नासूर बनती नाकामी

यह लाचारी की पराकाष्ठा है कि बार-बार एक ही सवाल पूछा जाय और जवाब दे पाना संभव न हो। मगर पीएमओ (प्रधानमंत्री कार्यालय) की स्थिति ऐसी ही है। मई महीने में जब जयपुर में श्रृंखलाबद्घ कई बम धमाके हुए और 80 से ज्यादा लोग मारे गए तो कहा गया कि यह खुफिया एजेंसियों की चूक है। मगर कुछ ही महीनों बाद जब 25 और 26 जुलाई 2008 को ामशः भारत की सिलीकॉन वैली कहे जाने वाले बंगलुरू और हिन्दुस्तानी मैनचेस्टर के खिताब से नवाजे जाने वाले अहमदाबाद में रह रहकर दो दर्जन बम धमाके हुए तो न केवल देश की समूची आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था दहल गई अपितु पीएमओ को फिर एक बार इस सवाल का जवाब नहीं मिला कि देश की खुफिया एजेंसियों को आखिर बड़े से बड़े खतरे की कानों-कान खबर तक क्यों नहीं होती?

लेकिन यह कोई जयपुर, बंगलुरू, अहमदाबाद या अब दिल्ली में हुए सीरियल बम धमाकों के बाद की ही लाचारी नहीं है। सच तो यह है कि पिछले कई सालों से रह-रह कर बम धमाके होते हैं और हर बार हमारी गुप्तचर एजेंसियां उन्हें समय रहते सूंघ पाने में नाकाम रहती हैं। लाचारी का सिलसिला अनवरत कायम है। सच बात तो यह है कि गुप्तचर एजेंसियों की यह लगातार नाकामी देश के लिए नासूर बन गई है। देश के आम नागरिकों में ही नहीं बल्कि खास लोगों में भी यह बात मनोवैज्ञानिक रूप से जड़ जमाने लगी है कि आतंकवाद के मुकाबले हम हार रहे हैं।

हर बड़ी वारदात के बाद गृह मंत्री वरिष्ठ सुरक्षा अधिकारी और गुप्तचर एजेंसियों के आला अफसर बयान देते हैं कि जल्द से जल्द दोषियों को पकड़ा जायेगा और उन्हें कड़ी से कड़ी सजा दी जायेगी। लेकिन जिस तरह हर वारदात के बाद पीएमओ को गुप्तचर एजेंसियों की नाकामियों का कोई जवाब ढूंढ़े नहीं मिलता, उसी तरह इन तमाम दावों के बाद कभी भी हम दोषियों तक नहीं पहुंच पाते। मंत्रियों से लेकर अधिकारियों तक के बयान हास्यास्पद बनकर रह जाते हैं। लोग अब इन बयानों का मजाक उड़ाने लगे हैं। लोगों से कहीं ज्यादा इन बयानों का मजाक वे आतंकवादी उड़ाते हैं, जो हर सीरियल बम ब्लास्ट के बाद लगभग एक ही शैली की चिट्ठी लिखते हैं और उस चिट्ठी में इतराते हुए कहते हैं, “हमें रोक सको तो रोक लो, हम तुम्हें चैन से जीने नहीं देंगे।’

सवाल है देश की आंतरिक सुरक्षा मजबूत करने के लिए सरकार ने देश के बाहर और भीतर खुफिया एजेंसियों का जो जाल बिछा रखा है, आखिर वह बार-बार इतनी बुरी तरह से नाकाम क्यों हो रहा है? देश में आईबी (ईंटेलिजेंस ब्यूरो) और रॉ (रिसर्च एण्ड एनालिसिस विंग) गुप्तचर जाल की रीढ़ हैं। रॉ विदेशों से खुफिया जानकारी इकट्ठा करती है जबकि देश के अंदर किसी तरह की गड़बड़ को समय रहते भांपने की जिम्मेदारी आईबी की है। केन्द्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) भी आतंकवाद विरोधी और सुरक्षा संबंधी अपराधों की छानबीन में अपनी सूचनाएं जमा करता है और उन्हें आईबी के साथ साझा करता है। देश में इंटेलीजेंस ब्यूरो के 72 हजार से ज्यादा अधिकारी और कर्मचारी हैं तथा 10 हजार से ज्यादा मुखबिरों का एक जाल बिछा हुआ है। इतने व्यापक और पुख्ता तंत्र के बावजूद आईबी लगातार निकम्मी साबित हो रही है। लगभग मुंह चिढ़ाने वाले अंदाज में आतंकवादी न सिर्फ उन प्रदेशों में जहां आतंक का साया लहरा रहा है बल्कि उन प्रदेशों और इलाकों में भी जो पारंपरिक आतंकवाद और इलाकाई असंतोष से दूर हैं, वहां भी जब मन होता है बम धमाके कर देते हैं।

