देश की न्याय-व्यवस्था के प्रति आम आदमी का विश्र्वास बनाये रखने के तहत सर्वोच्च न्यायालय ने सी.बी.आई. को पिछले दिनों प्रकाश में आये उत्तर प्रदेश के प्रविडेंट-फंड घोटाले की जॉंच करने के लिए निर्देशित किया है। यह घोटाला पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद जिले में प्रकाश में आया था। इस घोटाले में कई न्यायिक हस्तियों के शामिल होने की बात भी प्रकाश में आई है, जिसकी वजह से जॉंच एजेंसी को जॉंच की अनुज्ञा सर्वोच्च न्यायालय से प्राप्त करना ़जरूरी था। करोड़ों के इस घोटाले की जॉंच पहले गाजियाबाद पुलिस कर रही थी लेकिन न्यायिक हस्तियों से पूछताछ करने में उसे काफी दिक्कत पेश आ रही थी। अतः उत्तर-प्रदेश सरकार ने इस मामले की जॉंच संघीय जॉंच एजेंसी से कराने की अनुशंसा अपनी ओर से सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत की।
इस घोटाले में कुल 26 न्यायिक हस्तियों के नाम उभर कर सामने आये हैं। इनमें एक न्यायाधीश सर्वोच्च न्यायालय में अब भी कार्यरत हैं। इनके अलावा सात न्यायाधीश इलाहाबाद उच्च न्यायालय के हैं और छः सेवा मुक्त हो चुके न्यायाधीश और बारह प्रदेश के विभिन्न न्यायालयों में कार्यरत न्यायाधीश हैं। सर्वोच्च न्यायालय की माननीय न्यायाधीश अरिजीत पसायत की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने इन सभी न्यायाधीशों के खिलाफ न कोई टिप्पणी की है, और न ही कोई कार्रवाई, फलतः वे सीबीआई की जॉंच पूरी होने तक अपने-अपने पदों पर कार्यरत रहेंगे। लेकिन सी.बी.आई. को उसने इन न्यायिक हस्तियों से पूछताछ तथा हर तरह की जॉंच पड़ताल करने का पूरा अधिकार दे दिया है। सीबीआई को तीन महीने के भीतर अपनी प्राथमिक रिपोर्ट भी प्रस्तुत करनी होगी।
इसके पहले सर्वोच्च न्यायालय ने प. बंगाल उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ संसद में महाभियोग लाने के लिए भी अपनी ओर से हरी झंडी कुछ दिनों पहले दिखाई है। इसके अलावा पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय के दो वर्तमान न्यायाधीशों से एक घूस-कांड की बाबत सर्वोच्च न्यायालय की ओर से पूछताछ करने का अधिकार भी सीबीआई को प्राप्त हो चुका है। सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय के तहत न्यायिक प्रिाया में सुधार और विभिन्न स्तरों पर व्याप्त भ्रष्टाचार के निवारण के लिए इस तरह के ाांतिकारी कदम उठाये हैं। निचली अदालतों में भ्रष्टाचार के बढ़ते प्रकोप के बारे में तो काफी कुछ सुनने को मिलता था लेकिन सामान्य आदमी के मन में यह विश्र्वास बना हुआ था कि प्रदेशों के उच्च न्यायालय और देश का सर्वोच्च न्यायालय अभी इस छूत की बीमारी से बचा है। लेकिन इन दिनों कई ऐसे मामले प्रकाश में आये हैं जिनमें न्यायिक व्यवस्था की आला हस्तियों के हाथ होने के सबूत मिले हैं। मौजूदा गाजियाबाद का मामला भी उसी प्रकृति का है। गाजियाबाद की जिला अदालत की तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों की भविष्य निधि में सात करोड़ रुपये के घपले का मामला प्राथमिक जॉंच में सामने आया है। हैरत उस समय हुई जब इस घपले में उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के कई कार्यरत और सेवामुक्त हुए न्यायाधीशों के नाम उभर कर सामने आये। इस हालत में न्याय-व्यवस्था की साख कायम रखने के लिए ़जरूरी था कि सर्वोच्च न्यायालय इस तरह के कदम उठाकर अपने भीतर की सफाई करने को आगे आता।
श्रम-सुधार के कानूनों की उपेक्षा
उत्तरप्रदेश के ग्रेटर नोयडा में सोमवार को श्रमिकों और इतालवी कंपनी के प्रबंधकों के बीच मारपीट और तोड़-फोड़ की घटना, जिसमें कंपनी के सीईओ को कथित तौर पर श्रमिकों ने पीट-पीट कर मारा डाला, दुर्भाग्यपूर्ण और निन्दनीय भले कही जाय, लेकिन क्या वह उस श्रमिक कुंठा का विद्रोह नहीं है जो मनमाने तौर पर श्रमिक अधिकारों के हनन से पैदा हुई है? कम से कम केन्द्रीय श्रम मंत्री आस्कर फर्नांडीज ने तो इसे इसी रूप में परिभाषित किया है। उन्होंने बड़ी साफगोई से यह स्वीकार किया है कि इस जघन्य हत्या के पीछे एक मात्र कारण कामगारों में प्रबंधन की मनमानी के चलते बढ़ता असंतोष है। उन्होंने यह भी कहा है कि यह हत्या प्रबंधन के लिए एक चेतावनी है कि वह श्रमिकों के प्रति इतना कठोर रवैय्या न अपनावे।
क्या इसे हैरत की बात नहीं माना जाएगा कि जिन कर्मचारियों पर हिंसात्मक उपद्रव का आरोप लगाया जा रहा है, वे अपने हाथ में माफीनामा लेकर आये थे और उनकी चाहत थी कि प्रबंधन उन्हें माफ कर फिर से काम पर रख ले। सोचने की बात यह भी है माफी मांगने वालों को इस हद तक उत्तेजित होने को उत्प्रेरित किसने किया? दरअसल 1990 से जो आर्थिक सुधारों का दौर शुरू हुआ है, उसमें विदेशी कंपनियों के हित में श्रम कानूनों में काफी तब्दीलियॉं की गई हैं। उनकी यूनीयनें अब लगभग बेअसर हो चुकी हैं। उनके प्रति होने वाले अन्याय और शोषण के खिलाफ आवाज उठाने वाला अब कोई नहीं है। प्रबंधन मनमानी तौर पर जब चाहता है उन्हें रखता है और जब चाहता है हटा देता है। इस इतालवी कंपनी ने भी श्रमिकों के साथ ऐसा ही सुलूक किया। प्रबंधन ने उन्हें माफी मांगने को भी मजबूर किया जिसे उन्होंने अपनी रोजी-रोटी के चलते स्वीकार कर लिया। संभवतः इससे आगे की शर्तें इन मजदूरों को अपमानजनक समझ में आई होंगी, जिसकी प्रतििाया इस घटना के रूप में हुई है।
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