नेपाल के प्रधानमंत्री की प्रथम भारत यात्रा

पूर्व माओवादी नेता और अब नेपाल के प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल, जिन्हें प्रचंड उपनाम से संबोधित किया जाता है, अपनी पॉंच दिवसीय यात्रा पर भारत आये हैं। राजशाही की समाप्ति और नेपाल में लोकतांत्रिक सरकार स्थापित होने के बाद यह उनकी पहली भारत यात्रा है। अब तक एक परंपरा के अनुसार प्रधानमंत्री पद पर आसीन होने के बाद नेपाल का हर प्रधानमंत्री प्राथमिकता के आधार पर भारत की ही यात्रा करता रहा है। लेकिन प्रचंड ने इस परंपरा को तोड़ते हुए जब पहले चीन की यात्रा को तरजीह दी तो यह कहा जाने लगा कि वैचारिक स्तर पर जुड़ाव के कारण उन्होंने भारत के ऊपर चीन को वरीयता दी है। इस परंपरा का टूटना भारत के लिए भी अखरने वाली बात थी। अतएव अपनी भारत यात्रा के दौरान प्रचंड के लिए यह ़जरूरी था कि वे इस बात का ़खुलासा तथा निराकरण करें। अपनी इस यात्रा में प्रचंड ने इस विषय को स्पष्ट करते हुए कहा है कि भारत और चीन को लेकर नेपाल के संबंधों की तुलना नहीं की जानी चाहिए क्योंकि दोनों का महत्व अलग-अलग है।

फिर भी अब तक दोनों देशों के बीच कायम 1950 की भारत-नेपाल संधि को पुनः परिभाषित करने तथा एक व्यापक समीक्षा के बाद इसे नये सिरे से स्थापित करने की पेशकश कर उन्होंने इस संदेह की गुंजाइश बरकरार रखी है कि नेपाल की उनकी अगुआई वाली सरकार अब उस “आत्मीयता’ से भारत के साथ जुड़ाव नहीं रखेगी जो अब तक दोनों देशों के बीच महसूस की जाती रही है। वैसे प्रचंड, इस संधि को बदलने की मांग प्रधानमंत्री बनने के बहुत पहले से करते आ रहे हैं। अब यह प्रस्ताव आधिकारिक तौर पर उन्होंने भारतीय प्रधानमंत्री के सामने विचारार्थ पहली बार रखा है। हालॉंकि चीन के प्रति अपने अतिरिक्त झुकाव के संदर्भ में उन्होंने कोई स्पष्ट टिप्पणी नहीं की है लेकिन भारत के लिए इतना ़जरूर कहा है कि नेपाल और भारत एक-दूसरे से ऐतिहासिक और भौगोलिक आधार पर जुड़े हैं। उन्होंने नेपाल के निर्माण में ढॉंचागत विकास करने के लिए भारतीय उद्यमियों को निवेश का न्यौता भी दिया है। प्रचंड ने भारत के ते़जी से होते आर्थिक विकास की सराहना भी की है और कहा है कि दोनों देशों को मिलकर आर्थिक उत्थान के रास्ते पर आगे बढ़ना चाहिए। नेपाल की वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए उसके पुनर्निर्माण के लिए वे भारत और चीन दोनों के साथ संबंध संतुलित रखना चाहेंगे और किसी हालत में वह यह प्रदर्शित करने की कोशिश नहीं करेंगे कि समान विचारधारा के चलते वह भारत की अपेक्षा चीन को वरीयता देने की नीति का अनुसरण कर रहे हैं।

प्रचंड अगर एक बार ऐसा करना चाहें भी तो वह नहीं कर सकेंगे। क्योंकि नेपाल में कायम हुई लोकतांत्रिक सरकार पर उनका और उनकी पार्टी का पूरी तरह वर्चस्व नहीं है। सरकार में ऐसे भी दल शामिल हैं जो भारत के प्रति “आत्मीयता’ के साथ जुड़ाव रखते हैं। इसके अलावा अभी नेपाल को किसी विचारधारा की नहीं बल्कि एक सर्जनात्मक दृष्टिकोण की आवश्यकता है। वह भारत का पड़ोसी ही नहीं है, वह भारत की सांस्कृतिक इकाई भी है। अतः उसे भारत के प्रति अपनी इस यथार्थवादी सोच को बरकरार रखना होगा। भारतीय प्रधानमंत्री ने भी एक यथार्थवादी सोच के साथ संबंधों को मजबूत बनाने की प्रतिबद्घता व्यक्त की है। भारत और नेपाल दोनों के लिए ही शुभ और लाभकारी होगा कि वे अपने संबंधों की ऐतिहासिक आवश्यकता को न भूलें। दोनों देश अलग-अलग राष्ट होते हुए भी सदैव से एक-दूसरे के परिपूरक रहे हैं और इसी भूमिका में उन्हें बने रहना भी चाहिए।

कंधमाल के बाद कर्नाटक

पिछले दिनों उड़ीसा के कंधमाल जिले में विश्र्व हिन्दू परिषद के नेता लक्ष्मणानन्द सरस्वती की हत्या के बाद जो कुछ हुआ, उसका दूसरा अध्याय अब कर्नाटक में दुहराया जा रहा है। धर्मांतरण के मुद्दे पर कंधमाल में कथित तौर पर हिन्दुत्ववादी संगठनों के नेतृत्व में भीड़ ने ईसाई मिशनरियों द्वारा स्थापित संस्थानों तथा उनकी बस्तियों में जमकर तोड़-फोड़ और आगजनी की थी, यहॉं तक कि एक नन को धधकती लपटों के हवाले कर जिन्दा जला डालने की घटना भी प्रकाश में आई थी। वह आग जब बुझने के कगार पर आई तो उसी मुद्दे पर कर्नाटक के भी कई इलाके वैसी ही आगजनी की भेंट चढ़ने लगे। फिर वही हिन्दुत्ववादी जमातें कथित तौर पर एक अभियान के तहत ईसाई मिशनरियों के संस्थानों और चर्चों पर हमले के लिए जिम्मेदार बताई जा रही हैं।

यह एक म़जेदार बात है कि जिस समय कर्नाटक के बहुत सारे हिस्सों में अराजकता का यह नग्न तांडव हो रहा था, उस समय भाजपा की राष्टीय कार्यकारिणी की बैठक बेंगलुरु में चल रही थी। लेकिन कार्यकारिणी की बैठकों के दौरान न तो इन घटनाओं पर कोई चिन्ता प्रकट की गई और न ही इन्हें अविलम्ब रोकने का कोई दिशा-निर्देश भाजपायी मुख्यमंत्री येदियुरप्पा की ओर से जारी किया गया। उन्होंने जो बयान जारी किया वह भी उनके पद की मर्यादा के अनुकूल नहीं समझा जाएगा। उन्होंने बयान जारी कर कहा है कि “जबरन धर्मांतरण में लिप्त न हों ईसाई मिशनरियॉं।’ जबरन धर्मांतरण एक कानूनी अपराध है और यह स्वीकारने में कोई हर्ज नहीं कि चर्च की ओर से ऐसे अभियान निरंतर चलाये जा रहे हैं। लेकिन सवाल यह उठता है कि अपराध को कानून और उसकी मशीनरी रोकेगी अथवा अराजक भीड़?

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