हद तो यह है कि अहमदाबाद बम धमाकों के बाद पकड़े गए सिमी के कार्यकर्ताओंं से यह पुख्ता जानकारियां मिली थीं कि दिल्ली आतंकवादियों के निशाने पर है। सुरक्षा विश्लेषकों ने आतंकवादियों के बैड ई-मेल का जो डिकोड किया था, उसके हिसाब से वह पहले ही समझ गए थे कि बी यानी बंगलुरू, ए यानी अहमदाबाद और अब इसी ाम में डी यानी दिल्ली का नंबर है। बावजूद इसके सुरक्षा व्यवस्था चाक-चौबंद नहीं की जा सकी। इतनी हिंट के बावजूद गुप्तचर एजेंसियां अपने मुखबिरों के जरिए उन अवरोधों को नहीं तोड़ पाईं जो उन्हें कामयाबी दिलाते, जिस कारण चीख-चीखकर धमकियां देने के बावजूद आतंकवादी अपना काम कर गए। भारतीय खुफिया एजेंसियों के हिस्से एक बार फिर लाचारी और नाकामी ही लगी।

यह नहीं कहा जा सकता कि खुफिया एजेंसियों के मुकाबले आतंकवादी ज्यादा एडवांस हैं या उनके पास खुफिया एजेंसियों के मुकाबले ज्यादा उन्नत तकनीक है। नब्बे के दशक में जब आतंकवादियों से लड़ते हुए पुलिस और पैरा मिलिटी फोर्स के जवान नाकाम होते थे तो कहा जाता था आतंकवादियों के पास अत्याधुनिक किस्म के हथियार हैं जबकि हमारे सुरक्षाबलों के पास पुराने और कम उन्नत हथियार हैं। लेकिन यह बात गुप्तचर एजेंसियों के संदर्भ में किसी भी दृष्टि से नहीं कही जा सकती है। गुप्तचर एजेंसियों को आज की तारीख में अरबों रूपये का बजट मिलता है और वह बजट भी बिना ऑडिट के होता है यानी वह कहां खर्च हुआ, कितना खर्च हुआ, इसका हिसाब नहीं मांगा जाता। 1968 में रॉ के महज 250 एजेंट थे। आज 10 हजार से ज्यादा एजेंट हैं। 1968 में रॉ का बजट जहां सिर्फ 2.5 करोड़ रूपये था वहीं आज यह 15,00 करोड़ रूपये से ऊपर पहुंच गया है। फिर भी शुरू में रॉ जितना चुस्त-दुरूस्त और रिजल्ट देता था, आज बिलकुल उसके उलट है।

खुफिया एजेंसियों की इस नासूर बनती नाकामी के लिए कोई एक-दो वजह जिम्मेदार नहीं हैं बल्कि इस लगातार की नाकामी के पीछे कामकाज की समूची शैली ही जिम्मेदार है। हमारे यहां कानूनी कार्रवाईयों का बेहद खराब रिकार्ड, राजनीतिक नेतृत्व में साहसिक निर्णय लेने की क्षमता का अभाव, वोट केन्द्रित निर्णय, देशभर की पुलिस और राज्य गुप्तचर एजेंसियों के बीच तालमेल की कमी के साथ-साथ लगभग प्रतिद्वंदी रवैय्या, एक राष्टीय अपराध, डाटाबेस का अभाव और सबसे ऊपर एक ऐसी अधिकार प्राप्त संघीय गुप्तचर एजेंसी का अभाव जो देश के किसी भी कोने में घटी किसी घटना की जाकर बेरोकटोक ढंग से जांच कर सके। हैरानी की बात यह है कि ये खामियां कोई ऐसी गुप्ततल में छिपी खामियां नहीं हैं जिन्हें हमारे राजनेता या कि वरिष्ठ निर्णय लेने वाले अधिकारी जानते न हों, सभी जानते हैं। बावजूद इसके निर्लज्जता की हद यह है कि एक खूनी घटना के बाद हम अगली त्रासद घटना का इंतजार करने के अलावा और कुछ भी नहीं करते।

