेह का अभाव, परिवार का विघटन, यौन-संपर्क के परिणामों के संबंध में अनभिज्ञता, बेकारी और उसके कारण अकर्मण्यता इत्यादि।
केरल तो भारत के अन्य राज्यों की अपेक्षा साक्षरता और शिक्षा में, विशेषकर स्त्री-शिक्षा में, काफी आगे रहा है। ऐसे केरल की यह हालत हो सकती है तो शिक्षा में पिछड़े रहने वाले राज्यों की हालत इससे बदतर ही तो होगी। सही स्थिति का आकलन तभी हो सकेगा, जब उक्त प्रकार के वैज्ञानिक अध्ययन हों।
उक्त अध्ययन में तो स्थिति और कारणों की खोज की गई है, पर इस प्रकृति के दुष्परिणामों पर भी तो सोचना होगा। कम उम्र में, अवैध गर्भधारण करने पर कन्याओं को घर के अन्दर और बाहर कितना अपमान सहना पड़ता है, उनकी कितनी उपेक्षा की जाती है। भ्रूण-हत्या से उनके स्वास्थ्य पर कितना बुरा असर पड़ता है, ऐसी कन्याओं के मां-बाप को कितना मानसिक उत्पीड़न सहना पड़ता है और मां-बाप यदि गरीब हों तो उन पर कितना आर्थिक बोझ पड़ सकता है, इन सब बातों पर भी जरा सोचिए और उन निरपराध अजन्मे शिशुओं की अकथनीय पीड़ा पर भी विचार कीजिए, जिन्हें भ्रूण अवस्था में ही ाूरता से तोड़-मरोड़ कर खत्म कर दिया जाता है। जन्म के अधिकार से ही वंचित किया जाता है। निश्र्चित रूप से यह हमारी एक प्रमुख सामाजिक व सांस्कृतिक समस्या है जिस पर हर परिवार को गौर करना है, शिक्षण संस्थानों को गौर करना है और महिला कल्याण की स्वैच्छिक संस्थाओं को गौर करना है।
किशोरावस्था की कन्याओं को यौन-शिक्षा देना उचित है या नहीं, इस पर काफी चर्चा हो रही है। इस प्रकार के अध्ययनों के निष्कर्ष इसी बात की ओर संकेत कर रहे हैं कि किशोरियों को ही नहीं, किशोरों को भी पर्याप्त यौन-शिक्षा देना अत्यंत उचित और आवश्यक है। कन्याओं के अभिभावकों को भी अनौपचारिक शिक्षा द्वारा यह समझाना चाहिए कि कैसे इस मामले में अधिक सतर्कता बरतें।
पुरुषों को भी ऐसी दुःस्थिति पर लज्जित होना चाहिए। उन्हें आत्म-विमर्श द्वारा स्वयं को सुधारना चाहिए।
इस प्रकृति को रोकने में मूल्य शिक्षण का भी महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है। महात्मा गांधी ने अपनी आत्मकथा में साफ-साफ बताया है कि उनकी माता की शपथ ने उन्हें किस प्रकार परस्त्री संग से बचाए रखा। विवाहेत्तर यौन संपर्क को हर मजहब हेय मानता रहा है। राम, लक्ष्मण, सीता, सावित्री जैसे उत्तम चरित्रों के माध्यम से पुरुषों व स्त्रियों के चारित्र्य धर्म की पवित्रता समझाई गई है, पर आधुनिक शिक्षा-व्यवस्था में ऐसे सामाजिक मूल्यों को कम और वैज्ञानिक तथा प्रौद्योगिक विषयों को अधिक स्थान दिया जा रहा है। जिस पर टी.वी. जैसे नवीनतम दृश्य, श्रव्य संचार माध्यम उच्छृंखल स्त्री-पुरुष संबंधों के अन्याकर्षण व मोहक दृश्य, पश्र्चिमी नृत्य, पश्र्चिमी फिल्म इत्यादि द्वारा दिखा रहे हैं। मोबाइल फोन इंटरनेट आदि के प्रचलन ने अवैध व विवाहेत्तर स्त्री-पुरुष संपर्क के लिए रास्ता खोल रखा है।
समस्या गंभीर है, यह पूरे भारतीय समाज की चारित्रिक रक्षा की समस्या है।
– के. जी. बालकृष्ण पिल्लै
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