नेपाल में हिन्दी विरोध निरर्थक

नेपाल में संविधान सभा के चुनावों में माओवादियों की जीत पर चीन उत्साह से लबालब था। चीन ने नेपाल से तिब्बत तक रेलवे लाइन बिछाने की घोषणा कर दी थी। इस कार्यवाही का ध्येय नेपाल को तिब्बत से और तिब्बत से सम्पूर्ण चीन में आवागमन शुरू कर नेपाल में चीनियों के प्रवेश का रास्ता साफ करना था। आश्र्चर्य तो तब हुआ जब चीनी प्रतिनिधिमंडल ने तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री कोईराला को चीन के इस कदम की जानकारी दी। चीन के इस निर्णय पर नेपाल के प्रधानमंत्री स्वयं आश्र्चर्यचकित थे कि आखिर इस योजना को स्वीकृति किसने दी। नेपाल की संविधान सभा में माओवादियों के विजयी होने पर नेपाल पर चीन अपना हक समझने लगा था। चीन का नेपाल प्रवेश भारत विरोधी ही होता। चीन की विस्तारवादी नीति हमेशा से रही है। वह अपने पड़ोसी क्षेत्रों पर अपना दावा करता रहा है। सिक्किम का उदाहरण स्पष्ट है। सिक्किम को चीन द्वारा भारतीय क्षेत्र माने जाने के बावजूद उसने सिक्किम को चीन अधिकृत बताकर विवाद खड़ा कर दिया, फिर नेपाल में हस्तक्षेप करने वाले नेपाल से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह भारत विरोधी जहर नहीं उगलेगा। चीन को उसका ध्येय पूरा करने में माओवादियों की गतिविधियां सहायक बनी हैं। इसलिए नेपाल में भारत विरोधी राजनीति उभरकर आ जाती है। कभी भारत-नेपाल समझौते की पुनः समीक्षा करने को हवा दी जाती है, तो हाल ही में नवनिर्वाचित उपराष्टपति परमानंद झा द्वारा अपने पद की शपथ हिन्दी में किए जाने का प्रबल विरोध किया गया। यह सब माओवादियों के संरक्षण में ही किया जा रहा है। जिस देश की 48 प्रतिशत जनता जिस भाषा का उपयोग करती हो, उसी भाषा का उपयोग करने का यदि विरोध किया जाए तो यह कदम जनभावना के अनुकूल कैसे माना जा सकता है। नेपाल के नवनिर्वाचित उपराष्टपति परमानंद झा मधेशी हैं। नेपाल में मधेशी उन नागरिकों को कहा जाता है जो भारतीय मूल के हैं, परंतु पीढ़ियों से नेपाल में निवास कर रहे हैं। उनकी भाषा हिन्दी है। तत्कालीन शासकों की उपेक्षा के कारण हिन्दी को नेपाल में आधिकारिक कार्यों के लिए मान्यता नहीं मिल पाई, लेकिन हिन्दी की उपेक्षा करना नेपाल की आधी से कुछ कम जनता की उपेक्षा करना ही साबित होगा।

माओवादियों को सर्वप्रथम हिन्दी में शपथ लेने का विरोध करने के स्थान पर हिन्दी को राजकीय भाषा का दर्जा दिलाए जाने के लिए संघर्ष किया जाना उचित था। हिन्दी का विरोध कर उन्होंने एक लम्बे समय से अपने हकों के लिए संघर्ष कर रहे मधेशी समुदाय की उपेक्षा कर दी है। माओवादियों द्वारा हमेशा से ही हिन्दी और हिन्दीभाषियों का विरोध किया जाता रहा है। भारत में भी इन माओवादियों ने देश को कमजोर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। देश की आ़जादी को झूठी आ़जादी कहा। नेताजी सुभाषचंद्र बोस और महात्मा गांधी के लिए आपत्तिजनक संबोधनों का प्रयोग किया गया। सन् 1962 में चीनी आामण के दौरान चीन समर्थक नारे लगाए गए। इन वामपंथियों का झुकाव हमेशा चीन की ओर रहा है। माओवाद सत्ता पर कब्जा करने तक सीमित है। इस वाद में विकास संबंधी कोई एजेण्डा फिलहाल दिखाई नहीं देता। अलग-अलग देशों में माओवादियों की कार्यशैली में अंतर हो सकता है परन्तु सैद्घान्तिक रूप से एक समान है, चाहे भारत के माओवादी हों या फिर नेपाल के।

भारत में इन वामपंथियों ने समर्थन देकर केन्द्र सरकार पर जो दबाव बनाए रखा, वह छिपा हुआ नही है। महंगाई को नियंत्रण करने में वे उदासीन रहे। किसानों ने आत्महत्याएं कीं। इन ज्वलंत समस्याओं को लेकर केन्द्र सरकार पर कोई दबाव नहीं बनाया गया। कई मौके थे जब वामपंथी केन्द्र सरकार से अपना समर्थन वापस ले सकते थे। पॉंच सालों में से चार साल तक सत्ता के सभी सुख भोग कर अन्ततः उन्होंने परमाणु करार पर विवाद उत्पन्न कर केन्द्र सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया। वामपंथियों के दबाव के कारण केन्द्र सरकार जनहित के जो कार्य कर सकती थी, वह पॉंच साल पिछड़ गए। यह भी देश को कमजोर करने का एक प्रयास है। वामपंथियों की इसी कार्यपद्घति के कारण देश के सभी प्रांतों में अपना प्रभाव रखने वाले वामपंथी आज देश के एक कोने में सिमटकर रह गए हैं, वहॉं भी वे अपना जनाधार खोते नजर आ रहे हैं। बंगाल में भी अब उनका जनाधार खिसकता नजर आ रहा है। सिंगूर आंदोलन इसका उदाहरण है। भारत में वामपंथियों की स्थिति से नेपाल के माओवादियों को भी सीख लेनी चाहिए। जनभावनाओं के विरुद्घ आचरण करने के परिणाम घातक ही होते हैं, जहॉं हथियारों को त्यागकर लोकतांत्रिक तरीके से नेपाल के माओवादियों ने चुनाव में जीत दर्ज कर संविधान सभा में अपना प्रभुत्व जमाया, एक अच्छा कदम था, वहीं भारत में कम्युनिस्टों की स्थिति से यह भी सीख ली जानी चाहिए कि जनभावना के विपरीत धारा बहाने के परिणाम अच्छे नहीं होते। यदि नेपाल के उपराष्टपति ने अपने पद की शपथ हिन्दी में ली तो उनका स्वागत करना चाहिए था। साथ ही हिन्दी को नेपाल की आधिकारिक उपयोग की भाषा बनाए जाने के प्रयास किये जाने चाहिए, इससे माओवादियों का जनसमर्थन ही ब़ढ़ेगा। लेकिन उनसे इस प्रकार की आशा नहीं की जा सकती है, क्योंकि भारत की आस्थाओं पर चोट करना उनका ध्येय है। कम्युनिस्टों का आचरण कभी भी देश को मजबूत करने का नहीं रहा। उनके द्वारा किए गए कार्यकलापों का लाभ हमेशा चीन ने उठाया है। यही कारण है कि वे बलवान बनें या कमजोर, इससे उन्हें कोई अंतर नहीं पड़ता। उनके कार्यों से जाने-अनजाने चीन को कितना लाभ पहुँचा या पहुँच सकता है, यही संदेश वामपंथियों के बारे में आमजन तक पहुँचता है।

 

– सुरेश समाधिया

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