हर बड़ी आतंकवादी वारदात के बाद खुफिया और सुरक्षा एजेंसियां सिाय होती हैं, दो-चार लोगों को पकड़ती हैं और मीडिया में इस तरह के बयान देती हैं मानो उन्होंने अपराधियों को दबोच लिया हो। लेकिन जैसे-जैसे घटना पुरानी होती जाती है, आम लोगों की स्मृति में वह धुंधली होती जाती है और अंततः खो जाती है। तब न तो किसी को यह याद रहता है कि हमारी सुरक्षा और खुफिया एजेंसियों ने क्या दावे किए थे और न ही मीडिया इन पर, इनके दावों को लेकर किसी तरह का दबाव बनाती है। नतीजा यह होता है कि सब लोग सहजता से हर बात को भूल चुके होते हैं। हमें अपनी सुरक्षा और खुफिया एजेंसियों की लगातार बुरी तरह से सिलसिलेवार नाकामी का अहसास तब होता है जब अगली बार फिर से कोई बड़ी वारदात होती है। तब मानो हम नींद से जागते हैं और लगभग चौंकते हुए याद करते हैं कि पिछली वारदातों के अपराधी भी तो नहीं पकड़े गए?

गुप्तचर एजेंसियों की इस हाहाकारी नाकामी के पीछे महज तकनीकी रूप से वह ढांचा और कामकाज का लापरवाह व अकर्मण्य तरीका ही जिम्मेदार नहीं है जो लगभग स्थायी भारतीय शैली बन चुकी है, अपितु वह समूचा नागरिक समाज भी इस नाकामी की कलंक कथा का हिस्सेदार है जो वारदात के समय तो नींद से जगकर सवालों की झड़ी लगाता है मगर वारदात गुजर जाने के बाद फिर निद्रालीन हो जाता है। भारत में जिस तरह से आतंकवादी बार-बार और लगभग ललकारकर वारदातों को अंजाम दे रहे हैं, वह किस्सा देख-सुनकर किसी भी नागरिक समाज की रूह कांप जाए। अमरीका में टेड टॉवर आतंकी वारदात के बाद से कोई दूसरी बड़ी वारदात नहीं हुई, जबकि अमरीका इस्लामिक आतंकवाद के निशाने में सबसे ऊपर है। क्या अमरीकीयों ने पूरे अमरीकी भूगोल को किसी इस्पात की चादर से ढक दिया है जहां आतंकवादी प्रवेश ही नहीं कर सकते? नहीं। लगातार सिाय और सजग खुफिया व्यवस्था और उतना ही सजग व संवेदनशील नागरिक समाज आतंकवाद से पार पाने का अमरीका का अचूक नुस्खा है जो सिर्फ अमरीका ने ही नहीं आजमाया, ब्रिटेन फ्रांस और दूसरे तमाम यूरोपीय देशों ने भी इसे कामयाबी से लागू करके दिखाया है।

दुनिया में एक अकेला भारत ही ऐसा देश है जो बार-बार खून से लथपथ होने के बावजूद न तो अपनी नाकामियों से कुछ सीखता है और न ही हमें गुस्सा आता है। आतंकवाद देश की एकता और अखंडता के लिए खतरा बन जाने के बावजूद राजनेता उसके जरिए सियासी रोटी सेंकने से बाज नहीं आते। ऐसे में भगवान ही जानता है कि इस उनींदे, नििाय और नर्म हिन्दुस्तान का भविष्य क्या होगा?

भारत का खुफिया तंत्र

. रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ)

. इंटेलीजेंस ब्यूरो (आईबी)

. ज्वॉइंट साइबर ब्यूरो (जेसीबी)

. ऑल इंडिया रेडियो मॉनिटरिंग सर्विस (एआईआरएमएस)

. ज्वॉइंट इंटेलीजेंस कमेटी (जेसीआई)

. सिग्नल इंटेलीजेंस डायरेक्टरेट (एसईडी)

. डिफेंस इंटेलीजेंस एजेंसी (डीआईए)

. डायरेक्टरेट ऑफ मिलिटी इंटेलीजेंस (डीएमई)

. डायरेक्टरेट ऑफ नेबल इंटेलीजेंस (डीएनई)

. डायरेक्टरेट ऑफ एयर इंटेलीजेंस (डीएई)

. अन्य एजेंसियां-

. डायरेक्टरेट ऑफ रेवेन्यू इंटेलीजेंस

. एन्फोर्समेंट डायरेक्टरेट

. सेंटल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टीगेशन

. राज्यों की पुलिस खुफिया शाखाएं

. सीआईडी

 

नाकाम ही नहीं खोखला भी है खुफिया तंत्र

पिछले 5 सालों में एक दर्जन से ज्यादा ऐसी आतंकी वारदातें घटी हैं जो हमारी खुफिया एजेंसियों की बुरी तरह से नाकामी का नतीजा थीं। लेकिन भारतीय खुफिया एजेंसियां सिर्फ नाकाम ही नहीं हो रहीं बल्कि बड़े पैमाने में हमारी खुफिया एजेंसियों में दुनिया के दूसरे देशों की खुफिया एजेंसियों की घुसपैठ भी हो रही है। खासतौर पर पाकिस्तान की आईएसआई और अमरीका की सीआईए तथा रूस की एफबीआई जैसी खुफिया एजेंसियों ने भारतीय खुफिया एजेंसियों में जबरदस्त सेंध लगा दी है।

पिछले एक दशक में अमरीका के साथ हमारे रिश्ते लगातार सुधरे हैं। लेकिन इन सुधरते रिश्तों की हमें सबसे बड़ी कीमत जो अदा करनी पड़ी है वह है भारतीय खुफिया एजेंसियों में सीआईए की जबरदस्त घुसपैठ। पिछले 5 सालों के अंदर संयुक्त और उपनिदेशक स्तर के तमाम गुप्तचर अधिकारी सीआईए से जा मिलने के दोषी पाए गए हैं। इनमें 2 बड़े अधिकारी विदेश से और एक उपनिदेशक स्तर का अधिकारी रविन्दर सिंह देश के अंदर से सीआईए के लिए काम करते हुए गायब हो गया। पिछले 5 सालों में भारतीय गुप्तचर एजेंसियों ने अपने 100 से ज्यादा ऐसे छोटे से लेकर बड़े स्तर तक के कर्मचारियों और जासूसों को पकड़ा है जो विदेशी खुफिया एजेंसियों के लिए काम कर रहे थे। नौसेना के वार लॉक रूम में सेंध, नरसिंहा राव के समय में पोखरण-2 की जानकारी अमरीका तक पहुंचना और अमरीका के दबाव से पोखरण-2 परीक्षण रद्द होना इसके सबूत हैं। आईएसआई ने तो न सिर्फ उत्तर पूर्व, मध्य और पश्र्चिमोत्तर भारत के आम लोगों के बीच अपनी घुसपैठ मजबूत कर ली है बल्कि पिछले कुछ सालों में उसने बड़ी तादाद में भारतीय गुप्तचरों को भी तोड़ा है या उनसे काम की सूचनाएं हासिल की हैं। कारगिल युद्घ में जिस तरह से भारतीय खुफिया एजेंसियां नाकाम हुई थीं वह उनकी धोखे में हुई नाकामी नहीं थी बल्कि एक साजिश का नतीजा थी। गौरतलब है कि कारगिल में पाकिस्तानी सैनिकों की घुसपैठ का पता भारतीय गुप्तचर एजेंसियों को नहीं लगा था बल्कि कुछ बक्करवालों (चरवाहों) के जरिए भारतीय सेना को इसका पता चला था। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारतीय खुफिया तंत्र कितना लापरवाह, उनींदा और खोखला हो चुका है?

 

– एन.के. अरोड़ा

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